अक्तूबर महीना आते ही मौसम
सुहाना होने लगता है और सावन के त्यौहारों के समाप्त होते
ही दशहरा-दीवाली की धूम आरंभ हो जाती है। दशहरे के बाद बीस दिन दीवाली
के स्वागत में कैसे बीत जाते हैं, शायद ही किसी को पता
चलता हो! साफ-सफाई, घर में रंग-रोगन, मिठाइयाँ बनाने की
होड़, कपड़े या फिर पटाखों की ख़रीदारी हो, सब कुछ दीवली
के स्वागत में हर साल होता आया है और ख़ास बात यह है कि
किसी भी साल इसमें कोई उत्साह की कमी नहीं होती, रौनक
बढ़ती ही जाती है।
दीपावली का अगला दिन,
कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को गोवर्धन पूजन, गौ-पूजन
के साथ-साथ अन्नकूट पर्व भी मनाया जाता है। इस दिन
प्रात: ही नहा धोकर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर अपने इष्टों
का ध्यान करते हैं। इसके पश्चात अपने घर या फिर देव
स्थान के मुख्य द्वार के सामने गोबर से गोवर्धन बनाना
शुरू किया जाता है। इसे छोटे पेड़, वृक्ष की शाखाएँ एवं
पुष्प से सजाया जाता है। पूजन करते समय यह श्लोक कहा
जाता है, "गोवर्धन धराधार गोकुल त्राणकारक। विष्णुबाहु
कृतोच्छाय गवां कोटिप्रदो भव।।"
यह गोवर्धन पूजा का दिन
(प्रतिपदा) साल में साढे तीन शुभ मुहूर्तों में से एक
माना जाता है। किसी भी काम की शुभ शुरुआत इस दिन की जा
सकती है। आर्थिक दृष्टि से व्यापारी इस दिन से साल की नई
शुरुआत मानते हैं। लक्ष्मी प्राप्ती की कामना करते हुए
हिसाब-किताबों की हल्दी, कुमकुम, फूल अर्पण कर पूजा की
जाती है। इस शुभ दिन से नई कापियों में हिसाब लिखना शुरू
किया जाता है।
गोवर्धन पर्वत की पूजा के बारे में एक कहानी कही जाती
है।
भगवान कृष्ण अपने सखा
और गोप-ग्वालों के साथ गाएँ चराते हुए गोवर्धन पर्वत पर
पहुँचे तो देखा कि वहाँ गोपियाँ ५६ प्रकार के भोजन रखकर
बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही हैं। श्रीकृष्ण
के पूछने पर उन्होंने बताया कि आज वृत्रासुर को मारने
वाले तथा मेघों व देवों के स्वामी इंद्र का पूजन होता
है। इसे इंद्रोज यज्ञ कहते हैं। इससे प्रसन्न हो कर ब्रज
में वर्षा होती है, अन्न पैदा होता है।
श्रीकृष्ण ने कहा कि
इंद्र में क्या शक्ति है, उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा
गोवर्धन पर्वत है। इसके कारण वर्षा होती है। अत: हमें
इंद्र से भी बलवान गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। काफी
विवाद के बाद श्रीकृष्ण की यह बात मानी गई तथा ब्रज में
इंद्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा की तैयारियाँ शुरू हो
गई। सभी गोप-ग्वाल अपने अपने घरों से पकवान लाकर गोवर्धन
की तराई में श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि से पूजन करने
लगे। श्रीकृष्ण द्वारा सभी पकवान चखने पर ब्रजवासी खुद
को धन्य समझने लगे। नारद मुनि भी यहाँ इंद्रोज यज्ञ
देखने पहुँच गए थे। इंद्रोज बंद कर के बलवान गोवर्धन की
पूजा ब्रजवासी कर रहे हैं यह बात इंद्र तक नारद मुनि
द्वारा पहुँच गई और इंद्र को नारद मुनि ने यह कहकर और
डरा भी दिया कि उनके राज्य पर आक्रमण करके इंद्रासन पर
भी अधिकार शायद श्रीकृष्ण कर लें।
इंद्र गुस्से में लाल
पीले होने लगे। उन्होंने मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल
में जा कर प्रलय पैदा कर दें। ब्रजभूमि में मूसलाधार
बरसात होने लगी। बाल-ग्वाल भयभीत हो उठे। श्रीकृष्ण की
शरण में पहुँचते ही उन्होंने सभी को गोवर्धन पर्वत की
शरण में चलने को कहा। वही सब की रक्षा करेंगे। जब सब
गोवर्धन पर्वत की तराई मे पहुँचे तो श्रीकृष्ण ने
गोवर्धन को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठाकर छाता सा तान
दिया और सभी की मूसलाधार हो रही वृष्टि से बचाया।
सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक बूँद भी जल
नहीं गिरा। यह चमत्कार देखकर इंद्रदेव को अपनी की हुई
गलती पर पश्चाताप हुआ और वे श्रीकृष्ण से क्षमायाचना
करने लगे। सात दिन बाद श्रीकृष्ण
ने गोवर्धन पर्वत नीचे रखा और ब्रजवासियों को प्रतिवर्ष
गोवर्धन पूजा और अन्नकूट का पर्व मनाने को कहा। तभी से
यह पर्व के रुप में प्रचलित है।
गोवर्धन पूजा के साथ साथ गौ-पूजन की भी तैयारी आरम्भ हो
जाती है। सुबह होते होते ही गायों को नहलाना-धुलाना,
उन्हें विभिन्न अलंकारों से सजाना। कभी-कभी उनके मेहंदी
भी लगा दी जाती है। उनका श्रृंगार होने के बाद उनकी
गंध,अक्षत और फूल अर्पण कर पूजन किया जाता है। उनके पैर
धो कर उनकी प्रदक्षिणा ली जाती है। "लक्ष्मीर्या लोक
पालानाम् धेनुस्र्पेण संस्थिता। घृतं वहति यज्ञार्थे मम
पापं व्यपोहतु।" कह कर नैवेद्य अर्पित करते हैं। नैवेद्य
में मिष्ठान्न का अहम स्थान होता है जो गायों को खिलाया
जाता है। सायंकाल को इन पूजित गायों से पूजित गोवर्धन
पर्वत का मर्दन कराना अच्छा माना जाता है। इस गोबर से घर
आंगन को लीपा जाना शुभ होता है।
गाय मानव को अपना सर्वस्व देती है, उसका दूध, गोबर,
गोमूत्र उपयुक्त है। इसे खेतों में जोता भी जाता है। ऐसी
हमारे लिए महत्वपूर्ण गाय का उपकार मानते हुए उसके प्रति
कृतज्ञ रहना चाहिए इस भावना से गो पूजन किया जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गाय के महत्व को बताया और समझाया इस
कारण श्रीकृष्ण गोवर्धन और गायों के पूजन का इस पर्व में
विशेष महत्व है।
अन्नकूट महोत्सव
भगवान विष्णु अथवा उनके
अवतार और अपने इष्ट देवता का इस दिन विभिन्न प्रकार के
पकवान बनाकर, रंगोली मांडकर, बहुढंगी सजाकर, पके हुए
चावलों को पर्वताकार अर्पित कर के पूजन किया जाता हैं।
इसे छप्पन भोग की संज्ञा भी दी गई हैं। तरह-तरह के चावल
के साथ गेहूँ के पकवान, विभिन्न सब्ज़ियाँ रखी जाती है।
दूध एवं मावे की मिठाइयाँ, जलेबी, लड्डू आदि तैयार किए
जाते हैं। साथ ही विभिन्न फलों को भोग में सम्मिलित किया
जाता है। फिर इष्ट मित्र व स्वजनों, अतिथियों के साथ इस
महाप्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है।
पौराणिक दृष्टि से
चूँकि कृष्ण ने इंद्र का मान-मर्दन किया था अत: इंद्र के
स्थान पर कृष्ण के पूजन का विशेष महत्व है। कहते हैं कि
इस पर्व का अनुष्ठान करने से भोग और मोक्ष की प्राप्ति
होती है। यह दिन पवित्र होने के बावजूद इस दिन
चंद्रदर्शन वर्ज्य माना गया है। लोगों का विश्वास है कि
इस दिन शाम को मार्गपाली और राजा बलि की पूजा करने तथा
मार्गपाली के बंदनवार के नीचे होकर निकलने से सभी प्रकार
की सुख शांति रहती है तथा कई रोग दूर हो जाते हैं।
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