सीता का
निर्वासन : देश विदेश में
डॉ. रमानाथ त्रिपाठी
क्या सीता निर्वासन सत्य घटना है
या यह वाल्मीकि-रामायण में प्रक्षिप्त है। कई विद्वान पुष्ट प्रमाण देकर सिद्ध करते
हैं कि पूरा उत्तरकांड ही प्रक्षिप्त है। सच में तो छठे कांड की फल-श्रुति के
पश्चात ही रामायण-ग्रंथ समाप्त हो जाता है। दक्षिण भारत की रामायणों में छह कांड ही
है। महाभारत तथा कई पौराणिक रामकथाओं में सीता-निर्वासन का अभाव है। विचारणीय है कि
राम ने पर-पुरुष के साथ रमण करने वाली अहिल्या का उद्धार किया। तारा भी दो-दो
पतियों की रमणी रही। इसे भी राम ने आदर दिया। ये दोनों प्रातः वंदनीया हो गयीं।
सीता तो परम पवित्र थीं, उन्हें इतना बड़ा दंड क्यों दिया गया?
लगता है बौद्ध मठों में भिक्षुणियों के अनाचार और बौद्ध शासकों के निर्वीर्य हो
जाने पर कण्व और श्रृंग वंश के ब्राह्मण राजाओं ने नारी-पवित्रता का चरम आदर्श
प्रस्तुत करने के लिए सीता-निर्वासन की नयी उद्भावना की।
वाल्मीकि-रामायण में सीता को नारीणामुक्तमानबधू कहा गया। इस ग्रंथ का एक नाम
‘सीतायाश्चरितं महत्’ भी है। उन्होंने बनवास के समय पति का साथ दिया। वैभव के मध्य
पली इस सुकुमारी महिला ने जंगल के घोर कष्ट सहे, किंतु राम के साथ रहने का उन्हें
कभी पश्चाताप नहीं हुआ। रावण सुंदर, पराक्रमी और संपन्न था किंतु वह इस पति-परायणा
को रंचमात्र विचलित नहीं कर सका। उन्होंने सभी प्रलोभनों को ठुकराकर कह दिया था कि
मैं बायें पैर के अंगूठे से भी इस निशाचर को नहीं छुऊँगी-
चरणेनापि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम्।
जिस समय पक्षी की मादा अंडे देने को होती है, नर-पक्षी एक-एक तिनका जोड़कर घोंसला
बनाता है। राम ने क्या किया? जिस समय पति के संक्षरण की विशेष आवश्यकता थी,
उन्होंने सीता को धोखा देकर वन में छुड़वा दिया, खूँख्वार जानवरों के मध्य।
लोक-मानस ने राम को क्षमा नहीं किया। लोकगीतों में जनता की सहानुभूति सीता के साथ
है। सीता राम को कटु वचन बोलने में संकोच नहीं करतीं -
ऐसे पुरुषवा क मुँहवा न देखब,
जिनरे दिहिन बनवास हो।
बिहार में लड़कियों के नाम सीता नहीं रखे जाते, भले ही जानकी, वैदेही या मैथिली रखे
जाते हों।
सीता निर्वासन के निम्न कारण बताये गए हैं-
लोकापवाद के कारण ही राम ने सीता
का परित्याग किया था, यही सत्य था। सीता-निर्वासन के अन्य कारणों की चर्चा के
पश्चात ही लोकापवाद के विषय में विचार करना समीचीन होगा।
रावण का चित्र
वाल्मीकि-रामायण में सीता के चरित्र पर राम ने संदेह नहीं किया। संदेह का आरंभ जैन
राम-कथाओं से होता है। विमल सूरि कृत पउम चरिउ (३००-४००ई.) में वर्णित है कि
नागरिकों ने राम से भेंट कर सीता के कलंक की बात कही। राम ने लक्ष्मण से कहा कि वे
सीता को वन में छोड़ आएँ। लक्ष्मण तैयार नहीं हुए तो राम ने यह कार्य अपने सेनापति
से करवाया। राम को सीता के चरित्र पर संदेह हुआ, इसे युक्ति-संग बनाने के लिए रावण
के चित्र की कल्पना हुई। हरिभद्र (८ वीं शती) के उपदेश-पद में इसका प्राचीनतम
उल्लेख है। सीता की ईर्ष्यालु सौतों ने सीता से रावण के चरणों का चित्र बनवाया, फिर
उसे राम को दिखाया। राम ने उपेक्षा की तो सौतों ने दासियों के द्वारा जनता में
प्रचार करा दिया। राम गुप्त-वेश धारण कर निकले, उन्हें सीता के कलंक के बारे में
ज्ञात हुआ तो उन्होंने सेनापति द्वारा सीता का त्याग करा दिया। हेमचन्द्र की जैन
रामायण में भी इस प्रसंग का अनुसरण है। इसमें सौतों की संख्या तीन बतायी गयी है।
रावण का चित्र बनाने की चमत्कारिक घटना जनता को सहज स्वीकार्य हो गयी। किंतु, जनता
को यह स्वीकार न था कि एक पत्नी-व्रत-धारी राम की कई पत्नियाँ दिखायी जातीं। आगे
चलकर चित्र बनाने का आग्रह करने वाली स्त्रियाँ सौत नहीं कुछ और दिखायी गयीं। अब दो
दृष्टियों से अध्ययन करना होगा -
आनंद-रामायण में कैकेयी ने रावण
का चित्र बनाने का आग्रह किया। सीता ने रावण के पैर का अंगूठा देखा था, उसे ही
उन्होंने दीवार पर बनाया। कृत्तिवासी बाँग्ला-रामायण में सखियों के कहने पर सीता ने
फर्श पर रावण का चित्र बनाया। बाँग्ला भाषा की ही चन्द्रावती-रामायण में कैकेयी की
पुत्री कुकुआ सीता से ताल-पंख पर रावण का चित्र बनवाती है। इस प्रकार बाँग्ला
रामायणों में सौतेली सास-बहू या ननद-भाभी का विवाद चल पड़ा।
माड़िया गौड़ आदिवासियों की कथा में ननद के कहने पर सीता गोबर से चित्र बनाती है।
मलयेशिया की सेरी राम में भरत-शत्रुघ्न की सहोदरी कीकबी देवी पंखे पर चित्र बनवाती
है। चन्द्रावती की राम-कथा से यहाँ साम्य है। जावा के सेरत-कांड में स्वयं कैकेयी
चित्र बनाकर सोती हुई सीता के वक्ष पर रख देती है।
सिंहली रामकथा में उमा सीता से केले के पत्ते पर चित्र बनवाती है। राम के आने पर
उसे पलंग के नीचे छिपाती है। राम के बैठने पर पलंग काँपता है। तब राम स्थिति से
परिचित होकर सीता को दंडित करते हैं। थाइलैंड की रामकथा में शूर्पणखा की पुत्री
सीता से रावण का चित्र बनवाकर उसी में प्रवेश कर जाती है। चित्र अमिट हो जाता है।
राम के आने पर चित्र बिछौने के नीचे छिपाया जाता है। कम्बोडिया की रामकथा में रावण
की कुटुम्बिनी सीता की सखी बनकर यह सब कराती है। यहाँ भी चित्र बिछौने के नीचे
छिपाया जाता है। लाओस, ब्रह्य देश तथा चीन की एक रामकथा में चित्र वृत्तांत हैं।
गुरु गोविंद सिंह की रामायण में सखियाँ दीवार पर चित्र बनवाती हैं। राम को संदेह
होता है और सीता शपथपूर्वक धरती में समा जाती है।
कश्मीरी रामायण में चित्र बनवाने वाली छोटी ननद है। लक्ष्मण सीता को वन-प्रदेश में
ले जाते हैं। सीता सो जाती हैं तो जल-भरा लोटा टाँगकर लक्ष्मण लौट जाते हैं। एक
बुंदेलखंडी लोकगीत में भी ऐसा है।
कई लोकवार्ताओं में भी चित्र-वृत्तांत है। यह प्रसंग पूरे देश और दक्षिण-पूर्वी
एशिया में प्रचारित रहा। इसका विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है-
-
१. चित्र बनाने वाली सौत,
सखी, कैकेयी, कैकेयी-पुत्री, कोई ननद, रावण-पुत्री या कोई राक्षसी बतायी गयी।
२. चित्र का आधार रहा फर्श, ताल-पंख, दीवार, केले का पत्ता, थाली आदि।
३. चित्र बनाया गया पूरे शरीर, चरण या अंगूठे का।
४. विदेशी राम कथाओं में यह भी दिखाया गया कि राम के आदेश पर लक्ष्मण सीता का
वध करने वन में ले गये, किंतु वे किसी पशु (कुत्ता, बकरी या मृग) को मारकर उसका
रक्त या कोई अंग राम को दिखाने के लिए ले आये। आश्चर्य है कि बौद्ध-धर्म
प्रभावित विदेशी रामकथाओं में ऐसा रक्तपात क्यों दिखाया गया। वैसे आनंद-रामायण
में राम लक्ष्मण से सीता की दक्षिण भुजा काटने के लिए कहते हैं, क्योंकि इसी से
उन्होंने रावण का चित्र बनाया था।
धोबी
प्रसंग
वाल्मीकि-रामायण के लोकापवाद को स्वाभाविक बनाने के लिए कल्पना की गयी कि किसी
पुरुष ने पराये घर में रही अपनी पत्नी को यह कहकर निकाल दिया कि वह राम नहीं है कि
रावण के यहाँ रही सीता को स्वीकार कर ले। श्रीमद्भागवतपुराण और कथा-सरितसागर में
ऐसा वर्णन है। फादर कामिल बुल्के मानते हैं कि कथा-सरितसागर ने यह प्रसंग गुणाढ्य
की बृहत्कथा से लिया होगा, जोकि अब अप्राप्य है। इस प्रसंग को और भी स्वाभाविक
बनाने के लिए कल्पना की गयी कि अपनी पत्नी को लांछित करने वाला पुरुष धोबी था। ऐसा
वर्णन जैमिनी-अश्वमेध और पद्म-पुराण में है।
बांग्ला-रामायण में लोकापवाद से दुखी राम स्नान करने जाते हैं तो धोबी-धोबिन का
झगड़ा सुनते हैं। वे घर आते हैं तो सीता द्वारा बनाया रावण का चित्र देखते हैं।
धोबी-वृत्तांत कश्मीरी, गुजराती, मैथिली आदि रामायणों में भी है।
तारा-शाप
वाल्मीकि-रामायण के गौड़ीय और पाश्चात्य संस्करणों में बालि-वध के पश्चात् तारा राम
को शाप देती है कि सीता को प्राप्त तो करोगे, किंतु वह बहुत दिनों तक तुम्हारे साथ
नहीं रहेगी। राम को सीता-निर्वासन के कलंक से बचाने के लिए इस प्रसंग की उद्भावना
हुई है। बांग्ला-रामायण, असमिया रामायण और औड़िया-रामायण में यह प्रसंग है।
बांग्ला-रामायण के लेखक ने एक पग और आगे बढ़कर दिखाया है कि रावण-वध के पश्चात
मंदोदरी भी राम को ऐसा ही शाप देती है।
राम का काम-भाव
आनंद-रामायण में सीता-निर्वासन का एक अनोखा कारण खोजा गया। राम गर्भवती सीता के
प्रति काम-भाव रखते हैं, इसलिए उन्हें आश्रम भेजा गया। सीता अपने सत्व रूप में, राम
में ही समाहित रहीं, उनका रज-तम रूप ही बनवास भोगता है। प्रकारांतर से यह
अध्यात्म-रामायण वाली छाया-सीता मानी जा सकती है।
अभी तक सीता-निर्वासन के जिन कारणों की चर्चा की गयी, उनमें निम्न दृष्टियाँ थीं-
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१. सीता-निर्वासन का
मनोवैज्ञानिक आधार खोजा गया कि उन्होंने अपहर्ता रावण का चित्र बनाया, इससे राम
को उनके चरित्र पर संदेह हुआ।
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२. राम एक लोकप्रिय शासक थे।
उन्होंने धोबी जैसे एक सामान्य नागरिक की भावना का समादर किया, ऐसा दिखाना था।
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३. राम के चरित्र पर कलंक न
रह जाए, इसके लिए कारण गढ़े गये कि तारा-मंदोदरी ने शाप दिया था, देवता राम को
स्वर्ग लौटाना चाहते थे, या राम पिता की आयु को भोगते हुए सीता के साथ नहीं
रहना चाहते थे, या राम गर्भवती सीता के प्रति काम-भाव रखते हैं, इसलिए साथ नहीं
रखना चाहते।
लोकापवाद
लोकापवाद के कारण राम द्वारा सीता का परित्याग अधिक सत्य प्रतीत होता है।
वाल्मीकि-रामायण के अनुसार गर्भवती सीता ने तपोवन देखने की इच्छा प्रकट की थी। राम
उन्हें आश्वस्त कर मित्रों के पास आये। भद्र नामक गुप्तचर ने उन्हें बताया कि राम
ने सागर पर पुल बनाया और रावण का संहार किया, इससे उनकी प्रशंसा हो रही है, किंतु
उन्होंने रावण की लंका में रही सीता को कैसे अपना लिया। हमें भी अब स्त्रियों की
ऐसी बातें सहनी पड़ेंगी, क्योंकि जैसा राजा करता, प्रजा उसका अनुकरण करती है। ये
बातें चौराहे, बाजारों, सड़कों, वनों-उपवनों में कही जा रही हैं।
राम ने तीनों भाइयों को बुलाकर आँखों में आँसू भरकर कहा, ‘‘पुरवासी और जनपद-वासी
सीता से और मुझसे घृणा करते हैं, यह घृणा मेरा मर्म बेध रही है। मेरी अंतरात्मा
सीता को शुद्ध मानती है। लक्ष्मण, तुम कल सीता को तमसा के तट पर वाल्मीकि-आश्रम के
निकट छोड़ आओ। तुम्हें मेरे चरणों और प्राणों की शपथ है।’’
लक्ष्मण सीता को रथ में बिठाकर तपोवन दिखाने के बहाने ले चले। पहली रात गोमती तट पर
बीती। दूसरे दिन दोपहर तक वे गंगा के तट पर पहुँच गये। नौका द्वारा गंगा पार कर
लक्ष्मण जोर से रो पड़े। उन्होंने चकित और चिंतित सीता को बताया- देवि, बुद्धिमान
होकर भी राम ने मुझे तुम्हें जंगल में छोड़ आने का निंदनीय कार्य सौंपा है। इससे तो
मेरी मृत्यु हो जाती वही अच्छा था।
लक्ष्मण से वस्तु-स्थिति जानकर वे अचेत हो गयीं। चेत में आने पर वे विलाप करने
लगीं। बहुत ही घबराहट का अनुभव करते हुए भी उन्होंने कहा, ‘‘राम से कह देना वे ही
मेरी परमस्मृति हैं। जो अपवाद फैल रहा है, उसे दूर करना मेरा भी कर्तव्य है।
लक्ष्मण, जाने से पहले देखे जाओ, मैं गर्भवती हूँ।’’
लक्ष्मण ने माथा टेककर प्रणाम किया, रोते हुए उनकी परिक्रमा की और कहा, ‘‘निष्पाप
पतिव्रते, मैंने आपके चरणों को छोड़ कभी आपका रूप नहीं देखा तो इस समय वन में आपको
कैसे देख सकता हूँ।’’
बालकों से लक्ष्मी जैसी किसी सुंदरी के बारे में जानकर वाल्मीकि सीता के पास पहुँचे
और उन्हें बेटी की तरह अपने आश्रम में ले आये।
लक्ष्मण ने अयोध्या लौटकर पाया कि राम ने चार दिन कोई राजकाज नहीं किया है। संभवतः
उन्होंने चार दिनों तक भोजन और निद्रा का परित्याग कर दिया था।
नैमिषारण्य में गोमती के तट पर राम ने अश्वमेध-यज्ञ आरंभ किया। धर्मानुष्ठान में
धर्मपत्नी की आवश्यकता होती है। राम ने अपने पार्श्व में सीता की कंचन प्रतिमा
स्थापित की। वाल्मीकि ने सीता के दोनों पुत्रों को यज्ञशाला में रामायण-गान के लिए
भेजा। राम रामायण-गान सुनकर प्रभावित हुए, वे जान गये कि ये सीता-पुत्र हैं।
उन्होंने वाल्मीकि से कहला भेजा- यदि सीता शुद्ध हो तो प्रातःकाल यहाँ आकर शपथ ले।
वाल्मीकि ने कई नरेशों, ब्राह्यणों और सभी वर्गों की उपस्थिति में दोनों बाँहें
उठाकर कहा,‘‘मैंने कभी झूठ नहीं बोला। यदि सीता दुष्ट चरित्र हो तो मेरे हजारों
वर्ष का तप नष्ट हो जाए। तुमने अपनी प्रियतमा को शुद्ध जानते हुए भी लोकापवाद के भय
से छोड़ा है।’’
राम ने इस तथ्य को स्वीकार किया, तथापि उन्होंने शपथ द्वारा विशुद्धता प्रमाणित
करने की बात कही। विशाल समुदाय के समक्ष गेरुए वस्त्र पहने सीता ने हाथ जोड़ सिर
नीचा कर त्रिशपथ ली कि यदि उन्होंने
मनसा-वाचा-कर्मणा राम को छोड़ किसी अन्य पुरुष का ध्यान किया हो तो पृथ्वी देवी मुझे
गोद में ले लें-
तथा म माधवी देवी विवरं दातुमर्हति।
वाल्मीकि का लोकापवाद ही सीता-निर्वासन का सत्य कारण प्रतीत होता है। स्पष्ट है कि
राम को सीता के चरित्र पर तनिक भी संदेह नहीं था, जैसा कि चित्र-वृत्तांत और
रजक-प्रसंग में व्यक्त हुआ है।
कुछ लोग सीता-निर्वासन के संदर्भ में राम पर निम्न आरोप
लगाते हैं-
१. जब सीता की अग्नि-परीक्षा हो चुकी थी, तब दुबारा परीक्षा क्यों ली गयी?
परीक्षा बहुत दूर लंका में हुई थी। तब संचार माध्यम बहुत विकसित नहीं हुए थे।
अयोध्या की प्रजा विश्वास नहीं कर पा रही थी।
२. राम सीता को प्रजा मानकर न्याय करते।
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(क) घर के व्यक्ति के साथ
न्याय कैसे किया जाता? लोग तो यही कहते रहे कि अपनी पत्नी थी, इसलिए नहीं
त्यागा।
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(ख) राम ने राजा बनकर दंड
दिया, पति बनकर स्वयं दंड भोगा। जीवनभर सीता के बिना छटपटाते रहे। वे चाहते तो
असंख्य सुंदरियों का पाणिग्रहण कर सकते थे। उन्होंने धर्मानुष्ठान किये तो सीता
की कंचन प्रतिमा को बायीं ओर स्थापित किया।
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(ग) सीता की संतान को सम्राट
बनाना था। यह तब होता, जब सीता निष्कलंक सिद्ध होतीं। इसीलिए उन्हें
वाल्मीकि-आश्रम के निकट छुड़वाया था, यहाँ-वहाँ जंगल में नहीं।
३. अष्टम एडवर्ड की तरह राज्य
त्याग देते।
राम लोकाराधन के लिए, जनमत को सम्मान देने के लिए स्वयं तिल-तिल कर जलते रहे,
प्राण-प्रिया पत्नी को भी जलाते रहे। ऐसा शासक धन्य है। यदि यह यंत्रणा-दायक आदर्श
प्रस्तुत न हुआ होता तो राम बहुत कुछ विस्मृति के गर्त में चले गये होते, दांपत्य
प्रेम की एकनिष्ठा का आदर्श भी तब हमारे समक्ष न रहा होता।
२० अक्तूबर २०१४ |