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                     सोनलता 
					आँखें मींचती हुई आयी और अपनी माँ से कहने लगी- “आज मैंने फिर वही सपना देखा।”
 सोनलता की माँ प्रेमलता ध्यानमग्न होकर सूर्य को अर्घ्य दे रही 
					थी। तुलसी के चौतरे पर घी का दिया जल रहा था और धूप बत्ती की 
					सुगंध से वातावरण सात्विक बना हुआ था। सुबह के छः बजे थे। हवा 
					में हल्की ठंडक अब भी थी और प्रेमलता एक झीनी साड़ी में लिपटी 
					कोई मंत्र बुदबुदा रही थी।
 “आज भी माँ मेरी बात नहीं सुनेगी” सोनलता कोई बाधा दिये बिना 
					अपने कमरे में लौट आयी और मन ही मन कहने लगी- “ऐसी भी कोई 
					ज़िंदगी होती है।”
 
 वह सोलह साल की हो गयी थी और अब वह अपने लिये एक विस्तृत आकाश 
					चाहती थी। उसने अपने कमरे की खिड़की खोल दी और आकाश की ओर देखने 
					लगी। नीले आसमान में सफ़ेद सफ़ेद कुछेक बादल के टुकड़े फैले थे, 
					समुद्र की लहरों पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें अधखेलियाँ करने 
					लगी थीं, वह समझ गयी कि आज का दिन सुहाना होगा। वह कुछ और 
					सोचती कि उसने अपनी माँ को रसोईघर की ओर जाते देखा। वह गहरी 
					सोच में पड़ गयी। उसे वह दिन याद आ गया जब वह सात साल की थी और 
					उसकी माँ उसे उसके पिता के महलनुमा घर से इस गोदाम में ले आयी 
					थी। उसे यह भी याद था कि बुआ ने उसकी माँ से कहा था- “तुम जैसी 
					डाइन औरत जो अपने पति को खा गयी मेरे भाई के घर में रहने के 
					लायक़ नहीं है। हम सोनू के खातिर तुम्हें यह गोदाम दे रहे हैं 
					लेकिन जिस दिन सोनू यह घर छोड़ेगी तुम्हारा भी ठिकाना यहाँ से 
					उठ जाएगा। जाओ और अपना मनहूस चेहरा हमें कभी मत दिखाना।”
 
 उसका चाचा भी नफ़रत और उपेक्षा भरी नज़रों से देखता हुआ पास में 
					खड़ा था। बाद में उसकी माँ ने इस गोदाम को भीतर से घर की शक्ल 
					तो दे दी थी लेकिन बाहर अब भी झाड़ झंखाड़ और जंगली घास अटे पड़े 
					हैं। विधवा और अनाथ पेंशन से हमारा गुज़र बसर तो हो जाता है, 
					लेकिन कब तक?
 
 सोनलता को सजना सँवरना बहुत पसंद है, वह मन मसोस कर रह जाती 
					है। उसे बार बार बचपन का किस्सा याद आता है जब उसके पिता कहते 
					थे कि दिवाली की रात को जब सब लोग सो जाते हैं तब माँ लक्ष्मी 
					सोने के रथ पर सवार होकर घर-घर यह देखने आती है कि किस प्रकार 
					लोग उसकी अगवानी में बंदनवार सजाये हैं। आधी रात के बाद जो 
					द्वार खुला मिलता है और जहाँ उसकी पूजा हुई होती है, दिये जलते 
					देखती है तो उस घर में वह हमेशा के लिये वास कर जाती है। 
					सोनलता बार बार यह सपना देखती है कि लक्ष्मी देवी सोने के रथ 
					पर सवार होकर तो आती है लेकिन उसके घर में अँधेरा देखकर वापस 
					चली जाती है।
 
 वह मन ही मन कुछ ठानकर अपनी माँ के पास रसोई में गयी और बिना 
					भूमिका बाँधे ही बोली -
 “माँ, कुछ ही दिनों में दिवाली का त्योहार है, क्यों न हम उस 
					रात को लक्ष्मी पूजा रखें। मैंने सपने में...”
 “बकवास बंद करो और अपने कॉलेज जाओ!” प्रेमलता ने उसे बुरी तरह 
					डाँट दिया। सोनलता उदास हो गयी, घर से तो वह निकल गयी मगर उसे 
					कॉलेज जाने की बिल्कुल इच्छा न हुई।
 
 बृज गाँव में भगवान के पुल (मोरिशस के पूर्वी प्रांत में 
					स्थित) के पास एक मंदिर है, श्रीसंत वहाँ का पुजारी है। वह 
					बहुत बदनाम है। लोग कहते हैं कि वह औरतों के साथ बहुत मज़ाक 
					करता है, बहुत ही मुँहफट है। उसका ससुर देश का बहुत बड़ा पंडित 
					है इस कारण कोई उसके खिलाफ़ कुछ नहीं बोलता। सोनलता जब भी उदास 
					होती है मंदिर में चली जाती है और श्रीसंत से अच्छी-अच्छी कथा 
					सुनकर मन हल्का कर लेती है। श्रीसंत उसे अपनी बेटी की तरह 
					चाहता है। सोनलता की समझ में आज तक यह बात नहीं आयी कि गाँव की 
					सारी औरतें तो श्रीसंत से खूब हँसी मज़ाक करती हैं फिर वह बुरा 
					क्यों है? अगर श्रीसंत बुरा है तो गाँव की औरतें भी उस बुराई 
					में बराबर की भागीदार हैं।
 
 सोनलता अपने ख्यालों में खोयी खोयी मंदिर की सीढ़ी पर बैठ जाती 
					है। श्रीसंत पूजा-पाठ कर जब बाहर आता है तो सोनलता को उदास 
					बैठे देख समझ जाता है कि उसने फिर सोने के रथ वाला सपना देखा 
					है। वह उसे मंदिर के अंदर ले जाता है, माता लक्ष्मी के चरणों 
					के फूल सोनलता के हाथ में रखकर कहता है-
 “सोनलता, तुम इस दिवाली में लक्ष्मी पूजा अपने घर में करो।”
 “माँ कभी नहीं मानेगी बाबाजी”
 “दिवाली आने में अभी देर है, तुम मन ही मन लक्ष्मी पूजा का 
					संकल्प कर अपने घर आँगन की सफ़ाई करो, मैं सवा रुपये की दक्षिणा 
					में ही पूजा कर दूँगा लेकिन...! हाँ तुम्हें पूजा के सामान का 
					जुगाड़ करना होगा”।
 “कर दूँगी बाबाजी”
 
 सोनलता खुश होकर उछल पड़ी। उसी शाम को उसने मंदिर में घी का एक 
					दीपक जलाकर मन ही मन लक्ष्मी पूजा का संकल्प किया और माता को 
					अपने घर आने का निमंत्रण दिया। उस दिन के बाद वह खुश रहने लगी। 
					कॉलेज से आकर वह अपने घर के चारों ओर की झाड़ियों को काटती, घर 
					के भीतर बाहर झाड़ू लगाकर साफ करती। उसकी माँ उसे टोकती-
 “सोनू, अपनी पढ़ाई छोड़कर तुम किस काम में लगी हो?”
 “कुछ नहीं माँ, काँटे की कितनी झाड़ियाँ उग आयी हैं, कितना 
					अँधेरा रहता है यहाँ?”
 “यह अँधेरा ही मेरी ज़िंदगी है सोनू, इसे मत काटो।”
 “माँ! तुझे मैं इस अभिशाप से छुड़ा कर रहूँगी।” सोनलता भावुक हो 
					गयी।
 
 दिवाली आने में अभी पाँच दिन बाकी थे। चूँकि वह अपनी माँ से 
					पूजा के लिये कहने से डरती थी इसीलिये उसके पास पूजा की 
					सामग्री खरीदने के लिये एक भी पैसा न था। वह जिससे भी उधार 
					माँगने गयी सबने उसका मज़ाक उड़ाया। वह थकी हारी अपने आँगन में 
					बैठी थी कि मदालसा नाम की भिखारिन भीख माँगने आयी। वह सोनलता 
					को बचपन से जानती थी। उसने इसके परिवार के सुख के दिन देखे थे। 
					वह जब भी बृज गाँव में आती तो सोनलता और उसकी माँ को देखने चली 
					आती। वह किसी की परवाह नहीं करती कि कौन प्रेमलता को क्या कहता 
					है। मदालसा ने सोनलता से उसकी उदासी का कारण पूछा और अपनी जेब 
					से तीन सौ रुपये निकालकर उसकी हथेली पर रखते हुए कहा-
 “लो, इसे भीख न समझना, तुम्हें उधार दे रही हूँ। जब लक्ष्मी 
					तुम पर कृपा बरसाएगी तो मुझे पैसे लौटा देना।”
 “लेकिन मदालसा नानी! मेरी माँ कभी नहीं मानेगी।”
 “मानेगी, मैं तुम्हारी माँ को समझाने जा रही हूँ। तुम जाओ पूजा 
					की सामग्री खरीद लाओ।”
 
 सोनलता जब पूजा का सामान खरीदकर घर के भीतर आयी तो मदालसा जा 
					चुकी थी। उसकी माँ ने हालाँकि कोई सवाल जवाब नहीं किया लेकिन 
					सोनलता को पूजा करने से रोका नहीं। दिवाली के तीन दिन पहले ही 
					श्रीसंत ने सोनलता के यहाँ आकर कलश स्थापना की और वरुण पूजा कर 
					धन्वन्तरी का घट जड़ी बूटियों से भरकर घर के देवस्थान पर 
					स्थापित किया। दूसरी रात को सोनलता ने चौदह दिये जलाकर यम पूजा 
					की और तीसरे दिन सोनलता के उत्साह का कोई ठिकाना न था। उसने 
					अपने हाथों से खीर पूरी हलवा और बहुत सी मिठाई बनायी। उसके पास 
					ज्यादा दीपक थे ही नहीं अतः उसने केले के फूलों के कटोरे तोड़कर 
					दिये बाती का इंतज़ाम कर लिया। खुद सजी और लक्ष्मी की अगवानी के 
					लिये अपने घर की बैठक में फूलों का आसन बनाया। उसपर उसकी छोटी 
					सी मूर्ति को कमल पर बिठा दिया। गहने के नाम पर उसके पास फूल 
					के सिवाय कुछ नहीं था। सोनलता ने स्वयं भी फूलों से अपना 
					श्रृंगार किया और लक्ष्मी को भी फूलों के गहने पहनाए। 
					दीपमालिका सजायी और लक्ष्मी को खीर पूरी का भोग लगाया। उसके 
					बाद आँखें बंद किये ध्यानमग्न होकर लक्ष्मी माता से वार्तालाप 
					करने लगी।
 
 कब शाम हुई, कब गाँववालों ने दीये जलाये आतिशबाज़ियाँ छोड़ीं 
					सोनलता को कोई होश न रहा।
 रात के पूजा पाठ से अवकाश पाकर श्रीसंत जब सोनलता के घर आया तो 
					उसे ध्यानमग्न देखकर उसकी आँखें श्रद्धा से भर आईं उसने हाथ 
					जोड़कर कहा-
 “हे माता! तुम अपनी कृपा सोनलता पर ज़रूर बरसाना।”
 श्रीसंत ने गणेश, सरस्वती कुबेर सहित लक्ष्मी की पूजा की, 
					दिकपालों का आह्वान किया और धान की खील से लक्ष्मी सहस्रनाम की 
					आहुति दी। रात के जब चार पहर बीतने लगे तब श्रीसंत ने कहा-
 “सोनलता, तुम घर का कूड़ा चौराहे पर फेंक आओ और कहना कि- 
					"अलक्ष्मी जाओ, लक्ष्मी तुम मेरे घर आओ” जब सोनलता उठी तब 
					प्रेमलता ने उसे आसन से उठते हुए मना किया और खुद चौराहे पर 
					कूड़ा फेंकने चली गयी। पूजा समाप्ति के बाद सोनलता ने श्रीसंत 
					को फल फूल और सवा रुपये की दक्षिणा दी। श्रीसंत उसे बहुत सारे 
					आशीर्वाद देकर चला गया।
 
 दूसरे दिन गाँव में अफ़वाह फैली कि प्रेमलता के घर आधी रात के 
					बाद तांत्रिक पूजा हुई है और गाँव के चौकीदार ने प्रेमलता को 
					चौराहे पर कुछ फेंकते देखा है। इसे दुर्योग ही कहा जाए कि 
					दिवाली के ठीक तीन दिन बीतने के बाद एक भयंकर बस दुर्घटना हुई 
					जिसमें बहुत से लोगों की मृत्यु हो गयी। सारा दोष प्रेमलता पर 
					आया कि उसकी तांत्रिक क्रिया के कारण इतनी बड़ी दुर्घटना हुई। 
					देखते ही देखते बहुत से लोग प्रेमलता के यहाँ जमा हो गये और 
					सोनलता की बुआ ने प्रेमलता को बहुत मारा उसके घने लम्बे बालों 
					को काट दिया। उसपर गंदा पानी डाला। किसीने भी माँ-बेटी की बात 
					नहीं मानी। सोनलता गुहार करती रह गयी। प्रेमलता इस अपमान को सह 
					न सकी और फाँसी लगा ली।
 
 सोनलता की बुआ ने चाहा कि वह उसके पास आकर रहे लेकिन सोनलता 
					अपना घर छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहती थी, वह जानती थी कि उसकी 
					माँ निर्दोष थी। उसे गाँववालों से नफ़रत हो गई थी वह मंदिर भी 
					नहीं जाती, कॉलेज जाना छोड़ दिया। इसी प्रकार एक साल गुज़र गया। 
					घर आँगन में फिर से काँटेदार झाड़ उग आये पर सोनलता को विश्वास 
					था कि दिवाली की रात लक्ष्मी माता सोने के रथ पर सवार होकर 
					उसके आँगन में ज़रूर आयी थी। वह नित्य माता का मन ही मन आह्वान् 
					करती। उसका सुंदर गोरा रंग मुर्झाकर पीला पड़ गया। वह रोज़ भगवान 
					के पुल पर जाती और पूर्व दिशा की ओर दूर समुद्र की प्रवाल रेखा 
					को देखा करती। उसी पुल के नीचे एक गुफ़ा है. वहाँ विदेशी अक्सर 
					आते हैं. एक दिन इवान नाम का एक विदेशी युवक सोनलता पर मोहित 
					हो गया और उसे ब्याह कर अपने देश ले गया।
 
 जिस दिन सोनलता की शादी हुई उसी दिन उसने सपने में देखा कि 
					लक्ष्मी माता सोने के रथ पर सवार होकर भगवान के पुल पर खड़ी है। 
					उसने अपने सपने के बारे में जब अपने पति इवान को बताया तो इवान 
					ने उस जगह पर एक छोटा सा सुंदर मंदिर बनवाया जिसमें सोने के रथ 
					पर सवार माता लक्ष्मी की सोने की मूर्ति थी। सोनलता ने मंदिर 
					की चाबी श्रीसंत को दे दी। गाँव के लोग सोनलता के गुण गाते 
					नहीं अघाते, लोग उसे ही साक्षात लक्ष्मी का रूप मानने लगे। 
					उसकी बुआ ने बहुत चाहा कि वह अपने पति के साथ हमेशा के लिये 
					उसके यहाँ रह जाए लेकिन इवान ने बड़ी विनम्रता से उस प्रस्ताव 
					को ठुकरा दिया। हालाँकि प्रेमलता के साथ बहुत बुरा हुआ था, 
					उसका दोष सिर्फ़ इतना ही था कि वह अपनी जवानी के आधे वसंत में 
					ही विधवा हो गयी थी और ससुराल वालों ने उसे डायन मान लिया 
					जिसका समर्थन
  गाँववालों ने पूर्णरूपेण किया था, सोनलता ने अपनी 
					नयी ज़िंदगी शुरू करने से पहले सबको माफ़ कर दिया था। 
 इंसान चाहे कुछ भी करे.......लेकिन कहते हैं कि प्रकृति एक एक 
					पल का हिसाब लेती है। जिस दिन सोनलता अपने पति के साथ अपने 
					ससुराल के लिये रवाना हुई उसी रात बृज गाँव में भयंकर रूप से 
					बरसात हुई और सालाज़ी पहाड़ से बाढ़ का इतना पानी उतरा कि लक्ष्मी 
					का मंदिर बह गया। सोने की मूर्ति गुफ़ा के अंदर चली गई गाँव में 
					किसी के नसीब में वह मूर्ति नहीं आयी। आज भी कुछ साहसी लोग 
					गुफ़ा के अंदर सोने के रथ ढूँढ़ने जाते हैं मगर कभी वापस नहीं 
					आते।
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