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दृष्टिकोण

तुलसी कथा रघुनाथ की
-रमेश गौतम

तुलसीदास की रामकथा समूची मानवता का विश्वकोश है। उसमें केवल भक्ति, धर्म और अध्यात्म की पारलौकिक पवित्रता ही नहीं बल्कि जनापेक्षी यथार्थ के धरातल पर व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की समस्याएँ अनुस्यूत हो सामयिक विचार-चिंतन की झलक देकर त्रिकालद्रष्टा महाकवि की चिरंतन प्रतिभा को अपने समय की खिड़की से देखने को मजबूर करती हैं। दुनिया का इतिहास विरुद्ध युग्मों का 'खेल' रहा है और दुनिया के हर कोने का रचनाकार/चिंतन सामाजिक व्यवहार और आचरण की इस विरुद्धाश्रयता में धँसकर ऐसा मूल्य-विचार देने की कोशिश करता रहा है जिससे मनुष्य और उसके द्वारा बनाया गया समाज आदर्श बने तथा मानव गरिमा की उच्चतम श्रेष्ठता का निरंतर विकास होता रहे। इस प्रकार मानव-मूल्यों एवं वैचारिक-नैतिक आदर्शों का यह सृजन और संरक्षण कार्य विश्व-मंगल के लिए लगातार चलता रहता है और चलते भी रहना चाहिए, क्यों कि मनुष्य और उसके बनाए समाज में संघर्ष की ये संकटापन्न स्थितियाँ बनती-बिगड़ती रहती हैं। इसलिए सांसारिक दु:ख-कष्टों और विघ्न-बाधाओं से मनुष्य समाज को छुटकारा दिलानेवाला चिंतन ही उसका सबसे बड़ा मंगल है, 'दैहिक, दैविक, भौतिक' तापों के शमन का प्रयास ही व्यष्टि और समष्टि की मुक्ति का उत्तम विचार है, जिसकी खोज लोक-चिंतन की ठोस ज़मीन पर खड़े होकर तुलसीदास ने रामकथा में की -
'मंगल करनि कलिमल हरनि,
तुलसी कथा रघुनाथ की।'

तुलसीदास ने लोक-मंगल और जनहितैषिता का जो मूल्यात्मक विचार रामकथा में ढूंढ़ा उसका तो महत उद्देश्य ही था-
'बुध विश्राम सकल जन रंजनि।
रामकथा कलि कलुष विभंजनि।।'

आज हम पाते हैं कि विश्व का इतिहास मानव-संघर्षों का पुलिंदा रहा है। व्यक्तिगत स्वार्थ और अहंकार की 'कलुष' प्रवृत्तियाँ मनुष्य की सामूहिक चेतना को कुंठित ही नहीं करतीं, सामाजिक विषमता, शोषण, अन्याय और अत्याचार को बढ़ावा देकर ऐसी व्यवस्था का गठन करती रही हैं जिसमें मनुष्य का साँस लेना भी दूभर हो जाता है। 'कलुष' मानसिकता के ऐसे 'निसिचर' हर युग में पैदा हो सकते हैं जो अपनी बुद्धि, शक्ति और समृद्धि के स्वार्थ-प्रेरित 'अहंकार' से मानव समाज और उसके अस्तित्व के लिए ख़तरे के बायस बन जाते हैं। त्रेता युग का रावण इसी कलुष बुद्धि का राक्षस था और आज विकसित राष्ट्रों का समूह क्या उसी प्रकार अपनी बुद्धि, शक्ति और समृद्धि के अहंकार का प्रदर्शन कर मानव समाज के अस्तित्व और भविष्य को ख़तरे में नहीं डाल रहा? रावण और उसकी आसुरी वृत्तियों(शक्तियों) से संत्रस्त लोग उस समय राम की शरण में त्राण पा गए, किंतु आज हम कहाँ जाएँ? संकट की घड़ी में अब ये सवाल विचारणीय हैं। संकट काल में तुलसीदास द्वारा दिया गया चिंतन-दर्शन क्या आज के मनुष्य समाज और विश्व का मार्गदर्शन करके इन संकटों का निराकरण मार्ग सुझा पाएगा? इसी संदर्भ में अज हमें तुलसीदास की उपादेयता एवं उनके मूल्य-विचारों की सार्थकता पर विचार करना होगा और विचार करते हुए इतना तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि असमानता की खाई में धँसी और विषमता के चक्र में फँसी आज की दुनिया को शक्ति-साधना और पूँजीवादी समृद्धि के विकास की मंगलमुखी भूमिका को तलाशना होगा। बुद्धि, शक्ति और समृद्धि से मदांध रावणीय आसुरी शक्तियों से दुनिया को बचाने के लिए अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ विश्व कल्याण तथा लोक-मंगल के साधक के रूप में तुलसी के राम की तरह लोकशक्ति के नेतृत्व का अवगाहन करना होगा।

मानव कल्याण को अपना सृजन-धर्म बनानेवाला साहित्यकार अपने कृतित्व के द्वारा ऐसे शाश्वत मूल्यों का संधान कर जाता है, जो भविष्य के समाज को संकट की स्थिति से उबार सके। तुलसीदास ऐसे ही महान साहित्यकार थे जिनके रचनात्मक चिंतन और साहित्य से उपजे मूल्य आज भी हमें अंधेरे में भटकने के लिए नहीं छोड़ते। उनके साहित्य-संसार में स्वस्थ व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की संकल्पना सार्थक हुई है। भारतीय संस्कृति के मूलभूत चिंतन सर्वस्व 'सर्वभूत हिते रता:' की धारणा के अनुरूप उन्होंने मानव कल्याण का भविष्य-स्वप्न देखा। तभी तो 'राम कथा जग मंगल करनी' की ओर वे प्रवृत्त हुए और अपने साहित्य जगत में उन्होंने-
'रावन नाम जगत जस जाना।
लोकप जाकें बंदीखाना।।'
के विरुद्ध साक्षात 'अखिल लोक दायक विश्रामा' के रूप में अवतार राम के समान कथा-नायक की संकल्पना द्वारा 'सब्जेक्टिव' नेतृत्व की अवधारणा को संभव बनाया-
'जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार।।'
अत: मनुज रूप में अवतार लेनेवाले राम और उनकी कथा मात्र कहानी नहीं अपितु तुलसी द्वारा सृजित लोक-आकांक्षित मानव, समाज और राज्य-व्यवस्था का आदर्श है, व्यक्ति के व्यवहार और आचरण की उच्चतम भूमिका का 'यूतोपिया' है। 'यूतोपिया' कैसा? अकर्मण्यों की भाँति स्वप्न देखनेवाला नहीं बल्कि अपने वैचारिक पुरुषार्थ से उसे आगे के लिए सच्चाई में तब्दील कर देनेवाला चिंतन-सृजन।

१६ अक्तूबर २००६

  
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