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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से स्वाती तिवारी की कहानी- मृगतृष्णा


आसमान छूने की मेरी अभिलाषा ने मेरे पैरों के नीचे से जमीन भी खींच ली, पर तब ... मैं जमीन को देखती ही कहाँ थी। मैं तो ऊपर टँगे आसमान को ताकते हुए अपना लक्ष्य पाना चाहती थी। तब अगर कुछ दिखाई देता था तो वह था केवल दूर-दूर तक फैला नीला आसमान, जहाँ उड़ा तो जा सकता है, पर उसका स्पर्श नहीं किया जा सकता है। ऊँचाइयों का कब स्पर्श हुआ है जब हाथ उठाओं वे और ऊँची उठ जाती हैं--मरीचिका की तरह। एक भ्रम की तरह आसमान जो नीला दिखता है पर कैसा है, कौन जानता है? जमीन कठोर हो, चाहे ऊबड़-खाबड़, पर उसका स्पर्श हमें धरातल देता है, पैरों को खड़े रहने का आधार। पर यह अहसास तब कहाँ था? मैं तो जमीन के इस ठोस स्पर्श को पहचान ही नहीं पाई। अंदर-ही-अंदर आज यह महसूस होता है कि जमीन से सदा जुड़े रहना ही आदमी को जीवन के स्पंदन का सुकून दे सकता है।

आज दस वर्षों बाद उसी शहर में लौटना पड़ रहा है, याद है मुझे वह भी नए साल की शुरुवात का दिन था अरुण नया साल खूब उत्साह और उल्लास के साथ जश्न की तरह मनाते आये थे, पर मैं उकताने लगी थी उस हर नए साल के जश्न से मेरे लिए नया साल कुछ और गढ़ रहा था जीवन का नया अध्याय जो अरुण से नहीं अविनाश से शुरू होने वाला था, बस पुराने कैलेण्डर के अंतिम पन्ने से और जीवन के अरुणमय कैलेण्डर का वह पृष्ठ जो मैं यहाँ से जाते वक्त फाड़कर फेंक गई थी, आज वहीं पन्ना हवा के झोंके से उड़ आए पत्ते की तरह फिर मेरे आंचल में आ पड़ा है। आज फिर दिसंबर की अंतिम शाम है और कल एक सूरज उगते ही नया सबेरा नया साल लायेगा इस उम्मीद के साथ ट्रेन के साथ मन भी स्मृतियों की पटरी पर दौड़ रहा था। उस फाड़ दिए पन्ने पर लिखा जीवन का स्वर्णिम इतिहास फिर स्मृति-पटल पर उभरने लगा। यादों का भी क्या खेल है? चाहो न चाहो, पर वक्त-बेवक्त यादें आ ही जाती हैं और उन्हीं क्षणों की अनुभूतियाँ दिल में जगा ही जाती हैं जिन्हें हम भूलना चाहते हैं। एक कसक बन याद दिला ही जाती है जिन्दगी अपने गुजरे अतीत को। जैसे-जैसे इंदौर पास आ रहा था, मेरी धड़कन अनजाने भय से तेज होती जा रही थी। पता नहीं अरुण लेने आते भी हैं या नहीं? मन दुविधा में है। दस वर्ष लम्बा अंतराल हमारे मध्य से गुजर गया है। पसरे हुए इस समय और समय ही क्यों, जाने क्या-क्या गुजर गया है... जाने कितने नए पुराने साल गुजर गए फिर भी एक विश्वास था मन में अरुण के आने का।

देवास के बाद वही जाना-पहचाना रेल रूट। धडधड़ाती हुई एक ट्रेन मन के अंदर भी दौड़ रही थी-- गांधी हॉल के पास से गुजरते हुए दिल की धड़कन तेज और तेज हो गई। बस आने ही वाला था इंदौर स्टेशन, अरुण... अरुण...अरुण... बस यही एक नाम दिलोदिमाग पर गूँज रहा था। एक पल को लगा दस साल अरुण से अलग रहकर भी, अविनाश का साथ होने के बावजूद, शायद ही ऐसा कोई दिन होगा जब अरुण यादों में न आया हो। मै क्यों नहीं भूल पाई उसे? सच तो यह है कि मेरे रोम-रोम ने अरुण से प्यार किया था। शायद आज भी मैं अरुण से प्यार करती हूँ, अविनाश तो बस...
गाड़ी स्टेशन पर रूकते ही नजर बेचैनी से अरुण को तलाश कर रही थी। दिल जोर-जोर से धड़कने लगा, शायद अरुण न आए! पर तब भी मन का कोई कोना आवश्स्त था कि अरुण जरूर आएगा। यदि न आया तो? शंका ने सिर उठाया। पर अरुण सामने से हाथ हिलाते हुए दिख गया, मैंने भी हाथ हिलाया। लगा जैसे मैं फिर जीत गई। गाड़ी से उतरते ही अरुण ने हाथ मिलाया, हाथ पकड़ते ही तुझे लगा अरुण दस साल के विरह में दोनों हाथ फैलाएगा, मुझे बाँहों में समेट लेगा, और कहेगा-- मैं जानता था तुम जरूर वापस आओगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
‘‘ हलो, नीरजा ! कैसी हो?’’ अरुण ने मुस्काराकर पूछा।
‘‘ ठीक ही हूँ। ’’ छोटा-सा उत्तर दे मैं चुप हो गई थी। अरुण सहज था, पर मैं उसके हलो से आहत हुई थी। बैगर ज्यादा कहे मैं अरुण के साथ आगे बढ़ गई। अटैची गाड़ी की डिक्की में रख अरुण ने कहा, ‘‘ चलें?’’

मैं चुपचाप, अरुण के साथ वाली सीट पर आ बैठी थी। उसका चेहरा शांत था। वह निर्विकार भाव से गाड़ी स्टार्ट कर चल दिया। गाड़ी स्टेशन से बाहर निकालकर वह मुझे बरसों पुराने हमारे फेवरेट कॉफी हाउस में ले गया। मैं सोच रही थी। अरुण वहाँ ले जाकर उन पुराने दिनों को ताजा करना चाहता है। मैंने ध्यान हटाना चाहा इन बातों से, ‘‘कितना बदल गया है कॉफी हाउस !
‘‘हाँ नीरजा, समय के साथ बदलाव आ ही जाते हैं। देखो, तुम भी तो पहले से मोटी हो गई हो।’’
‘‘हाँ, कुछ बदलाव न चाहते हुए भी आ ही जाते हैं। मोटा होना भी उन्हीं अनचाहे बदलावों में शामिल है।’’

एकदम गरिमामय, वातानुकूलित कॉफी हाउस का हॉल, काँच वाली टेबलें, चारों तरफ गमलों में सजे हरे-भरे पौधे.. पहले कहाँ था यह सब यहाँ। अच्छा लगा मुझे तुम्हारे साथ यहाँ आना.. गुजरे हुए लम्हों को फिर से जी लेने का मन होने लगा। तुमने आगे बढ़कर मेरे लिए स्टील की वह सुंदर चेयर खींची और अदब से कहा, ‘‘ बैठो, नीरजा।’’

कॉफी के साथ तुमने कटलेट का भी आर्डर दिया था। कटलेट तुम्हें पसंद नहीं थे, पर तुमने कटलेट स्वाद से खाए। ‘‘तुम्हारा स्वाद भी बदल गया है, अरुण, तुम्हारा काम कैसा चल रहा है आजकल?’’
‘‘एकदम बढ़िया।’’ अरुण मुस्कराया-- ‘‘और तुम्हारा?
‘‘अच्छा चल रहा है। इस बार मुझे मध्यप्रदेश की फोटोग्राफी का कांट्रेक्ट मिला है। बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है। सोचा, इसी बहाने कुछ दिन तुम्हारे साथ रहने को मिल जाएगा।’’
‘‘कब से काम शुरू कर रही हो?’’ अरुण ने बगैर किसी उत्साह के पुछा था।
‘‘शायद कल से।’’ मैंने सहर्ष बताया, ‘‘तुम फ्री हो न, अरुण?’’
‘‘बस, आज किसी तरह कुछ घंटे निकाल पाया हूँ। नहीं निकालता तो तुम समझतीं, मैं अब तक नाराज हूँ तुमसे।’’

मैं अन्दर ही अन्दर एक बार फिर आहत हुई थी- अरूण्र के पास आज भी मेरे लिए समय नहीं है! मैं चाय खत्म कर उठ खड़ी हुई थी चलने के लिए।
गाड़ी मैं बैठते ही अरुण ने पूछा था, ‘‘ तुम्हें कहाँ ड्रॉप करना है?
‘‘घर।’’
‘‘हाँ, हाँ, पर किसके घर? अरुण ने चेहरा मेरी तरफ किया था।
‘‘अपने घर, अरुण... एक बार मैं फिर देखना चाहती हूँ उस घर को।’’
मैं आँखों के नम हो आए कोरों को रोक लेती हूँ झपकने से। झपकेंगे तो बूँदें टपक ही जाएँगी और मैं अरुण के सामने कमजोर पड़ जाऊँगी।

अरुण ने गाड़ी मोड़ दी। अब पलासिया चौराहे से आगे बढ़ गया। थोड़ी ही देर में हम उसी घर के सामने थे। मैं उतरने लगी तो अरुण ने रोका था, ‘‘ बाहर से ही देख लो, नीरजा.. यह घर तो आठ साल पहले ही हम बेच चुके हैं।’’
‘‘क्या?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘तो अब कहाँ रहते हो?
‘‘विजय नगर में।’’
‘‘यह कोई नया नगर है क्या?
‘‘नया नहीं है। अब वहाँ हमारे पास फ्लेट है।’’
‘‘क्यों बेचा, अरुण...मैं नहीं तो तुम तो जुडे रहते इस घर से...मैं मन ही मन सोचने लगी थी। अरुण ने गाडी फिर स्टेशनवाली एबी रोड पर मोड़ ली। मैं चुप बैठी थी। एक बार फिर मैं आहत हुई थी। गाड़ी होटल श्रीमाया के सामने रूकी। अरुण ने रिसेप्शन पर पूछताछ की ओर मेरा सामान रूम में पहुँचवा दिया।

मैं मौन साधे रही। मुझे लगा, अरुण मुझे घर नहीं ले जाना चाहता। वह नहीं चाहता कि उसकी अस्त-व्यस्त जिंदगी मेरे सामने उजागर हो। अपने टूटे दिल और बिखरे घर को वह समेट नहीं पाया होगा अब तक, इसीलिए घर की बजाय होटल में छोड़ रहा है। ‘‘मैं चलता हूँ, नीरजा! तुम अभी यहीं पर हो तो मुलाकात होगी ही। अगर कुछ परेशानी हो तो मुझे इन नंबरों पर कांटेक्ट कर लेना। और हाँ, यहाँ की ‘बेक्ड सब्जी’ स्पेशल है, लंच में जरूर ऑर्डर देना मैं चलता हूँ।’’ वह जल्दी में था। मेरा जवाब सुने बगैर ही चला गया। अगर अरुण की जगह अविनाश ऐसा करता तो मैं तूफान खड़ा कर देती, पर अरुण के इस बर्ताव पर उदासी ने मुझे घेर लिया था। मैं रूम लॉक करके लेटी तो झपकी आ गई। दो घंटे बाद आँख खुली तो उठने का मन नहीं हुआ, एक मनहूस बोरियत पसरी थी कमरे में। मैं सोचकर आई थी कि अरुण को पछतावा होगा मुझसे अलग होने का। वह एक बार फिर आग्रह करेगा-- निरजा, अब घर लौट आओ।’

पर ऐसा कुछ नहीं लगा अरुण के व्यवहार से। रिश्तों का अटूट बंधन न सही, पर कोई तो धागा जुड़ा ही होगा यादों का। पर एक औपचारिक व्यवहार-कुशलता के अलावा अरुण में कुछ भी दिखाई नहीं दिया था। अब क्या करूँ, यही सोचते हुए उठी, चाय का ऑर्डर दिया और नहाने चली गई। नहाकर निकली तो थोड़ा फ्रेश लग रहा था। मैंने हल्के आसमानी रंग की शिफॉन वाली साड़ी पहनी, तैयार हुई और कैमरा लेकर होटल से बाहर आ गई थी। रिक्शा ले राजबाड़े तक जाने का मूड बनाया। ‘मिनी मुंबई’! कुछ लोग कहते हैं-इंदौर मुंबई का बच्चा है, पर मुंबई जैसा यहाँ कुछ भी तो नहीं है। यह शहर एकदम अलग ही सहज-सरल। मल्टीस्टोरी घर जरूर बनते जा रहे हैं, पर लोग अब भी मालवा की सांस्कृतिक खुशबू समेटे हैं, दुकानों पर चाय-काफी ऑफर होती है, रिक्शे वाले बहनजी या मैडम बुलाते हैं। पता पूछने पर लोग साथ जाकर घर बता आते हैं। और कहीं है इतना अपनापन! इंदौर की यही खास बात मुझे अच्छी लगती है।

मैंने हल्का-सा सरदर्द महसूस किया, पर्स में देखा तो एनासिन मिल गई। पानी का पाउच दुकान से ले एनासिन ले ली। राजबाड़े के जीर्णोद्धार के बाद, अब राजबाड़ा नए स्वरूप में देखा तो कई एँगल से फोटो ले डाले--एकदम अलग ही ढंग के फोटोग्राफ लिए इस बार। सामने वाले गार्डन में माता अहिल्या के भी फोटो खींचे। अकेले घूमने में मजा नहीं आ रहा था। कितना घूमती थी मैं अरुण के साथ राजबाड़े और सराफे में, रबड़ी, गराडू, देशी घी की जलेबी.... कितना स्वाद है यहाँ के खाने में ! राजबाड़े के पीछे चाट-पकौड़ी-समौसा सब कितना पसंद था मुझे, पर अरुण को यह सब कभी-कभी ही अच्छा लगता था। वह रोज आता था मेरे साथ। पहले एक-एक दोना लेते, दोनों मिलकर टेस्ट करते, फिर एक बार लेते...शिकंजी की ठंडक मन में उतर आती.. अरुण तो शाम होते ही पूछते थे, ‘‘ आज चटोरी कहाँ ले जाएगी?

यादों के झुरमुट में भटकते हुए मैं उसी चाट हाउस के सामने पहुँच गई थी। पर अकेले खाने का मन नहीं हुआ, कुछ देर रुककर खाती हुई भीड़ के फोटो लिए और पलटने लगी तो अरुण की आवाज सुनाई दी--
‘‘ऐ, नीरजा रुको!’’
पलटी तो अरुण मेरी ही तरफ आ रहा था मैं रुक गई। ‘‘बगैर कुछ खाए जा रही हो? जानती हो तुम्हारे जाने के बाद कई दिनों तक दुकानवाला पूछता था- आपके साथ वो, चटोरी मैडम नहीं आतीं अब...’’
मैं मुस्कुरा। हल्की-सी चपत लगा देती- ये मजाक कर रहे हो क्या? पर ऐसा कुछ नहीं कर पाई। अरुण मेरे हाथ में पेटिस चटनी का दोना पकड़ा एक छोटे-से बच्चे को लेने आगे बढ़ गया। एक खनकती-सी आवाज सुनाई दी थी, ‘‘ अरुण, देखो बंटी कहाँ है !’’

मैंने आवाज की तरफ देखा-दुबली, गौरवर्णी सुन्दर-सी स्त्री अरुण से बच्चा ले रही थी। वे तीनों मेरे पास आ गए थे। अरुण ने परिचय करवाया नीरजा, ये अंजली है माई वाइफ और ये हमारा बंटी। और अंजली, नीरजा को तो तुम जानती ही हो। ’’
‘‘हलो!
‘‘हाय!’’
‘अंजली...अंजली माई वाइफ...। मेरे कानों में सीसा-सा उड़ेलते हुए शब्द थे। अरुण ने शादी कर ली। उसका बेटा भी है। सुबह दो घंटे साथ रहा, पर बताया तक नहीं। मैं भी बच्चे को गोद में ले प्यार करने लगी, बेटा सचमुच बहुत प्यारा है एकदम अरुण की तरह। मैंने पर्स में हाथ डाला सौ-सौ और पाँच-पाँच सौ के नोट थे। मैंने पाँच सौ का एक नोट बच्चे को शगुन कहकर पकड़ा दिया था।
पैरों में अब मानों ताकत नहीं थी। मैं फिर मिलने का वादा कर ऑटो से होटल लौट आई। सारे रास्ते ‘अंजली, माई वाइफ’ शब्द मेरा पीछा करते रहे। मैं थक गई थी खुद से लड़ते-लड़ते। मैं अब भी अरुण से बँधी हूँ मन से और अरुण....एक बार भी एक्स वाइफ के रूप में भी नहीं मिलता, न ही किसी से मिलवाता है।

‘‘कल मिलती हूँ।’’ कहकर मैं लौट आई थी होटल में। लंच मैंने लिया ही नहीं था और डिनर लेने का अब मन नहीं था। कमरे में लौटकर मैं निढाल हो पलंग पर पड़ी रही। खूब रोई थी। इतना तो शायद जब अरुण से अलग हुई तब भी नहीं रोई थी। कमरे में अंधेरा पसरा था, पर मन लाइट जलाना नहीं चाहता था। शायद बिजली के उजाले में खुद को खुद ही फेस नहीं कर पाने के डर से अंधेरे में छिपकर बचाना चाहती थी। पर क्यों?

अंधेरे में जो मानक गढ़े और जिनको आधार बनाकर मैंने अपने भविष्य को गढ़ा था, उससे यदि मैं खुश और सुखी रह सकती होती तो आज रोती ही क्यों कितना सरल-सहज जीवन था जो अरुण के आगोश में सुरक्षित-सा था, पर महत्वाकांक्षा उछालें मार रही थी। गृहस्थी के दायित्व यों तो कुछ थे ही नहीं, पर तब भी मैं उस बंधन से मुक्ति माँग बैठी थी पर समय ने मेरे सारे मुगालते दूर कर दिए। आज अरुण, अंजली और उनके बच्चे को जिन्दगी जीते हुए देखा, तभी से लगा, मैं हार गई। अपनी सारी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के बाद भी हार महसूस कर रही हूँ। लग रहा है, आज उस मोड़ पर खड़ी हूँ जहाँ जीवन के रास्ते सरल हैं, पर जी पाना अब दूभर है।

मैं केवल स्टिल फोटोग्राफी में ही कैरियर बनाती रही। नाम, यश, पैसा, क्रिएशन्स, रचना, सृजन कितने शब्द थे मेरी महत्वाकांक्षा की डिक्शनरी में, पर असल तस्वीर तो अंजली ने बनाई है अरुण की-बंटी के रूप में। रचना भी वही, सृजन भी ओर क्रिएशन भी। स्त्री के स्त्रीत्व का अनमोल क्रिएशन मैं नहीं कर पाई। शायद अविनाश न आया होता जीवन में तो महत्वाकांक्षा यूं प्रबल नहीं होती ‘अरुण‘ जैसा सूर्य था मेरे पास। अब कितना मुश्किल है ऐसे किसी सूर्य को खोज पाना। अरुण सूर्य था। हाँ, पर अविनाश एक ऐसा अकर्मण्य अंधकार ले आया था जिसने नई इच्छाशक्ति जगाई थी। पर आज आभास हुआ कि वे मृत्युमुखी इच्छाशक्तियाँ थीं। उसने मेरे कैरियर में सुविधा का सागर जुटाया, पर मेरा भविष्य डुबो दिया। नहीं भागी होती उस दिशा में तो बंटी मेरा होता।

पर तब एक ही जिद थी- नहीं चाहिए अभी बच्चा। मैं एबॉर्शन पर अड़ी रही थी। अरुण रो दिया था मेरे फैसले पर। ऑटोमेटिक कैमरे से तुरन्त बंटी की तस्वीर बाहर निकाली। न चाहते हुए भी उस पर प्यार आ रहा था। उसे घंटों प्यार से देखती रही। अंदर ही अंदर एक अनजानी आवाज सुनाई देती रही, मम्मी... मम्मी... मम्मी‘ और अकेले ही उस फोटो से बात करने लगी थी मैं- ‘ बंटी तुमने आज जैसे मेरा वजूद ही बदल डाला...’

माँ बनना शायद स्त्री की आत्मा में दबी सबसे बड़ी महत्वाकांक्ष होती है, जो पता नहीं कब सिर उठा लेती है। अरुण चाहता था, मैं माँ बनू, पर मैं नहीं चाहती थी। अब मैं चाहती हूँ, पर अविनाश के साथ शादी ही नहीं की तो वह बच्चे के लिये क्यों तैयार होगा! मैं उदासी से बचना चाहती थी। रूम से निकल होटल के टैरेस पर आ गई। आसमान एकदम साफ था, लाखों तारे टिमटिमा रहे थे। मैं ढूँढने लगी अपनी कोख से तोड़े उस अंकुर को जो पता नहीं कौन-सा तारा बना होगा। अचानक धीरे से किसी ने कंधे पर हाथ रखा.. पलटी तो सामने अंजली थी और अरुण बच्चे को संभाल रहा था।
‘‘नीरजा, हम तुम्हें डिनर के लिए लेने आए हैं फटाफट तैयार हो जाओ।’’ यह अरुण का स्वर था।
‘‘मुझे... नहीं मैं यहीं ठीक हूँ।’’
‘‘आप चलिए न। घर आपको याद करता है। प्लीज नीरजा जी! एक बार हमारे लिए चलिए। ’’
‘‘अंजली, मैं कल लंच तुम्हारे यहाँ लूँगी, आज मुझे माफ कर दो... आज मन बहुत उदास है।’’ मैंने अंजली के कंधे को हल्का-सा थपथपाया था-- ‘‘आओ नीचे चलते हैं। यहीं कुछ साथ में लेते हैं। अरुण, तुमने बताया था न यहाँ ‘बेक्ड मशरूम’ बहुत अच्छा बनता है, चलो सब मिलकर टेस्ट करते हैं।’’
वो मान गए। मुझे लगा उन्हें तो मानना ही था। दोनों सरल और सहज हैं कुंठाएँ नहीं पालते। अड़ियल स्वभाव तो मेरा था, इतने मान-सम्मान से लेने आए और मैं नहीं गई। अरुण मुझे जानता है, मैं हूँ ही ऐसी, इसीलिए उसने बार-बार आग्रह नहीं किया। संबंधों में तनाव भरे रहना आदत है मेरी। जानती हूँ कि कहीं न कहीं गलती मेरी अपनी ही होती है। तभी तो आज यहाँ इस मुकाम पर एकदम अकेली हो गई हूँ। खुद को सुधारकर दूसरों के हिसाब से व्यवहार करके दाम्पत्य में सुख खोजा जा सकता था। प्यार और काम-भावनाएँ सदा एक-सी नहीं रहती, जीवन पर्यन्त वे घटती-बढ़ती रहती हैं... सही तालमेल करना आना चाहिए, पर वही मुझे नहीं आता।

कमरे में लौट रही थी। रिसेप्शन पर चाबी लेने पहुँची तो पता चला, अविनाश का चार बार फोन आ चुका है। ‘क्या हुआ अविनाश को? फोन लगाया और रूम में ट्रांसफर करवा लिया।
‘‘कैसी हो, नीरजा? तुम्हें वो मिले या नहीं तुम्हारे अरुणजी? अविनाश आदत के अनुसार मजाक करने से बाज नहीं आता।

अविनाश से बात की तो अच्छा लगा, मन पर से थोड़ा-सा बोझ कम हुआ-सा लगा। मैं फिर कमरे में लौट आई। दिनभर के फोटोग्राफ छाँटकर अलग किए। सुबह के लिए कुछ प्लान बनाए। आधा ग्लास रम का बनाया, खुद ही चियर्स कर लेट गई। यह आधा पेग लेने की आदत मुझे अविनाश ने डाली। उसे लत है, उसके साथ मुझे भी लग गई। अरुण को देर रात तक काम करने की आदत है, पर वह अच्छी-सी अदरक-इलायची वाली चाय लेता है।

बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचती रही--‘सत्य क्या है? जीवन का ‘सत्य’? लगा, सत्य के लिए भटकना नहीं पड़ता। मैं भटक रही थी। आज सत्य को पा लिया था। अपने भीतर के सत्य को अपने भीतर से ही पाना होता है। वह ढूँढने, माँगने या शब्दों से बयाँ नहीं होता, अनुभव से उतरता है। आज एक सत्य को मैंने बंटी को देखने के बाद खुद में पाया और पहचाना... और सचमुच कड़वा होता है सत्य।
फोटोग्राफी में अविनाश की मदद और गाइडेंस से तब मेरा काम चल पड़ा था--एक लड़की और इतनी अच्छी फोटोग्राफी! लोग अक्सर यह जुमला बोलते थे और मैं गर्व से तन जाती थी। प्रशंसा अगर केटेलिस्ट है तो अति प्रशंसा स्लो प्वाइजन। मेरी बातों, मेरे काम, मेरी कला में अहंकार झलकने लगा था। वह अहं ही तो था जो मेरे और अरुण के मध्य पसर गया था, वरना आज अंजली नहीं, मैं.. हाँ मैं नीरजा ही बंटी के साथ होती।

क्यों हो गया यह सब... हमारे तो संबंध भी शुरूआत में अच्छे थे। हमने तो प्रेम-विवाह किया था। आज समझ में आ रहा है। सेक्स और आपसी समझ जहाँ एक-दूसरे के पूरक हैं, वहीं एक-दूसरे पर पूरी तरह निर्भर भी हैं, पर हम प्रेम-विवाह के बावजूद बिना एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र किए, बिना उन्हें समझे, एक-दूसरे से धीरे-धीरे अजनबी होते गए। तो क्या विवाह के शुरू के महीनों में जो कुछ था वह महज यौनाकर्षण ही था.. केवल शारीरिक आकर्षण मात्र? शायद हाँ, वह स्वाभाविक था, पर वहीं मैं चूक गई। यही तो वह समय था जब हमें एक-दूसरे की रुचियों से, शौकों, पसंद-नापसंद से जुड़ना चाहिए था। तभी पनपता वह प्यार जो मैंने अंजली की आँखों में लबालब देख लिया था, वहीं प्यार जो अरुण मुझे करना चाहता था, पर वह अब पूरी तरह अंजली को अर्पित है। हाँ, अंततः यही प्यार है, जिसके लिए दुनिया भागती है और जिसे मैं ठुकराकर चली गई थी। यही तो वह सिलसिल है जो आगे चलकर एक सुखी सफल लम्बे वैवाहिक जीवन की नींव बनता है। मैंने नींव रखी ही नहीं और अब ध्वस्त अवशेषों पर आँसू बहा रही हूँ। आखिर कोई कब तक सहन करता! और यही हुआ अरुण के साथ। एक दिन मैं अविनाश के आकर्षण में जमीन से ऊपर उठ गई और बिफर पड़ी थी अरुण पर। पर कहाँ जानती थी, पैरों के नीच अब जमीन आएगी ही नहीं।

होटल के कमरे की खिड़की सड़क की तरफ खुलती है। परदा हटाया और सड़क की तरफ देखने लगी। सुबह होते ही उस पर निरंतर ऑटो, टेंपों, बस, साइकिलों और पैदल यात्रियों का आना-जाना चालू हो गया था। बस, यही एक भीड़ इंदौर को मुंबई का बेटा बना देती है। स्कूटर पर जाता एक जोड़ा अच्छा लग रहा है। लड़की मस्टर्ड कलर का सूट पहने है और चेहरा स्कार्फ से ढँका हुआ है। वह लिपटी हुई-सी बैठी है स्कूटर चालक से। उसे लगा, आजकल प्रदूषण से बचाव के नाम पर मुँह पर आतंकवादी स्टाइल में कपड़ा लपेटने के कई फायदे हैं-- कोई पहचान भी न पाए कि कौन किसके साथ घूम रहा है... पर यह उम्र ही ऐसी होती है। वह भी तो स्कूटर पर अरुण के पीछे ही बैठती थी।

कितनी बातें थी जो यों लांग ड्राइव पर जाते हुए ही होती थीं। और तब अविनाश से बात किए दो-तीन दिन गुजर जाते हैं। मैं महसूस कर रही हूँ कि दिलो-दिमाग में फिर हताशा रेंगने लगी है। लगा, एकाएक बहुत भावुक हो आई हूँ। क्या पाया मैंने? क्या खो दिया? यश, नाम, रुपया, स्वतंत्रता जैसे बड़े शब्द हैं, जो मैं प्राप्ति के पलड़े में रख सकती हूँ, पर दूसरे पलड़े में एक सुंदर घर, बाँहों में समेटता पति, मुस्कराता बंटी आकर बैठ जाते हैं तो वह पलड़ा भारी होता चला है-- इतना भारी कि जमीन छूने लगता है। दूसरे पलड़े के हवा में लटकने का अहसास एक त्रासदी की तरह कड़वा लगा। यह अहसास इंदौर लौटने के बाद ही ज्यादा कचोट रहा है। इससे तो ना ही आती तो अच्छा था।
अविनाश ने तो कहा भी था, ‘‘ क्या करोगी जाकर?
‘‘अरुण से मिलने का दिल कर रहा है।’’
‘‘जो अतीत का हिस्सा हो जाते हैं, उनसे मिलना तकलीफ देता है, नीरजा! मेरे ख्याल से न जाओं तो अच्छा है। ’’
‘‘तुम अरुण से जैलेस हो रहे हो, अविनाश?’’
‘‘तुम पागल हो गई हो? अरुण मुझसे ईर्ष्या कर सकता है, मैं क्यों करूँगा? तुम उसे छोड़ मेरे साथ आई हो’’
‘‘मैं तो मजाक कर रही हूँ, अविनाश।’’

मैं इन विचारों से उबरना चाहती हूँ चाय और नाश्ता रेस्तरां में जाकर लेती हूँ, ताकि ध्यान बँटे। ‘इडली-सांभर’ मँगवाती हूँ। नाश्ता कर चाय लेती हूँ तो याद आता है--यहाँ चाय बेहद मीठी बनती है। ‘मालवा की चाय’ चाय नहीं, चाय का काढ़ा होती है, पर स्वाद में अच्छी लगी। धीरे-धीरे चुस्कियाँ लेने लगी। चाय समाप्त हुई ते नजर सामने बैठी महिला पर गई। नजरें मिलते हम एक-दूसरे को पहचान गए।
‘‘नीरजा?’’ वह महिला उठकर आ गई।
‘‘शुभा...शुभा शर्मा?’’
शर्मा नहीं... शुभा जोशी हूँ। ’’
‘‘अच्छा?’’
‘‘कब आई इंदौर?
‘‘बस, कल ही आई हूँ। कुछ फोटोग्राफ लेने थे राजबाड़ा, मांडू, महेश्वर वगैरह के।’’
‘‘अरे वाह...’’
‘‘तुम कैसी हो, शुभा?’’
‘‘अच्छी ही हूँ, शाम को आओ घर। खाना हमारे साथ लेना... ये मेरा कार्ड।’’
‘‘नहीं शुभा...’’
‘‘क्या नहीं? अरुण अंजली से मिली?
‘‘हाँ’’
‘‘उन्हीं भी बुला लेते हैं शाम को।’’
वह चली गई और मैं रूम में लौट आई।

रूम में फिर वही अकेलापन था। तन्हाई जीवन को उलट-पलटकर देखने का अवसर देती है और फिर अपनी ही महत्वाकांक्षाओं, अपनी भावनाओं की समीक्षा करने लगी। लगा, वैवाहिक संबंध कितने शाश्वत होते हैं, कितने पवित्र और सात्त्विक। अविनाश के उत्तेजनापूर्ण संबंधों में स्थायित्व नहीं हैं, वे क्षणिक आवेश ही थे। अरुण को अंजली के साथ संतुष्ट जीवन जीते देख लगा, अरुण को दोबारा कभी भी पा लेने का दंभ आज टुकड़े-टुकड़े हो गया है। छोड़कर जाना बचपना ही तो था! अब आज मैं स्वतंत्र हूँ, परिपक्व भी और गढ़ सकती हूँ अपना जीवन, पर संतुष्ट परिवार का सुख दोबारा चाहकर भी अब नहीं गढ़ा जाएगा।

मैं-नीरजा-आईने के सामने खड़ी हो गई, माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आई थीं। रंग अब कलसाने लगा है। आँखों के नीचे उम्र झुर्रिया बनकर उतरने लगी है तो क्या मेरा समय टल गया?

कमरे में ही सारा दिन अपनी ही नकारात्मक समीक्षा करते हुए निराश हो चली। कमरे में टहलने के बाद स्नान किया। कपड़े बदले, सँवारकर देखा तो लगा, अब भी अच्छी लगती हूँ। बाहर अंधेरा होने लगा। टैक्सी बुलवाई और पचमढ़ी के लिए चल पड़ी। अरुण को सूचना देना मुझे जरूरी नहीं लगा।

१ जनवरी २०२२

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