श्रीरामावतार
में प्रभु जब अपनी बाल लीला कर रहे थे, तब एक बार मकर
संक्रांति के दिन अयोध्या के राजा दशरथ जी अपने चारो
पुत्रों-राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को साथ लेकर सरयू
नदी के पावन तट पर पहुँचे। वहाँ मकर संक्रांति का उत्सव चल
रहा था। अयोध्यावासी नर-नारी सभी संक्रांति पर सरयू स्नान
और दान-पुण्य आदि कर रहे थे, साथ ही वहाँ एक विशाल मेले का
भी आयोजन था। छोटे बच्चे सरयू के किनारे पतंग लेकर खेल रहे
थे। तभी श्रीराम ने भी उन बच्चो को पतंग उड़ाते देख कर अपने
पिता दशरथ जी से पतंग उड़ाने की इच्छा व्यक्त की। दशरथ जी
ने मेले से चार सुंदर पतंगें लेकर चारों भाइयों को दे दीं।
चारों भाई अपनी-अपनी पतंग लेकर सरयू नदी के किनारे उड़ाने
लगे। सबसे कम ऊँचाई पर शत्रुघ्न जी की पतंग, फिर उससे ऊपर
लक्ष्मण जी की, फिर भरत जी की और फिर सबसे ऊपर श्रीराम की
पतंग उड़ रही थी। ऊँचे उड़ते-उड़ते श्रीराम की पतंग स्वर्ग
लोक तक जा पहुँची। स्वर्ग में देवराज इंद्र के बेटे जयंत
की पत्नी, ने देखा कि यह कैसी विचित्र बात है कि पृथ्वी
लोक की यह पतंग उड़ती हुआ यहाँ देवलोक तक आ गयी। कौतूहलवश
जयंत की पत्नी ने उस पतंग को अपने पास यह सोचकर रख लिया कि
पतंग जिसकी होगी वह इसे लेने अवश्य ही आएगा तो मै उस
अद्भुत मानव को देख भी लूँगी।
उधर धरती पर जब श्रीराम ने देखा कि सभी भाइयो की पतंग वापस
आ गई, पर उनकी पतंग अब तक वापस नही आयी तब उन्होंने लौकिक
व्यवहार करते हुए अपने मुख मण्डल पर निराशा के भाव लाते
हुए अपने प्रिय दास हनुमानजी से कहा कि हे हनुमान हमारे
सभी भाइयो के पतंग वापस आ गए पर मेरी पतंग अभी तक वापस नही
आई तुम जाकर देखो। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि हनुमान
जी की भेंट बाल्यकाल में भी एक बार राम से हुई थी और
उन्होंने राजमहल में रहकर कुछ दिन राम के साथ बिताए थे।
हनुमानजी तो हमेशा राम काज करने को आतुर रहते है। जैसे ही
उन्हें श्रीराम ने पतंग का पता लगाने को कहा, तुरंत आकाश
की तरफ वायु वेग से दौड़ पड़े और उड़ते-उड़ते स्वर्ग पहुँच गए।
बहुत ढूँढने के बाद जब उन्हें पता चला कि श्रीराम की पतंग
इन्द्र पुत्र जयंत की पत्नी के पास है, तब हनुमान जी ने
जयंत की पत्नी के पास पहुँचकर पतंग उन्हें देने के लिए
निवेदन किया। जयंत की पत्नी ने हनुमान जी से पूछा कि क्या
यह पतंग आपकी है? हनुमान जी ने कहा नहीं, यह पतंग मेरी नही
है। तब जयंत की पत्नी ने कहा फिर आप इसे क्यो लेने आये है,
जाइये और जिसकी पतंग है उसे ही भेजिए। जब तक मैं उस अनुपम
पुरुष के दर्शन न कर लूँ मै पतंग नही दूँगी। हनुमान जी ने
सोचा कि ये देवी तो श्रीराम के दर्शन बिना पतंग देंगी नही,
तो क्यों ना श्रीराम से ही निवेदन करूँ कि स्वर्ग आकर इस
देवी को दर्शन दे दे और पतंग ले जाएँ।
मन मे विचार कर हनुमान जी वापस सरयू तट पर आ गये और
श्रीराम को पूरी बात बताकर साथ स्वर्ग चलने को कहा।
श्रीराम ने हनुमान जी से कहा कि हनुमान अभी हम स्वर्ग नही
जा सकते तुम जाकर उस देवी से कहना कि वो हमारी पतंग वापस
कर दे और चित्रकूट में जब हम सीता सहित निवास करेंगे तब
अवश्य ही उस देवी को दर्शन देंगें। हनुमानजी ने स्वर्ग जा
कर जयंत की पत्नी से सारी बात कही, तो उसने पतंग वापस कर
दी। हनुमान जी पतंग को लेकर वापस सरयू तट पर आए और श्रीराम
को वह पतंग सौप दी। इस प्रकार श्रीराम की अनेक बाल लीलाओं
में से एक यह मकर संक्रांति पर पतंग उड़ाने की लीला भी रसिक
भक्तों के मन को मुग्ध कर देती है।
भाव पक्ष:- इस लीला में श्रीराम ईश्वर तत्व है, जयंत की
पत्नी माया है, पतंग जीव है और हनुमानजी महराज सद्गुरु है।
संसार के प्रत्येक जीव रूपी पतंग की डोर तो उस ईश्वर के ही
हाथ मे है, पर जब जीव की महत्वाकांक्षा बढ़ती जाती है और वह
ईश्वर से विमुख होकर अपनी कामनाओं के पीछे भागना प्रारम्भ
करता है, तब वह उड़ता हुआ ईश्वर से बहुत दूर निकल जाता है,
और माया के बंधन में जाकर पूरी तरह जकड़ जाता है, माया के
बंधनों में बँधा हुआ यह जीव जब माया के बंधनों से मुक्त
होने के लिए उस परम पिता परमेश्वर को आर्त भाव से पुकारता
है, तब वे ईश्वर करुणा करके हनुमान जी के समान ही किसी
अपने भक्त को सद्गुरु बनाकर भेजते है और वह सद्गुरु हमे इस
माया के बंधन से मुक्त कराकर वापस उन्ही भगवान के
श्रीचरणों में समर्पित कर देता है।
अतः जीव को चाहिए कि वह अपने इस जीवन रूपी पतंग की डोर को
हमेशा भगवान से जोड़े रखे। जीवन मे चाहे कितनी भी सफलता
मिले पर कभी भगवान से विमुख नही होना चाहिए। अपनी सफलता को
उस भगवान की कृपा मानकर हमेशा उनके श्रीचरणों में अपनी
प्रीति बनाए रखना चाहिए।
१ जनवरी २०२२ |