इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
जय चक्रवर्ती, कमला सिंह ज़ीनत, अमरेन्द्र सुमन, ज्योतिर्मयी पंत, रोहिणी कुमार भादानी की रचनाएँ। |
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साहित्य एवं
संस्कृति
में- |
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
सुशांत सुप्रिय की कहानी-
पाँचवीं दिशा
हम
सब पिता को एक अंतर्मुखी व्यक्ति के रूप में जानते थे। दादाजी
की मौत के बाद खेती-बाड़ी का दायित्व उनके कंधों पर आ गया था
लेकिन शायद वे अपने वर्तमान जीवन से खुश नहीं थे। मुझे अक्सर
लगता कि शायद वे कुछ और ही करना चाहते थे। शायद उनके जीवन का
लक्ष्य कुछ और ही था। माँ पिता से ज्यादा दुनियादार महिला
थीं। खेती-बाड़ी की देख-रेख का काम माँ और मामा ने सँभाल लिया।
इसलिये घर की गाड़ी बिना लड़खड़ाए चलती रही।
तब मैं चौदह साल का था और गाँव की पाठशाला में आठवीं कक्षा में
पढ़ता था। एक दिन पिता ने घर में घोषणा की कि वे एक 'हॉट एयर
बैलून' बनाएँगे और उसमें बैठ कर ऊपर आकाश में जाएँगे।
घर-परिवार और गाँव में जब लोगों ने यह सुना तो वे तरह-तरह की
बातें करने लगे। किसी ने कहा कि उनका दिमाग खिसक गया है। किसी
ने गाँव के ओझा को बुला कर उनका इलाज करवाने की बात की। माँ ने
भी इसे पिता की सनक बताया और उन्हें ऐसा करने से रोकना चाहा,
किंतु पिता अपनी बात पर कायम रहे।
आगे-
*
शशिकांत सिंह शशि का व्यंग्य
दुनिया ऑन लाइन
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शमशेर अहमद खाँ का आलेख
चमगादड़ हमारा मित्र हैं
*
कंदम्बरी मेहरा का आलेख-
हैलोवीन का त्यौहार
*
पुनर्पाठ में
श्रीश बेंजवाल का आलेख
कंप्यूटिंग के
पितामह डेनिस रिची |
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पिछले
सप्ताह- दीपावली के अवसर पर |
अफसर खाँ सागर का व्यंग्य
कैटल क्लास की दीवाली
*
शोभाकांत झा का
ललित निबंध-
रामराज्य
*
डॉ. राजनाथ त्रिपाठी का आलेख
सीता
का निर्वासन- देश और विदेश में
*
पुनर्पाठ
में अर्बुदा ओहरी के साथ मनाएँ
प्रकृति प्रेम
के साथ दिवाली
*
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है मारीशस से
कुंती मुकर्जी की कहानी-
सोने का रथ
सोनलता
आँखें मींचती हुई आयी और अपनी माँ से कहने लगी-
“आज मैंने फिर वही सपना देखा।”
सोनलता की माँ प्रेमलता ध्यानमग्न होकर सूर्य को अर्घ्य दे रही
थी। तुलसी के चौतरे पर घी का दिया जल रहा था और धूप बत्ती की
सुगंध से वातावरण सात्विक बना हुआ था। सुबह के छः बजे थे। हवा
में हल्की ठंडक अब भी थी और प्रेमलता एक झीनी साड़ी में लिपटी
कोई मंत्र बुदबुदा रही थी।
“आज भी माँ मेरी बात नहीं सुनेगी” सोनलता कोई बाधा दिये बिना
अपने कमरे में लौट आयी और मन ही मन कहने लगी- “ऐसी भी कोई
ज़िंदगी होती है।” वह सोलह साल की हो
गयी थी और अब वह अपने लिये एक विस्तृत आकाश चाहती थी। उसने
अपने कमरे की खिड़की खोल दी और आकाश की ओर देखने लगी। नीले
आसमान में सफ़ेद सफ़ेद कुछेक बादल के टुकड़े फैले थे, समुद्र की
लहरों पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें अधखेलियाँ करने लगी थीं, वह
समझ गयी कि आज का दिन सुहाना होगा। वह कुछ और सोचती कि उसने
अपनी माँ को...
आगे- |
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