समकालीन कहानियों में संयुक्त
राज्य अमेरिका से
अनिल प्रभा कुमार की कहानी
बस पाँच
मिनट
"वह नाच रही थी। देह जैसे तूलिका। मंच के कैनवास पर कलाकृति उकेरती हुई।
देह-यष्टि की भंगिमाएँ, हाथों की मुद्राएँ और आँखों के भाव, सब रंग भर रहे थे
कल्पना के इस सुंदर चित्र में। थिरकती जा रही थी वह। पाँव जैसे रंगों के कटोरों
को हल्का सा टोहका लगाकर वातावरण में जादुई-सा इंद्र-धनुष रचते। दर्शकों को वह
देख नहीं पाती। उन पर अँधेरा और उस पर छेड़खानी करता उजाले का गोला। वह
आत्मलीन-सी नाचती रही। देह-आत्मा सब एक। दर्शक भी बँधे थे। मंत्र-बिद्ध या
नृत्य-बिद्ध। शायद सौंदर्य-बिद्ध। समय कहीं बहक गया। होश आया तब, जब दोनों हाथ
जोड़ वह अभिवादन के लिए झुकी। तालियों की गड़गड़ाहट। वह भीगती रही उस पल में जो
उसका था। पर्दा गिर गया। तालियाँ बजती रहीं। वह धीरे से ग्रीन-रूम की ओर बढ़ी।
कोने में वह खड़ा था। टकटकी लगाकर उसे देखता, मुस्कुराता हुआ। वह भी मुस्कुरा
दी।...
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