हैलोवीन का त्यौहार
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कादंबरी मेहरा
अक्टूबर की ३१ तारीख को पूरे ब्रिटेन
और अमेरिका व अन्य कई देशों में हैलोवीन का त्यौहार
मनाया जाता है। इस रोज़ बच्चे व युवा भूत प्रेतों के
स्वाँग रचा कर घर घर ''ट्रिक या ट्रीट '' माँगने जाते
हैं। कई लोग पार्टियाँ भी रखते हैं और गुल गपाड़ा
मचाते हैं। इस रोज़ आतिशबाजी की जाती है जो कि अभी
पिछले दस सालों से काफी फैशन में आ गयी है।
"ट्रिक या ट्रीट" का मतलब ये होता है कि बच्चे किसी का
भी दरवाज़ा खड़का कर पूछते हैं कि तुम्हें ट्रिक करें
(शरारत करें, उल्लू बनाएँ) या तुम हमें कुछ ट्रीट
(भेंट) दोगे। अक्सर गृहस्थ उन्हें कुछ पैसे देकर टरका
देते थे। पर ज़माना ख़राब आ गया है। बच्चे पैसों का
दुरुपयोग करने लगे। बड़े बच्चे छोटों को मार पीट कर
अक्सर पैसे हथिया लेते थे। आतिशबाजियाँ खरीद कर बिना
किसी वयस्क को बताये खुद जला लेते थे जिससे कई
दुर्घटनाएँ हो गईं। अतः सरकार ने ऐसे रिवाजों के
विरुद्ध काफी प्रचार किया। अब लोग बिस्कुट चोकोलेट आदि
देकर विदा कर देते हैं।
बाज़ार हैलोवीन से सम्बंधित खिलौनों पोशाकों व मुखौटों
से पट जाते हैं। पार्टी का सभी सामान हैलोवीन की थीम
पर बना हुआ आने लगा है। मगर अभिभावक अपनी देख रेख में
इन्हें आयोजित करते हैं।
जब मै इस देश में नई नई आई थी मेरे एक सहयोगी टीचर ने
मुझे बताया की हमारा यह त्यौहार भारत की दीवाली के
समकक्ष है। इसे इस देश का दीपोत्सव कहा जा सकता है और
कहीं सुदूर अतीत में इसका जन्म उन्हीं कारणों से हुआ
था जिन से भारत की दीवाली बनी। यही नहीं ,इसके
जन्मदाता भी कदाचित वही लोग थे जो भारत की ओर से आये
थे कदाचित ईसा से तीन हजार वर्ष पहले यह लोग केल्ट
कहलाते थे। इनके पण्डे पुजारी द्र्युइद्स कहलाते थे।
यह शब्द भारत के द्रविड़ शब्द से मिलता है। जिस प्रकार
आर्य जाति का जन्म कहाँ हुआ यह निश्चित नहीं हो सका
उसी तरह द्र्युइद्स और केल्ट जाति का उद्गम नहीं पता,
परन्तु भाषा के अनेक शब्द, स्थानों व नदियों के नाम इस
साम्य को सिद्ध करते हैं। केल्ट लोग सूर्य पूजक थे।
फसलों की खुशहाली के लिए प्रकृति की शक्तियों को देवी
देवता मान कर उनकी पूजा करते थे। इसके अलावा वह अपने
पूर्वजों की आत्मा को भी जगाते थे ताकि वह उनकी अगली
फसल को अपना आशीर्वाद देवें। ऐसा सिद्ध होता है की यह
लोग मध्य एशिया से आकर आयरलैंड, बर्तानिया और उत्तरी
फ़्रांस में बस गए थे। मूलतः यह त्यौहार अँधेरे की
पराजय और रौशनी की जीत का उत्सव है। तमसो माँ
ज्योतिर्गमयः!
नवंबर मास की पहली तारीख को केल्ट जाति का नया साल
शुरू होता था। नए साल में कटी हुई फसल की खुशी मनाई
जाती थी। उसके एक रोज़ पहले, ३१ अक्टूबर को, '' साओ इन
'' का त्यौहार मनाते थे। इस रोज़ जीवन और मृत्यु के
बीच की सीमा विलय हो जाती थी, ऐसा केल्ट लोगों का
मानना था। मरे हुए लोगों की आत्माएँ धरती पर विचरने
आतीं थीं। उनके सहयोग से यह बताना आसन हो जाता था की
अगला वर्ष कैसा बीतेगा। उन्हें खुश करना बहुत जरूरी था
क्योंकि उनके कोप से अगला वर्ष और फसल खराब हो सकते
थे। इसलिए उनकी पूजा होती थी। किस्सा कोताह ये की
बदमाशों को खुश रखो ताकि वे तुम्हारा नुकसान न करें।
सूरज को ताकत मिले इसलिए 'द्रूइद्स' पहाड़ी पर जाकर आग
जलाते थे फिर इस आग का एक एक अंगारा गृहस्थ अपने अपने
घर ले जाते थे और नए साल की नई आग जलाते थे।
याद रखें कि उस जमाने में आग जलाने की माचिस का
अविष्कार नहीं हुआ था। घर में जली आग को लगातार ज़िंदा
रखना पड़ता था। इस रोज़ जो पहाडी पर अलाव जलाया जाता
था उसमें जानवरों की बलि दी जाती थी और कटी फसल का भाग
जलाया जाता था जैसे आर्य जाति के लोग भी करते थे। इसे
सामूहिक हवन ही समझ लीजिये। हवन की आग का अंगारा घर ले
जाने तक हवा बारिश से बुझ न जाए इसलिए उसे किसी फल में
छेद करके उसमें सहेज कर ले जाया जाता था। आग को हाथ
में देखकर बुरी आत्माएँ वार नहीं करेंगी। ऐसा भी
विश्वास था। जब यह त्यौहार ईसाई लोग अमेरिका ले गए तो
वहाँ कद्दू बहुतायत से होते थे। कद्दू को खोखला करके
उसमें दीवा रखना बहुत आसान था और रात के अँधेरे में
अगर उसमे आँखें और मुँह काट कर दीवा जलाओ तो एकदम
डेविल का सिर जैसा लगता है। इसे पेड़ पर टांग दिया
जाता है। ब्रिटेन में इसे खिड़की पर रख दिया जाता है।
इसी समय से शुरू होतीं थीं सर्दियाँ, बर्फबारी और भोजन
की किल्लत। पूर्वजों की आत्माओं के आदेश,
भविष्यवाणियाँ आदि कठिन जाड़े में मानसिक संबल देने के
लिए जरूरी होते थे।
हम बात कर रहे थे ईसापूर्व ब्रिटेन की। अब थोड़ा सा अलग
दिशा में चलकर वापिस आते हैं।
रोम देश में फरवरी की १३ तारिख से २१ तारीख तक
रोम के निवासी पेरेन्तालिया का त्यौहार मनाते थे। यह
भी बात २००० वर्ष पहले की कर रहे हैं। यह नौ रोज़
पुरखों को समर्पित किये जाते थे। न कोई अच्छा काम हो
सकता था इन दिनों में ना कोई शुरुआत। रखने वाले व्रत
भी रखते थे। नवें रोज़ मरी आत्माओं को चढ़ावा दिया
जाता था। लोग मरघट में या शहर से बाहर जाकर यह
अनुष्ठान करते थे। याद रखें कि प्राचीन रोम में
मुर्दों को जलाया जाता था। दसवें रोज़ घर का मुखिया
अपने सारे परिवार भाई बहनों को बुलाकर दावत देता था।
घर की शुद्धि करता था।
कालांतर में रोम के सम्राटों ने ईसाई धर्म अपना लिया।
ईसाई धर्म ने सभी प्राचीन देवी देवताओं का बहिष्कार कर
दिया। पुरखों की वंदना के बदले ईसाई संतों की वन्दना
करने का विधान बना दिया। तो फरवरी की २१ तारीख को बजाय
पुरखों को पिंड दान करने के संतों का आवाहन किया जाने
लगा। नौ के बजाय सिर्फ एक रोज़ बुरी आत्माओं को भगाने
का निश्चित किया गया। इसे कालरात्रि कहा गया और उसके
अगले रोज़ उन संतों का समवेत उत्सव मनाने का विधान बना
दिया जिनकी जन्म की तारीख नहीं पता थी। इसे आल सेंट्स
डे कहा जाने लगा। ईसा के जन्म के चार सौ साल बाद
ब्रिटेन में ईसाई धर्म आया। रोम के सम्राट ने ब्रिटेन
पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद जोर जबरदस्ती लोगों को पकड़
पकड़ कर ईसाई बनाया गया। पुराने धर्म को ''विचक्राफ्ट''
कहकर उसकी तौहीन की गई और अगर किसी ने नया धर्म मानने
से इंकार कर दिया तो उसे मौत के घाट उतार दिया गया।
पुराने धर्म में जो पहली नवम्बर को नया साल शुरू होता
था, जिसमें लोग सूरज चाँद और वन्य देवों देवियों को
पूजते थे, अपने पुरखों की आत्माओं को पूजते थे, उसकी
जगह आल सेंट्स डे यानि '' हैलोमस" जोड़ दिया गया। "आल
सेंट्स डे,'' "हैलोमस'' के साथ जो पेरेन्तालिया का बचा
खुचा स्वरूप था वह केवल एक दिन था। उसे ''हैलो ईवनिंग
'' कहा जाने लगा। कालांतर में यह ''हैलो ईवनिंग'' से
घिस कर ''हैलो इवेन'' रह गया और फिर घिसते घिसते केवल
''हैलोवीन'' रह गया।
ज़माना २००० साल तक कई मोड़ तोड़ लेकर चलता आया। जा
पहुँचा आज तक। ईसाई धर्म के अनुयायी धर्म कर्म से बाज
आये। न किसी को याद रहा पेरेन्तालिया न याद रहा आल
सेंट्स डे। याद रहा तो बस फन- मज़ा। हैलोवीन के त्यौहार
में भूत प्रेतों के स्वाँग की मस्ती "trick or treat"
की मस्ती। बहुत दिनों तक इसका भी प्रचलन हल्का सा ही
रहा। अच्छे ईसाई इसे नॉन क्रिश्चियन त्यौहार मानते
रहे। परन्तु अमेरिका में यह बड़ा त्यौहार होने लगा। अब
आजकल ब्रिटेन में इसे फिर से प्रधानता मिल गयी है।
अनेक देशों से अनेक जातियों के लोगों के रिवाज फसल
कटाई के उत्सव से सम्बंधित हैं खासकर दीवाली जो कि
अक्टूबर मास में आती है ज्यादातर इन सभी के समकक्ष
ब्रिटेन का हैलोवीन फसल कटाई का ही त्यौहार होता आया
है। दिये जलाना फलों को सजाना। अँधेरे पर उजाले की
विजय आदि सब सामान्य रिवाज हैं। हमारे देश में भी
दीवाली के दिनों में बच्चे घर घर जाकर टेसू और झाँझी
के गीत गाते हैं और मिठाई माँगते हैं।
टेसू मेरे यहीं अड़े
खाने को माँगें दही बड़े
दही बड़े मिलते नहीं
टेसू मेरे हिलते नहीं
अब यह क्या ''ट्रिक या ट्रीट'' से कम है? दिए बिना जाँ
नहीं छोड़ते।
और दीवाली से एक रोज़ पहले छोटी दीवाली को, पैरों में
घुँघरू बाँध के छम छम करती भयानक चेहरे वाली काली माई
किसे नहीं याद आई?
हमारी दीवाली भी मूलतः फसल कटाई का त्यौहार है। चावल
यानी धान की फसल कट कर बाजारों में आती है। अन्य तरह
के अनाज और फल बहुतायत से उपलब्ध होते हैं। धान शब्द
से ही निकला है धन, और धन शब्द से बना धन्य! धन्य माने
अमीर यानि ऐसा व्यक्ति जो बाँट सके और सबकोखुश करके
पुण्य कमा सके। धन्य से बना धनी। इसलिए देवी लक्ष्मी
को धान की खीलों का भोग लगाया जाता है।
हमारी दीवाली से सम्बन्धित दंतकथाएँ भी अनेक हैं।
दीवाली से एक रोज़ पहले नरकासुर का वध होता है और
इसलिए सारा घर धोया पोंछा जाता है। यह और कुछ नहीं
केवल बुरी आत्माओं का निष्कासन है। नालियाँ साफ़ करके
मोरियों में से जाले हटाये जाते हैं और दिया रखा जाता
है ताकि देवी लक्ष्मी जिस रास्ते से चाहें घर में
घुसें। यह देवी लक्ष्मी क्या उन अच्छी आत्माओं का
रूपांतर नहीं जिनको केल्ट जाति के लोग आमंत्रित करते
थे अपने भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए?
इस लेख को लिखने का मेरा उद्येश्य केवल यही है कि हम
अपनी संस्कृति की प्राचीनता को समझें और महत्व दें। हम
धन्य होना सीखें और बाँटें। न कि अपने एन आर आई बंधु
बाँधवों की नक़ल में विदेशी रिवाजों का अन्धानुकरण
करें।
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं
गमय। |