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हास्य व्यंग्य

 

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामना
- राजा चौरसिया
 


यह सबको पता है कि जब नया साल आता है, ढेरों खुशियाँ लाता है और मन सरसों की तरह फूला नहीं समाता है। स्वागत के नाम पर खाने-पीने से लेकर पीने-खाने तक की भीतर-बाहर टनाटन व्यवस्था रहती है। पानी की तरह बहता हुआ पैसा पानी में ही बह जाता है। अर्थ का व्यर्थ होना बहुत सुहाता है। चारों ओर उमंग के रंग-ही-रंग दिखते हैं, लेकिन हर पुराने साल की विदाई एवं नए साल की अवाई का अवसर मेरे लिए दूध में खटाई के समान है। टेंशन से भेजे और कलेजे के फटने की भरपूर संभावनाएँ रहती हैं। शुभचिंतकों के भेष में अशुभचिंतकों की शुभकामनाएँ जमकर जी जलाती हैं। ये तथाकथित बहुत व्यथित करते हैं।

लोग मानते हैं कि नववर्ष हर्ष एवं उत्कर्ष की कामना का सटीक प्रतीक है, पर भुक्तभोगी के रूप में मुझसे यह तमाशा सहा नहीं जाता है और कहे बिना रहा नहीं जाता है। अमंगलकारी मित्रों की भेंट को मंगलकारी मानने की मेरी क्षमता बहुत पहले स्वाहा हो गई है। हृदय नाम की चीज नहीं है, फिर भी प्रेमीजन हार्दिक शुभकामनाएँ उड़ेलते हैं, जिन्हें मेरे जैसे बहुतेरे झेलते हैं। मुँह में फूल मगर मन में शूल की प्रवृत्ति के प्रति अति एलर्जी होने के कारण मेरी एनर्जी नष्ट होती रहती है, यह स्पष्ट है। जिनकी फूटी आँखों को भी मैं बिल्कुल नहीं सुहाता हूँ, वे भी हँसी-मुसकान के मुखौटे लगाकर जबरन शुभकामनाएँ देकर नाहक सताते रहते हैं।

जो गले मिलकर गले पड़ते हैं, ऐसे दोहरेपन के दृश्य एक ढूँढ़ो हजार मिल जाएँगे। आज के यार दिली खुशी न होने पर भी खुशी का इजहार करने को चौबीस घंटे तैयार रहते हैं। सामने से माला और पीछे से भाला की रीति-नीति से प्रीति होना फैशन के समान है। हाथी के दाँत के चलन के युग में नैतिकता का स्खलन होना स्वाभाविक है। अब सच न रुचता है और न पचता है। केवल औपचारिकता की अधिकता है। नकली हितैषियों के मारे दिन-रैन मेरे नैन चैन को तरस जाते हैं। जड़ों में मठा डालने और उत्कर्ष की आड़ में अपकर्ष में झोंकनेवाले बगुला-छाप शुभाभिलाषी ही बाद में सत्यानाशी निकलते हैं। मोबाइल एवं सोशल मीडिया के माध्यम से भी ऐसे उदाहरणों की बढ़िया भरमार रहती है।

दर्शन के देश में प्रदर्शन की हवा चल रही है। जो खुशी मनाने का रोड शो करते हैं, वे दूसरों की खुशी बरदाश्त नहीं करते हैं। मेरा मन बार-बार कसमसाकर कटाक्ष करता है- बेटा! सोच ले, ये चोंचले अगर नहीं होंगे तो फिर आज के लोकाचार, व्यवहार का बाजार सा गुलजार रूप भला कैसे दिखाई देगा। समय की बयार के अनुसार संगत में ही रंगत है। तू नाहक मत हलकान हो। जस-में-तस का ढंग अपनाने की बात स्वीकार्य माननी चाहिए।

पर्व से मैं ऐसे डरता हूँ, जैसे कुत्ते का काटा पानी से डरता है। देसी चोंच विदेशी दाने का रूप... यह चलन... नकल तथा ढोंग का पर्याय है, हास का उपहास है। सहजता और सहृदयता के दिन लुप्तप्राय हैं या समाप्तप्राय हैं। आत्मीय स्वभाव का अभाव है। यह जानते हुए भी मैं सामंजस्य के बारे में आलस्य दिखाता हूँ। नववर्ष के उपलक्ष्य में शुभकामनाएँ मुझे भयभीत करती रहती हैं, क्योंकि यह आभास मुझे होता रहता है कि जो दिख रहा है, वह झूठ है, भ्रम है। सामने हँसते हैं, पीठ पीछे वही तो डसते हैं। जो मेरे अप्रासंगिक स्वभाव से परिचित हैं, वे कई बार शुभकामनाएँ प्रदान कर मजा लूटते रहते हैं।

एक मजाकिया परिचित ने पिछले साल मुझे चिढ़ाने की गरज से कह दिया था, “माई डियर, कम हियर, हैप्पी न्यू ईयर।” इस नए जमाने की यह धारणा भी कुछ ठीक है कि जब शब्द भर से काम चल जाता है, तब अर्थ की क्या आवश्यकता और पारदर्शी होने का कोई नामलेवा तक नहीं है। यदि मैं भी स्वाँग रचने का मूड बनाऊँगा तो फिर आदर्शवादी कैसे कहलाऊँगा! ऐसा द्वंद्व मुझे मथता रहता है। दूसरों से बैर करने में खैर नहीं है। धार के विपरीत चलने में कुशलता नहीं है।

जिस जमाने में रहना, उसकी निंदा करना मानो जिस पत्तल में खाना, उसमें छेद करना है। दूसरा मन तड़ से तमाचा सा जड़कर बोलता है, “दोमुँहेपन को अपनाओगे तो फिर मुँह दिखाने लायक न रह पाओगे, क्योंकि तुम सत्यवादी हरिश्चंद्र के वंशज कहलाते हो।” किसी निष्कर्ष के बिना प्रत्येक नूतन वर्ष मेरे लिए हर्ष का विषय नहीं होता है। मेरा मानना है कि जब कोई जबरन भोजन नहीं करता है। जबरन पानी भी नहीं पीता है तो फिर इस नए जमाने की यह धारणा भी कुछ ठीक है कि जब शब्द भर से काम चल जाता है, तब अर्थ की क्या आवश्यकता और पारदर्शी होने का कोई नामलेवा तक नहीं है।

यदि मैं भी स्वाँग रचने का मूड बनाऊँगा तो फिर आदर्शवादी कैसे कहलाऊँगा! ऐसा द्वंद्व मुझे मथता रहता है। दूसरों से बैर करने में खैर नहीं है। धार के विपरीत चलने में कुशलता नहीं है। जबरन शुभकामनाएँ भी नहीं प्रदान करनी चाहिए। स्वार्थ की लपेट और चपेट में आने से जब हृदय सूख गया है तो हार्दिक शब्द की भी गुंजाइश कहाँ है? संवेदनशीलता के बिना शिष्टाचार भ्रष्टाचार सा है, जिसमें ईमानदारी न झलकती है और न छलकती है। इस नकल में अकल लगाना नकलची कहलाना है। कई प्रकार के तर्क-वितर्क से जूझने के बाद मैंने यह निश्चय कर लिया कि मैं जिन्हें हृदय से चाहता हूँ, केवल उनके साथ ही शुभकामनाओं का लेन-देन होगा। सच्चाई के नाम पर स्वयं को मसोसने और कोसने की कभी नौबत नहीं आएगी। जिन्हें गुस्सा होना है, वे घर में दो रोटी और ज्यादा खाएँ या भाड़ में जाएँ। पहले औपचारिकता कुछ चल रही थी, लेकिन इस बार से टंच खरी रहेगी।

नए साल का प्रथम दिन आ ही गया। मैं खुद को राइट और टाइट किए सुबह अपने घर में बैठा था। इतने में मुहल्ले के अनचाहे दादा लोग घर में प्रविष्ट होते ही नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ देने लगे तो अपने दृढ निश्चय को भूलकर मैंने भी शुभकामनाओं की झड़ी लगा दी, लेकिन अंदर से मुझ पर श्रीमतीजी के हँसने की बढ़िया आवाज आ रही थी। घायल की गति घायल जाने, इसके बाद यही विचार तूती के सामने नक्कारा प्रतीत होने लगा। नाटकबाजी से राजी होने की संभावनाएँ बढने के साथ यह संदेह डंक मारने लगा कि लोग यह जरूर कहेंगे, 'आखिर ऊँट आया तो पहाड़ के नीचे, नए जमाने का निंदक आज प्रशंसक दिख रहा है। यह भी हंस मार्का बगुला निकला। फिर भी इस सोच से मुझे तसल्ली मिली कि 'कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। स्वार्थ और यथार्थ में परस्पर पटती नहीं है। आईना दिखानेवाले को पथराव का ही सामना करना पड़ता है। सत्यवादी या यथार्थवादी कहकर उसपर परिवार भी वार करता है।

मुझे ऐसा लगा, मानो नया वर्ष भी सचेत कर रहा है, ''जो ऊपर-ऊपर है, वही लोकाचार है, जो दिखता है, मगर होता नहीं है, वह प्यार है, गंध मंद है, मगर रंगों की बहार है। स्वाँग की माँग बढ़ती जा रही है। जब असल का विकल्प सुंदर नकल है तो फिर किंचित भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। खुश न रहकर भी खुशी मनाने की मानसिकता हमारी आधुनिकता का प्रमाण है। प्लास्टिक के फूलों पर इत्र का छिड़काव तसल्ली के लिए गुड़ की जलेबी से कम नहीं है। असली मजा सबके साथ आता है, ऐसा कहने में भला क्या जाता है?

१ जनवरी २०२२

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