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हास्य व्यंग्य


कैटलक्लास की दिवाली
अफसर खाँ सागर


शाम के वक्त चौपाल सज चुकी थी। रावण दहन के बाद मूर्ति विसर्जित कर लोग धीरे-धीरे चौपाल की जानिब मुखातिब हो रहे थे। दशहरा वाली सुबह ही काका ने जोखन को पूरे गाँव में घूमकर मुनादि का हुक्म दे दिया था कि सभी कैटल क्लास के लोग विसर्जन के बाद दीवाली के बाबत चौपाल में हाजिर रहें। काका पेशानी पर हाथ रख कर शून्य में लीन थे कि जोखन ने आत्मघाती हमला बोल दिया। ‘कौने फिकिर में लीन बाड़ा काका, चुप ससुरा का धमा चौकड़ी मचा रखले बाड़े…’ काका ने जोखन को डाँटते हुए कहा। माहौल धीरे-धीरे धमाकों की गूँज में तब्दील हो चुका था। लोगों की कानाफूसी जोर पकड़ चुकी थी ऐसे में जोखन तपाक से बोल पड़ा… ‘हे काका! अबकी दीवाली पर न त चाउर-चूड़ा होई नाहीं त घरीय-गोझिया क कउनो उम्मीद बा फिर तू काहें दीवाली के फिकिर में लीन बाड़ा।’ जोखन की बात से पूरा चौपाल सहमत था। माहौल में सियापा छा चुका था सभी लोग काका की तरफ ऐसे ध्यान लगाए बैठे थे मानो वो गाँव के मुखिया नहीं मुल्क के मुखिया हों।

बात अगर त्यौहारों की हो तो उसमें चीनी का होना वैसे ही लाजमी है जैसे ससुराल में साली का होना वर्ना सब मजा किरकिरा। काफी देर बाद काका ने चुप्पी तोड़ी- प्यारे कैटल क्लास के भाइयों अबकी दीवाली में चीनी, चावल, चूड़ा, तेल, घी, मोमबत्ती व दिया में सादगी के लिए तैयार हो जाइए। बदलते वक्त के साथ हमें भी नई श्रेणी में रख दिया गया है, जहाँ हम पहले जनता जर्नादन की श्रेणी में थें मगर अब कैटल क्लास में आ गये हैं। …तो अब हमें चीनी, चावल, चूड़ा, गुझिया की जगह घास-भूसा, चारा से काम चलाना होगा?

जोखन ने सवाल दागा। आपने सही समझा, मैडम व सरदार जी के दौर में हमें नतीजा तो भुगतना ही पड़ेगा न! चीनी इस त्यौहारी मौसम में मीठा न घोलकर हमसब के घरों में जहर घोलने पर जो आमादा है। ऐसे में घरिया व गुझिया के कद्रदानों को चीनी की बेवफाई से शुगर का खतरा भी कम हो गया है। तभी तो पास बैठे अश्विन बाबू ने एक मसल छेड़ी
जश्न-ए-पूजा, जश्न-ए-दीवाली या फिर हो जश्न-ए-ईद
क्या मनाएँगे इन्हें? जो हैं सिर्फ चीनी के मुरीद।

माहौल में कुछ ताजगी का एहसास हुआ फिर बात आगे बढ़ चली। हाँ, तो कैटल क्लास के भाइयों, इस दीवाली हमारे घरों में अंधेरे का काला साम्राज्य ठीक उसी तरह कायम रहना चाहिए जैसे केन्द्र में यूपीए व वैश्विक बाजार में मंदी तथा हमारे मुल्क में महँगाई का है। सो हम सब सादगी का परिचय देने हुए न तो तेल-घी का दीप जलायेंगे न ही कैंडील। इस बार दीप नहीं दिल जलेंगे खाली, सादी होगी अपनी दीवाली।

हाँ, तो कैटल क्लास के भाइयों आप पूरी तरह से तैयार हो जाएँ अबकी दीवाली में घास-भूसा और चारे का लुत्फ उठाने के लिए तबेले के घुप अँधेरे में दीवाली मनाने के लिए। ‘हे काका… चारा त लालू भईया चाट गईलन…’, जोखन के इस सवाल पर चौपाल का माहौल धमाकाखेज हो गया। कानाफूसी व बतरस के बीच कोई कहता, अरे भाई कैटल क्लास में भी मारा-मारी है तो कोई लालू को कोसता, बात निकली है तो दूर तलक जायेगी सो काका ने माहौल को किसी तरह दीवालीया बनाया- महँगाई और मंदी का दौर है हम सबकी तो दीवाली सादी मनेगी मगर किसी ने शहर में जाकर भल मानुसों की दीवाली भी देखी है, कैसे मनती है उनकी दीवाली? भौंचकियाए लोग आपस में खुसर-फुसर करने लगे। सबकी निगाह अश्विनी बाबू पर जा टिकी। वहाँ तो हर रोज ही दशहरा, दीवाली मनता है काका। शहर में माल, बीयर बार, रेस्तराँ, होटल आदि जगहों पर हमेशा होली व दीवाली का माहौल रहता है क्योंकि वहाँ आमदनी पैसा-रूपया नहीं डालर-पाउंड में होता है। तो वहाँ न दीवाली मनेगी कि यहाँ सूखे नहर व अकाल के माहौल में। फिर अश्विनी बाबू ने कहा-
कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया
बात निकली है तो हर इक बात पे रोना आया।

इसके बाद चैपाल में काका का फैसला आया… अबकी दीवाली हम कैटल क्लास के लोग न तो चूड़ा-घरिया के चक्कर में रहेंगे ना ही दिया-बाती के। पूरी सादगी के साथ मनेगी दीवाली। न पटाखा, न धमाका सिर्फ और सिर्फ सियापा व सन्नाटा। शास्त्री व बापू के आदर्शों पर चलकर मंत्रियों व संतरियों को करारा जवाब देना है। सादगी का लंगोट पहनकर मैडम, मनमोहन व महँगाई का मुकाबला करना है। न पकवान, न स्नान और न ही खानपान। खाली पेट रहकर देश की अर्थव्यवस्था को सुधारना है साथ ही शुगर व शरद बाबू के प्रकोप से भी बचना है। रात में घुप अँधेरा रहे ताकि आइल सब्सिडी का बेजा नुक्सान न हो। दीप की जगह दिल जलाना है, सादगी से दीवाली मनाना है। इसके लिए कैटल क्लास के लोग तैयार हैं ना? काका के आह्वान पर सबने हामी भरी। रात के स्याह तारीकी में जलते दिलों के साथ घर की जानिब कैटल क्लास के लोग हमारे हुए।

२० अक्तूबर २०१४

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