वैस हर शुभ कार्य की शुरुआत स्वस्तिक बनाकर ही की जाती है।
यह मंगलभावना एवं सुख सौभाग्य का द्योतक है। इसे सूर्य और
विष्णु का प्रतीक माना जाता है। ऋग्वेद में स्वस्तिक के
देवता सवृन्त का उल्लेख है। सविन्त सूत्र के अनुसार इस देवता
को मनोवांछित फलदाता सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं
को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।
सिद्धान्तसार के अनुसार उसे
ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना जाता है। इसके मध्यभाग को विष्णु
की नाभि चारों रेखाओं को ब्रह्मा जी के चार मुख चार हाथ और
चार वेदों के रूप में निरूपित करने की भावना है।
देवताओं के चारों ओर
घूमनेवाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वस्तिक के आकार का होने के
कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे
सिद्ध किया जा सकता है और यह मान्यता श्रुति द्वारा
प्रतिपादित तथा युक्तिसंगत भी दिखाई देती है।
श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति
इन तीनों का यह एक सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले
संगम के समान हैं। दिशाएँ मुख्यत: चार हैं, खड़ी तथा सीधी
रेखा खींचकर जो घन चिन्ह (+) जैसा आकार बनता है यह आकार
चारों दिशाओं का द्योतक सर्वत्र और सदैव यही माना गया है।
'स्वस्तिक' का अर्थ है -
क्षेम, मंगल इत्यादि प्रकार की शुभता एवं 'क' अर्थात कारक या
करने वाला। इसलिए देवता का तेज शुभ करनेवाला - स्वस्तिक करने
वाला है और उसकी गति सिद्ध चिन्ह 'स्वस्तिक' कहा गया है।
स्वस्तिक को भारत में ही
नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों
में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम,
मिस्त्र, ब्रिटेन, अमरीका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन,
सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी
स्वस्तिक का प्रचलन है। स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान
अग्नि उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ तथा पीपल की दो लकड़ियाँ
मानते हैं। प्राचीन मिस्त्र के लोग स्वस्तिक को निर्विवाद,
रूप से काष्ठ दण्डों का प्रतीक मानते हैं। यज्ञ में अग्नि
मंथन के कारण इसे प्रकाश का भी प्रतीक माना जाता है। अधिकांश
लोगों की मान्यता है कि स्वस्तिक सूर्य का प्रतीक है। जैन
धर्मावलम्बी अक्षत पूजा के समय स्वस्तिक चिह्न बनाकर तीन
बिन्दु बनाते हैं। पारसी उसे चतुर्दिक दिशाओं एवं चारों समय
की प्रार्थना का प्रतीक मानते हैं। व्यापारी वर्ग इसे
शुभ-लाभ का प्रतीक मानते हैं। बहीखातों में ऊपर की ओर 'श्री'
लिखा जाता है। इसके नीचे स्वस्तिक बनाया जाता है। इसमें न और
स अक्षर अंकित किया जाता है जो कि नौ निधियों तथा आठों
सिद्धियों का प्रतीक माना जाता है।
ऐतिहासिक साक्ष्यों में
स्वस्तिक का महत्व भरा पड़ा है। मोहन जोदड़ों, हड़प्पा
संस्कृति, अशोक के शिला लेखों, रामायण, हरवंश पुराण महाभारत
आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। दूसरे देशों में
स्वस्तिक का प्रचार महात्मा बुद्ध की चरण पूजा से बढ़ा है।
तिब्बती इसे अपने शरीर पर गुदवाते हैं तथा चीन में इसे
दीर्घायु एवं कल्याण का प्रतीक माना जाता है। विभिन्न देशों
की रीति-रिवाज के अनुसार पूजा पद्धति में परिवर्तन होता रहता
है। सुख समृद्धि एवं रक्षित जीवन के लिए ही स्वस्तिक पूजा का
विधान है। हज़ारों वर्षों से चली आ रही यह मान्यता निरन्तर
चलती रहेगी। 'स्वस्तिक' की तरह हम भी सर्व मंगलकारी तत्व
साधक बनें यही दीप पर्व पर व्रत लें।
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