नई भोर के नए सवेरे का आगमन हो गया है। पीछे छूट
गए हैं वे पल जो सुखद थे, वे पल जो दु:खद थे- भयानक थे। दु:खद पलों को याद करके
आँसू बहाने से क्या लाभ! सुखद पलों के आकाश में भी बहुत देर तक नहीं उड़ा जा सकता।
यथार्थ की कठोर भूमि का स्पर्श करना ही पड़ेगा। इसी में जीवन की सार्थकता है। जीवन
का सत्य भी यही है। नववर्ष के इस पथ की पहचान करनी पड़ेगी। वह पहचान करेगा हमारा
मन। वह मन जो संकल्पवान है। क्या संकल्प करेंगे हम? हमारा मन जो संकल्प करे वह अशुभ
को छोड़ने का और शुभ को जीवन से जोड़ने का होना चाहिए। संकल्प के लिए हमारी
प्राथमिकताएँ निश्चित होनी चाहिए। हम शिव संकल्प ही करें। अशिव या अकल्याणकारी
संकल्प शुद्ध मन की परिधि में नहीं आता। दिनभर की दिनचर्या का अवसान होने पर हम जब
नींद की गोद में जाते हैं, उस समय संकल्प की पड़ताल हज़ारों वर्षों से की गई है।
यजुर्वेद में कहा गया है,
'यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिव संकल्पमस्तु।।'
अर्थात जो दिव्य शक्तिरूप मेरा मन मेरे जागते हुए दूर-दूर फिरता है और मेरे सोते
हुए भी जो उसी तरह दूर-दूर विचरण करता है, वह दूर-दूर पहुँचने वाला ज्योतियों की भी
ज्योति मेरा मन सदा शुभ संकल्प करने वाला हो जाए। मन को ज्योतियों की भी ज्योति
इसीलिए कहा गया है कि प्रत्येक शुभ की ज्योति हमारे मन में ही जाग्रत होती है। यह
शुभ हमारे मन में कितना है, कितना होना चाहिए हमें इसके मूल्यांकन के लिए, अपनी
इच्छा की दृढ़ता के लिए, अग्रगामी होने के लिए, अशुभ कार्यों एवं परिवृत्तियों के
परित्याग के लिए हमें संकल्प करना पड़ेगा। बिना दृढ़ संकल्प के न तो मन की
दुर्बलताओं को छोड़ा जा सकता है और न परिवेक्ष की दुष्टप्रवृत्तियों को।
हम सबसे पहला संकल्प आलस्य त्याग का लें तो बेहतर
होगा क्यों कि आलस्य हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। यह शत्रु हमारी उन्नति के सभी द्वार
बंद कर देता है। कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की कामना हमारे वेदों में की गई है-
'कुर्वन्नेवैह कर्माणि जिजीविशेच्छतं समा:।'
जब हम आलस्य पर विजय प्राप्त कर लेंगे, तभी उन्नति हमारे चरण चूमेगी। अथर्ववेद में
कहा भी है- 'कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहित' अर्थात मेरे दाएँ हाथ में
कर्म पुरुषार्थ है और मेरे बाएँ हाथ में विजय विद्यमान है। सुस्त और निद्राशील
लोगों को तो देवता भी पसंद नहीं करते क्यों कि देवता हमारी आस्था का जाग्रत रूप है।
समय पर काम न करने वाले, व्यर्थ के विवादों में शक्ति और समय का अपव्यय करने वाले,
न संकल्प कर सकते हैं और न अपने किसी वचन का निर्वाह ही कर सकते हैं। इसलिए हमारी
सबसे पहली आवश्यकता है - शक्ति का सदुपयोग। वह तभी संभव है जब हमारे मन में सब तरफ़
से श्रेष्ठ संकल्प ही आएँ।
हम आत्मोत्थान का संकल्प लें।
अपनी कमज़ोरियों से लड़ें। अपने शुभ-गुणों के
विकास का संकल्प लें। संसार के उत्थान की शुरुआत अपने उत्थान से ही होती है। अत: हम
संकल्प करें कि सन्मार्ग को छोड़कर न चलें -'माँ प्रगाम पथो वयं' -(ऋग्वेद)। हम
दुर्गुणों को भले ही सुला दें परंतु अपने सद्गुणों को जगाए रखें। सभी आदमी अच्छे और
सभी आदमी बुरे हो सकते हैं। कुछ लोग रात-दिन अपने दुर्गुणों के प्रेत को जगाने की
मसान पूजा में लगे रहते हैं। इसी काम में अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं और एक बुरे
व्यक्ति के रूप में बदनाम हो जाते हैं। कुछ व्यक्ति शुभ चिंतन की ऊर्जा से अपने
सद्गुणों को जगाए रखते हैं और एक अच्छे आदमी की छवि निर्मित कर लेते हैं।
अच्छा-बुरा सब कुछ हमारे भीतर है। बुराई पलभर में किसी भी पूज्य को निंदनीय व्यक्ति
बना सकती है। अत: हम संकल्प लें कि हमारे मन का शिवरूप सदा जाग्रत रहे।
हम अपने परिवार की उन्नति का संकल्प लें।
पारिवारिक प्रगति एवं उन्नति के लिए अनुचित साधनों
का इस्तेमाल न करें। जिस प्रकार के साधन होंगे, सिद्धि भी उसी प्रकार की होगी। हर
प्रकार की व्यस्तता के बीच संतान के भविष्य की चिंता करें। बगीचे के छोटे-से पौधे
को हम नियमित रूप से सींचते हैं।
पाँच-दस रुपए की वस्तु भी पूरी जाँच-परख करके
ख़रीदते हैं। आने वाले कल के लिए पूरी तैयारी करते हैं। भौतिक सुख के सारे साधन
जुटाते हैं, परंतु संतान के प्रति पूरी तरह लापरवाह बने रहते हैं। संतान हमारा
भविष्य है। उसके वर्तमान पर ध्यान दें, उसका वर्तमान सुधारें अन्यथा हमारा आने वाला
कल दुखद एवं नरकीय होगा।
अपने घर के बुजुर्गों पर विशेष ध्यान देने का संकल्प लें, उन्हें बोझ न समझें। वे
हमारा वर्तमान हैं। हमें जवान बनाने में उन्होंने अपनी जवानी लगा दी अत: उन्हें
भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करें। बेटियों को बेटों के समान महत्व दें। नारी जाति को
किसी भी प्रकार के अत्याचार और शोषण का शिकार न होने दें। नारी वेद की पावन ऋचा है।
इसका सम्मान करें।
दो कदम आगे बढ़कर पारिवारिक रिश्तों की
गर्माहट को बनाए रखने का संकल्प लें।
स्वार्थ की नींव पर रिश्ते ज़िंदा नहीं रहते।
नि:स्वार्थ भाव से सबका ध्यान रखें। रिश्तों का महत्व उनको निभाने में है, ढोने में
नहीं। वाणी की मिठास पूरे परिवार को एक सूत्र में बाँध सकती है, वही कटुता
छिन्न-भिन्न भी कर सकती है अत: सबके साथ मधुर व्यवहार करें। अपने इस व्यवहार को
विस्तार दें और इसकी सुगंध पड़ोस में भी जाने दें। सब कुछ बदला जा सकता है, परंतु
पड़ोसी नहीं बदले जा सकते अत: पड़ोसियों के साथ भी मधुर व्यवहार का संकल्प लें।
मधुर व्यवहार से सामाजिक समरसता का विकास होगा।
सार्वजनिक संस्थानों एवं स्थलों की शुचिता
बनाए रखने का संकल्प लें।
प्राय: देखने में आता है कि जहाँ 'पान थूकना मना
है' लिखा रहता है, वहाँ लोग सबसे अधिक पान थूकते हैं। इस प्रकार की नकारात्मक सोच
से बचें। सार्वजनिक स्थल बदहाली का शिकार है। चाहे ट्रेन हो, चाहे प्लेटफ़ार्म,
चाहे वेटिंग रूम, चाहे सार्वजनिक नल, हम उसे दूषित और विकृत करने में कोई कसर नहीं
छोड़ते। यह शर्मनाक बात है। इससे बचने का संकल्प लें। दूषित मानसिकता से देश की छवि
धूमिल होती है। हम इस मानसिकता को बदलने का संकल्प लें।
हम देश की उन्नति एवं विकास का संकल्प लें।
देश का प्रत्येक वर्ग राष्ट्र के उत्थान में अपनी
भूमिका का सही अर्थ में पालन करें। सार्वजनिक हित को सर्वोपरि मानकर चलें। अथर्ववेद
में कहा है - 'शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर - अर्थात सौ-सौ हाथों से कमा और
हज़ार-हज़ार हाथों से बाँट। व्यापारी या कर्मचारी व्यक्तिगत लाभ के लिए ग़लत मार्ग
न अपनाएँ। नकली खाद, नकली कीटनाशक केवल किसानों की फ़सल ही बर्बाद नहीं कर रहे हैं,
वरन हज़ारों भूखों के मुँह का कौर छीनने का गुनाह भी कर रहे हैं। नकली दवाइयाँ
बनाने वाले आतंकवादियों से भी ज़्यादा जघन्य अपराध कर रहे हैं। पैसा कमाने के लालच
में कुछ शातिर लोग मिलावटी खाद्य पदार्थों से जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर
रहे हैं, इन्हें रोकने का संकल्प लें।
सरकारी कर्मचारी जनसेवक हैं, जनता के मालिक
नहीं अत: जनहित का संकल्प लें।
जनहित को सर्वोच्च समझें, निजी ऐशो-आराम को नहीं।
जनता के दुख-दर्द में भागीदार बनें। जनता को कमज़ोर न बनाएँ और न किसी की विवशता का
लाभ उठाएँ। जनता कमज़ोर होगी तो राष्ट्र कमज़ोर होगा।
प्रदूषित हो रही भारतीय संस्कृति को बचाने
का संकल्प लें।
भाषा और संस्कृति की उपेक्षा राष्ट्र की आत्मा की
उपेक्षा है। जहाँ जनभाषा की उपेक्षा होगी, वहाँ अन्याय होगा। भारतीय संस्कृति से
विमुख पीढ़ी दिग्भ्रमित हो रही है। इस पीढ़ी को उबारने का संकल्प लें। हमने आज यदि
इस पीढ़ी के लिए कुछ नहीं किया तो कल हम ही इसके पतन के लिए उत्तरदायी होंगे, हम ही
गुनहगार होंगे। जो विकृति बढ़ेगी उससे हम भी पीड़ित होंगे। यदि किसी राष्ट्र की नई
पीढ़ी गुमराह हो जाती है तो उस राष्ट्र के सपने दम तोड़ देते हैं। हम समय रहते सचेत
होने का संकल्प लें।
और अंत में संकल्प ले पर्यावरण की रक्षा
का।
यदि हम पर्यावरण को बिगाड़ेंगे तो प्रकृति हमें
कदापि क्षमा नहीं करेगी। हमें प्रकृति के प्रकोप का भाजन बनना पड़ेगा। यह प्रकोप
चाहे अतिवृष्टि हो, चाहे अनावृष्टि, चाहे भूकंप चाहे जल-प्रलय या अन्य विनाशलीला।
विगत जाते-जाते कुपित प्रकृति का तांडव कर गया। प्रकृति के साथ हमारे मधुर संबंध
हो। हम प्रकृति का शोषण न करें। हम सब संकल्पित हों इस प्रार्थना के लिए -
'मधुवाता ऋतायते मधुक्षरंति सिंधव:
माध्वीर्न: संत्वोषधी:। मधु नक्तमुतोषसो
मधुमत्पार्थिव रज:। मधु: द्यौरस्तु न: पिता।'
मधुर वायु हमारे लिए संचरण करें, नदियों में मधुर जल भरा रहे। सभी औषधियाँ मधुरता
से युक्त हों। रात और दिन मधुर हों, पृथ्वी का अणुमात्र भूमिकण मधुरता से युक्त हो।
अंतरिक्ष हमारे लिए माधुर्यपूर्ण हो।
१ जनवरी २००६
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