इस सप्ताह- |
1
अनुभूति
में-
पंकज परिमल, सूबे सिंह चौहान, ओम प्रकाश, तोता राम सरस और राजेश
कौशिक
की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- हमारी रसोई - संपादक शुचि द्वारा इस अंक में
प्रस्तुत है- पाठकों के आग्रह पर-
दही जमाने की सर्वोत्तम विधि। |
गपशप के अंतर्गत- दाँत हमारे स्वास्थ्य और सौंदर्य को बनाए रखने
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिये आवश्यक है कि हम हमेशा रखें-
दाँतों से दोस्ती। |
जीवन शैली में-
शाकाहार एक लोकप्रिय जीवन शैली है। फिर भी
आश्चर्य करने वालों की कमी नहीं।
१४
प्रश्न जो शकाहारी सदा झेलते हैं- ११
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सप्ताह का
विचार- विश्व-में अग्रणी भूमिका निभाने की
आकांक्षा रखनेवाला कोई भी देश शुद्ध या दीर्घकालीन अनुसंधान की उपेक्षा नहीं
कर सकता। - होमी भाभा |
- रचना व मनोरंजन में |
क्या-आप-जानते-हैं- कि आज के दिन
(१ सितंबर को) १८९६
में प्रभुपाद, १९०९ में फादर कामिल बुल्के, १९१५ में राजेन्द्र सिंह बेदी, १९७३
में राम कपूर...
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धारावाहिक-में-
लेखक, चिंतक, समाज-सेवक और
प्रेरक वक्ता, नवीन गुलिया की अद्भुत जिजीविषा व साहस से
भरपूर आत्मकथा-
अंतिम विजय
का चौथा भाग। |
वर्ग पहेली-२००
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि-आशीष
के सहयोग से |
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
विशेषांकों की समीक्षाएँ |
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साहित्य एवं
संस्कृति
में- |
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है यू.एस.ए. से
इला प्रसाद की कहानी-
आवाजों की दुनिया
गली में अभी धूप पसरी हुई थी।
गर्मियों की शाम पाँच बजे का समय कुछ नहीं होता। सूरज तब भी
सिर पर चमकता-सा लगता है, जमीन तप रही होती है। लोग घरों में
दुबके होते हैं और मोहल्ले में सन्नाटा पसरा लगता है।
इक्का-दुक्का रिक्शेवाले.... यह समय गली में पैदल चलने के
लिये, कुछ रहस्य बाँटने के लिये, दो बच्चियों को सही लगा।
‘‘माँ और मामी क्या बातें कर रही थीं ?’’
‘‘तुमने सुना नहीं?’’
‘‘नहीं न!’’
‘‘चल, बताऊँ।’’
चारु ने चंदामामा छोड़ा और रूपा के साथ हो ली।
‘‘यहीं कहाँ निकल रही हो तुम, इतनी धूप में?’’ पीछे से चारु की
माँ ने टोका।
‘‘ये बस गली के मोड़ तक। चिक्कू को घुमा लायेंगे।’’
‘‘नहीं, अभी धूप है।’’
‘‘थोड़ी दूर तो है। अच्छी हवा चल रही है। घर में बंद हैं दिन
भर। जाने दीजिये न फुआ।’’ रूपा ने चिरौरी की।
‘‘अच्छा जाओ। ज्यादा इधर-उधर मत जाना। सीधे भाभी के पास।’
आगे-
*
चीन से डॉ. गुणशेखर का
व्यंग्य- नंगमेव जयते
*
डॉ. उषा तैलंग के शब्दों
में-
महाभाव स्वरूपिणी श्री राधा
*
इला प्रसाद के कहानी संग्रह-
''तुम इतना क्यों रोईं रूपाली'' से परिचय
*
शैलेन्द्र चौहान का आलेख-
सदा सजीली गजल दुष्यंत की |
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|
अनिल कुमार मिश्र का
व्यंग्य- अभिभूत
*
डॉ. दिवाकर का
आलेख-
चूड़ियाँ- इतिहास से संस्कृति तक
*
जयप्रकाश मानस की कलम से
ललित निबंध-
जरा सुन तो लीजिये
*
पुनर्पाठ में- मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास
कस्तूरी कुंडल बसे से
परिचय
*
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
मृदुला गर्ग की कहानी-
यहाँ कमलिनी खिलती है
वीराने में दो औरतें मौन बैठी थीं। पास-पास नहीं, दूर, अलग, दो
छोरों पर असम्पृक्त। एक नजर देख कर ही पता चल जाता था कि उनका
आपस में कोई सम्बन्ध न था, वे देश के दो ध्रुवों पर वास करने
वाली औरतें थीं। एक औरत सूती सफ़ेद साड़ी में लिपटी थी। पूरी
की पूरी सफ़ेद, रंग के नाम पर न छापा, न किनारा, न पल्लू।
साड़ी थी एकदम कोरी धवल, पर अहसास, उजाले का नहीं, बेरंग होने
का जगाती थी। मैली-कुचैली या फिड्डी-धूसर नहीं थी। मोटी-झोटी
भी नहीं, महीन बेहतरीन बुनी-कती थी जैसी मध्य वर्ग की
उम्रदराज़ शहरी औरतें आम तौर पर पहनती हैं। हाँ, थी मुसी-तुसी।
जैसे पहनी नहीं, बदन पर लपेटी भर हो। बेख़याली में आदतन खुँसी
पटलियाँ, कन्धे पर फिंका पल्लू और साड़ी के साथ ख़ुद को भूल
चुकी औरत। बदन पर कोई ज़ेवर न था, न चेहरे पर तनिक-सा प्रसाधन,
माथे पर बिन्दी तक नहीं। वीराने में बने एक मझोले अहाते के
भीतर बैठी थी वह। चारों तरफ से खुला, बिना दरोदीवार, गाँव के
चौपाल जैसा, खपरैल से ढका गोल अहाता।
आगे- |
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