समय का अभाव था। मैंने अधिक समय न गँवाते हुए
दलदल, पत्थरों और चट्टानों के बीच से ही गाड़ी निकालनी शुरू की। इतने में एक
ऊँची चट्टान मेरी गाड़ी के नीचे टकराई, किन्तु मैं बढ़ता गया। यहाँ रुकना संभव
नहीं था। मैं आशा कर रहा था के मेरी गाड़ी को ऐसी कोई क्षति न हुई हो जिस से
आगे दिक्कत हो।
जैसे ही मैं इस दलदल और पत्थर चट्टानों के रास्ते से निकल पहाड़ पर चढ़ने लगा तो
मेरे सामने ढीली मिटटी की एक एकदम सीधी चढ़ाई आई। देखकर ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा
था के इस चढ़ाई पर कोई भी गाड़ी चढ़ सकती है। इस चढ़ाई पर तो पैदल चढ़ना भी संभव
प्रतीत नहीं हो रहा था। किन्तु कोई और रास्ता खोजने का या अधिक सोचने का समय
नहीं था। मैंने गाड़ी को तुरंत सबसे अधिक ताकत वाले गेयर 'फोर बाई फोर लोअर'
में लगाया, ईश्वर का नाम लिया और चढ़ना शुरू किया। (इस 'फोर बाई फोर लोअर' गेयर
की पहली बार आवश्यकता पड़ी थी, लेकिन इस पहाड़ी पर तो शुरू से ही यह गेयर लग गया
था।
इस ढीली मिटटी की चढ़ाई पर कुछ फिसलती, कुछ इधर उधर हिलती डुलती सी, हमारी
गाड़ी चढ़ने लगी। संतुलन बनाए रखना आवश्यक था। कुछ ही समय में यह चढ़ाई ख़तम
हुई और हम आगे चढ़ने लगे। चढ़ाई भी बहुत थी और जगह जगह पर बड़े बड़े पत्थर और
चट्टानें थीं। बड़ी सावधानी से गाड़ी को कभी बाएँ की ओर तो कभी दाएँ की ओर
चलाकर चढ़ाना पड़ रहा था। गाड़ी ढलान की ओर बहुत झुकी रहती और अधिक झुकाव से
गाड़ी के पलट जाने का डर भी था। अतः मुझे बहुत सावधानी से गाड़ी चलानी पड़ रही
थी।
अचानक मेरी नज़र गाड़ी के इंजन का तापमान बताने वाली सुई पर गई। सुई खतरे के
निशान को लगभग पार ही कर चुकी थी। मैंने तुरंत गाड़ी बंद कर दी और अंकुश ने
नीचे उतर बोनट (इंजन का ढक्कन) खोल दिया। अगर तापमान देखने में मुझे थोड़ी और
देर हुई होती तो गाड़ी का इंजन बैठ जाता और फिर गाड़ी को यहाँ से संभवतः क्रेन
के द्वारा उठा कर ही ले जाया जा सकता। अंकुश ने इंजन पर कुछ समय पानी डाल उसका
तापमान कम किया और फिर हम आगे बढे।
इंजन का तापमान हर कुछ समय में बढ़ जाता और फिर हमें रुकना पड़ता। संभवतः चट्टान
के टकराने से गाड़ी को नुक्सान हुआ था और इसीलिए तापमान बढ़ रहा था। बार बार
रुकने के कारण समय भी अधिक लग रहा था। हमें दोपहर तक चोटी पर पहुँच कर वापिस
मुड़ना था अन्यथा हम रात से पहले किसी सुरक्षित स्थान पर नहीं पहुँच पाते और इस
ऊँचाई पर रात बिताने की सोचना मृत्यु को न्योता देने के सामान था। अतः हमारे
पास बहुत कम समय शेष था।
गाड़ी बार बार रुक रही थी और सबको लग रहा था के हम ऊपर नहीं पहुँच पाएँगे।
मोग्लिस्वरण ने कहा "सर, समय हो रहा है और हमें वापिस मुड़ना पड़ेगा।”
मैंनें घडी की ओर देखा और कहा “यदि हम दो बजे तक ऊपर नहीं पहुँचे तो वापिस मुड़
जाएँगे।”
इस पहाड़ी पर रात गुज़ारना निश्चित मृत्यु के सामान था। मैं नहीं चाहता था के
मेरे कारण मेरे साथ सफ़र कर रहे किसी भी व्यक्ति की जान खतरे में पड़े। केशव को
कुछ समय से सर दर्द और चक्कर की शिकायत हो रही थी।
वापिस मुड़ने का समय होने ही वाला था और हम एक खड़ी चढ़ाई के सामने जाकर रुक गए
थे। आगे चोटी कितनी दूर है कुछ भी दिख नहीं रहा था। इस खड़ी चढ़ाई के कितना आगे
और जाना है, कुछ अनुमान नहीं था। समय भी हो गया था और जब मैंने पीछे मुड़कर देखा
तो सब निराशा में चेहरे नीचे किये हुए थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था के हमारा
अभियान असफल हो गया था। मैं बहुत शांत था। मैंनें गाड़ी का शीशा नीचे कर बाहर
की परिस्थिति को आँका।
साँय साँय करती हवा चल रही थी और मुझे अपने अन्दर आती जाती साँसों की आवाज़ भी
सुनाई दे रही थी।
क्या मेरा मिशन असफल हो गया था?
क्या मैं फिर हार गया था?
यदि मैं स्वयं ही हार गया तो मैं दुनिया को जीत और सकारात्मकता का पाठ कैसे
पढ़ाऊँगा?
मैंनें स्वयं से यह प्रश्न किये। मेरे अन्दर से एक सैनिक की आवाज़ आई "नहीं मैं
हार नहीं सकता। एक सैनिक कभी हार नहीं सकता।"
मैंने मुड़कर अपने बाएँ ओर बैठे अंकुश की ओर देखा और कहा " अंकुश"
उसने मेरी ओर देखकर कहा "हाँ सर"
मैंनें कहा "अब ऊपर जाकर ही रुकेंगे"
उसने भी तुरंत कहा "ठीक है सर। अब ऊपर जाकर ही रुकेंगे।"
मैंने गाड़ी को स्टार्ट कर गेयर में लगाया और पूरी स्पीड दे दी। मेरे एक इशारे
पर अंकुश ने हैण्ड ब्रेक हटा दिया और गाड़ी चढ़ने लगी। दाहिने और बाएँ ओर काटते
मैं गाड़ी को इस खड़ी चढ़ाई पर चढाने लगा। कुछ पल में ही गाड़ी का तापमान खतरे
के निशान को पार कर गया। किन्तु इस चढ़ाई पर रुकना संभव नहीं था। अतः मैं
चढ़ाता गया। गाड़ी का इंजन किसी भी समय फट सकता था।
फिर जैसे ही गाड़ी इस खड़ी चढ़ाई के ऊपर पहुँची, हमारे सामने कुछ बीस गज के
फासले पर एक सफ़ेद पत्थर था जिसपे इस पहाड़ी दर्रे का नाम 'मर्सिमिक' लिखा था। हम
चोटी पर पहुँच गए थे। हम सफल हो गए थे।
मैं अपनी असीमित योग्यता की सोच को प्रमाणित करने निकला था और उसको मैंने
सफलतापूर्वक प्रमाणित कर दिया था।
मैंने इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते हुए इस पर्वत पर विजय नहीं पाई
थी। मैंनें तो स्वयं पर विजय पाई थी। और वो ही होती है 'अंतिम विजय', जिसकी खोज
में, जाने अनजाने में हर व्यक्ति रहता है। और यह विजय और इस विजय को पाने की
खोज सदेव चलती रहती है। वो खोज कभी समाप्त नहीं होती।
वो पत्थर मेरे सामने था किन्तु स्वयं पर विजय पा सकने के बाद मेरे लिए उस पत्थर
तक पहुँचना आवश्यक नहीं रह गया था। हम सब के मन में एक मर्सिमिक के सामान पहाड़
होता है, जिसको हम पूरी उम्र जीतने का प्रयास करते रहते हैं। इस पर्वत के
सम्मान में और इसलिए के मेरी खोज यहाँ समाप्त न हो, अपितु प्रारंभ हो, मैंनें
उस पत्थर तक न पहुँचने का निर्णय लिया और उस पत्थर से पाँच गज पहले ही अपनी
गाड़ी रोक ली।
वहाँ से अपनी व्हीलचेयर में उतर मैं उस पत्थर तक गया और पीछे मुड़ पहाड़ी
श्रंखला की सुन्दरता और विशालता को निहारने लगा। मेरे ह्रदय में असीम शान्ति
थी।
विनोद इस दृश्य को कैमरे में उतार रहा था। राबर्ट ने इस मिशन की सफलता पर मुझे
अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए कहा। मैंने कहा
"हम सब के मन में प्रश्नों और शंकाओं का एक मार्सिमिक पहाड़ होता है और उसी पहाड़
पर विजय पाने के प्रयास का नाम जीवन है। मेरा जीवन इस पर्वत के ऊपर पहुँचने से
पहले बहुत खूबसूरत था और यहाँ पहुँचने के बाद यह जीवन और भी खूबसूरत होगा। ऐसा
मेरा विश्वास है।"
अपने इस मिशन को पूरा कर जब मैं वापिस पहुँचा तो मेरा भव्य स्वागत हुआ। विभिन्न
टीवी चैनल मेरे मिशन और उसकी सफलता पर समाचार दिखा रहे थे।
विभिन्न समारोहों में मुझे बुलाया जाता और सम्मानित किया जाता। मेरा नाम लिम्का
बुक आफ रेकॉर्ड्स में विश्व कीर्तिमान (वर्ल्ड रिकॉर्ड) की श्रेणी में शामिल
हुआ। लिम्का बुक नें उस वर्ष के पाँच सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों में मेरा नाम
सम्मिलित किया और 'टाइम्स आफ इंडिया' समाचार पत्र नें मुझे उस वर्ष के विशिष्ट
उपलब्धियाँ हासिल करने वाले भारतीयों की सूची में सम्मिलित किया, जिसमें अमिताभ
बच्चन और सचिन तेंदुलकर जैसे नाम भी थे।
राज्य के मुख्यमंत्री ने मुझे राज्य गौरव के सम्मान से सम्मानित किया। सेना
अध्यक्ष नें मुझे प्रशस्ति पत्र और मेडल से सम्मानित किया।
यह मेरे लिए बहुत प्रसन्नता और संतुष्टि की बात थी के मुझे ऐसे सम्मानित किया
जा रहा था। लेकिन मेरा स्वयं का यह मानना था के यह तो मात्र वो स्थान था जहाँ
से मैं अपनें आगे के जीवन और सामाजिक कार्य की शुरुवात कर सकता था। मेरा विचार
था के मैं जल्द से जल्द साधन और समर्थन जुटा सकूँ और ज़रूरतमंद बच्चों की
सहायता कर सकूँ।
वो ज़रूरतमंद बच्ची एक झकझोर देने वाली घटना
मैं अपने समाज सेवा के कार्य को शुरू करने और आगे बढाने की बात सोच ही रहा था
के एक दिन मेरे साथ कुछ घटित हुआ। रात नौ बजे का समय था और कड़कती सर्दियों की
रात थी। हड्डियाँ जमा देने वाली ठण्ड पड़ रही थी और धुंध भी थी। सब लोग सर्दियों
के भारी कपड़ों से लदे और अपनें दस्ताने से ढके हाथों को भी अपनी जेबों में छुपा
ठिठुरते से इधर उधर जा रहे थे।
मैंनें देखा कि एक तीन वर्ष की बच्ची मात्र एक फटी हुई कमीज़ पहने नंगे बदन और
नंगे पैर फुटपाथ पर खड़ी है और रो रही है। कुछ भीख माँगने वाले बच्चे उसे अपने
साथ ले आए थे और अब यहाँ छोड़ कर इधर उधर खेलने या भीख माँगने लग गए थे। मैंनें
तुरंत उन बच्चों को बुलवाया और अच्छी डाँट मारते हुए उस बच्ची को घर ले जाने के
लिए कहा। वो बच्चे मेरी डाँट से घबरा उस बच्ची को अपने साथ ले वहाँ से गायब हो
गए, लेकिन मैं सोचता रह गया।
वो दृश्य उस दिन ऐसा मेरे मन में छपा के आज तक नहीं निकला है। उस असहाय बच्ची
की मदद न कर पाने पर स्वयं को बहुत असहाय महसूस किया और अब भी करता हूँ।
महात्मा गाँधी ने कहा था "किसी समाज की उन्नति इस बात से आँकी जा सकती है के उस
समाज में सबसे दुर्बल और कमज़ोर सदस्य की क्या दशा है"
हमारे समाज में सबसे कमज़ोर और ज़रूरतमंद यह बच्चे ही हैं। अतः मैने निर्णय कर
लिया के साधन हों या न हों, समर्थन हो या न हो, मैं अपना समाज सेवा का कार्य
तुरंत प्रारंभ करूँगा और अधिक से अधिक ज़रूरतमंद बच्चों तक साधन और सहायता
पहुँचाने की कोशिश करूँगा।
इसी उद्देश्य को आगे बढाने के लिए मैंने 'अपनी दुनिया अपना आशियाना' नामक
संस्था की स्थापना की। मैंने देखा था के अन्य संस्थाएँ सिर्फ एक विशेष श्रेणी
के बच्चों की ही सहायता करती थीं। कोई सिर्फ शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों के
लिए, कोई सिर्फ मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए, तो कोई सिर्फ अनाथ बच्चों
के लिए काम करता था। मैं चाहता था कि अगर मेरे पास कोई भी ज़रूरतमंद बच्चा आए
तो मैं उसकी सहायता कर सकूँ।
धीरे धीरे कर आने वाले सालों में मैंने विभिन्न तरह से ज़रूरतमंद बच्चों के लिए
परयोजनाएँ चलाईं। गली में भीख माँगने वाले बच्चों के लिए, दैनिक भत्ते पर काम
करते गरीब मजदूरों के बच्चों के लिए, गाँव के बच्चों के लिए, विकलांग बच्चों के
लिए, अनाथ एवं असहाय बच्चों के लिए मैंनें कार्य किया।
मेरा यह मानना है के हमें स्वयं में और समाज में सुधार लाने के लिए कार्य करना
चाहिए। परिस्थितियाँ और सरकार तो हमारा प्रतिबिम्ब हैं। यदि हम में और समाज में
सुधार आएगा तो परिस्थितियाँ अपने आप सुधर जाएँगी।
हाँ, मैं एक सैनिक हूँ। मैं एक सैनिक बनना चाहता था। मैं फौजी सैनिक न बन सका,
किन्तु मैं एक सामाजिक सैनिक हूँ। आज की सबसे बड़ी लड़ाई समाज में लड़ी जानी है।
समाज सुधार की लड़ाई।
'जो स्वयं से लड़ता है, अपनी कमजोरियों से लड़ता है, वो ही जीतता है। जो सदेव
दूसरों से लड़ता रहता है, वो हमेशा जीत कर भी हार जाता है।'
हम सब का कर्त्तव्य है के जिस समाज ने हमें जन्म दिया, संरक्षण दिया और पाला है
हम उस समाज के उद्धार के लिए कार्य करें और अपना पूरा योगदान दें।
मेरी यह अंतिम विजय की खोज और लड़ाई सदेव चलती रहेगी। जीवन इसी लड़ाई और इसी खोज
का नाम है। जब तक मैं जीवित हूँ तब तक मेरा कार्य ही मेरे लिए प्रधान रहेगा।
मेरे सामाजिक कार्य के लिए मुझे विभिन्न पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया।
उनमें से कुछ हैं -
१. ३ दिसंबर २००६ में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम द्वारा राष्ट्रीय
कार्य आदर्श पुरस्कार प्राप्त हुआ।
२. २०१० में कर्मवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
३. २०११ में माइंड ऑफ़ स्टील पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
४. २०१२ में कर्मवीर पुरस्कार से सम्मानित किया गया
५. २०१२ में ही 'सी एन एन' टीवी चैनल के द्वारा 'रियल हीरो' पुरस्कार से
सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार मुझे सचिन तेंदुलकर के हाथों मिला।
मैं आभारी हूँ और भाग्यशाली हूँ कि मुझे इतने सम्मान मिले, किन्तु मेरा असली
कार्य तो आगे है। आने वाले समय में मैं समाज और देश की उन्नति में अधिक से अधिक
योगदान देना चाहता हूँ।
इस देश को सामाजिक सैनिकों की आवश्यकता है। हाँ, मैं एक सैनिक हूँ। एक सामाजिक
सैनिक। हम सबको एक सामाजिक सैनिक बनना है।
जय भारत! वन्दे मातरम! जय हिंद। |