राधा
अष्टमी के अवसर पर
महाभाव स्वरूपिणी श्री राधा
-डॉ. उषा गोस्वामी
जयति
जयति श्रीराधिके बन्दौ पद अरविन्द।
चहत मुदित मकरन्द मृदु जेहि ब्रजचन्द कलिन्द।।
श्री राधा महाभावस्वरूपिणी है। महाभाव क्या है ?
वस्तुतः भक्त के चित्त को कृष्ण की प्रीति उल्लसित
करती है, विश्वास उत्पन्न करती है, प्रियतत्व का
अभिमान जाग्रत करती है और अतिशय इच्छापूर्वक श्री
कृष्ण के साथ युक्त करती है। चित्त को द्रवित करने
वाला प्रेम स्नेह कहलाता है। स्नेह अभिलाषा से युक्त
होने पर राग में परिणित होता है। राग गहराई से अनुभव
हो तो अनुराग कहलाता है। यह अनुराग जब सर्वोत्तम ऊँचाई
पर पहुँचता है, तब इसे महाभाव कहते हैं। यह महाभाव की
श्रीराधिका जी का ही एक रूप है, जो श्रीकृष्ण की
प्रेयसी है। श्री कृष्ण और राधा एक ही स्वरूप के दो
नाम है। भगवान् लीलामय है। उन्हें युद्धेच्छा हुई, तो
जय-विजय को श्राप मिला। तपस्या की इच्छा हुई तो वे
नर-नारायण बन गये। जब उनके मन में आराधना की इच्छा
हुई, पर वे आराधना किसकी करें ? तो उनके अन्दर से ही
श्री राधा का प्राकट्य हुआ। ब्रह्मवैवर्त पुराण में
वर्णन है कि- प्राणाधिष्ठातृ देवी सा कृष्णस्य
परमात्मनः, आविर्भूव प्राणेभ्यः प्राणेभ्योऽपि गरीयसी।
अर्थात् श्रीराधा का प्राकट्य श्री कृष्ण से हुआ और वे
श्रीकृष्ण को उनके प्राणों से भी अधिक प्रिय है।
गोलोक धाम में अवतरण-
श्री राधा के प्रागट्य के विषय में भिन्न-भिन्न उल्लेख
प्राप्त होते है। उनके प्रागट्य का सर्वप्रथम उल्लेख
गोलोकधाम में मिलता है। इस उल्लेखानुसार रासरासेश्वर
श्रीकृष्ण गोलोक के सुरम्य वातावरण में रासमण्डल में
विराजित हैं। मंगल वेदी, रत्न प्रदीपों की ज्योति,
विविध कुसमों का सुवास, दिव्य धूप से सुगंधित पवन,
शृंगार समस्त सामग्री आदि से अनन्त ऐश्वर्य झाँक रहा
है। अभिनय के दर्शक चतुर्भुज नारायण, महेश्वर, श्री
ब्रह्मा, साक्षात धर्म, विद्यादायिनी सरस्वती,
शक्तिरूपा दुर्गा एवं महालक्ष्मी सभी रंगमंच पर
उपस्थित है। लीला के सूत्रधार श्रीगोविन्द उपस्थित
हैं, पर सूत्रधार के प्राणाधार अनुपस्थित है, इसी कारण
श्रीरास का शुभारंभ नहीं हो रहा है। उसी समय देवों ने
देखा कि श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से एक कम्पन सा हुआ
और समस्त सौन्दर्य पुंजीभूत होकर कन्या रूप में प्रकट
हुआ। कन्या की आयु सोहल वर्ष की है। कोटि चन्द्रों का
सौन्दर्य उसके मुख पर है। ऐसा रूप देखकर देव वृन्द
अचंभित हो जाते है। यह सुन्दरी कन्या श्रीराधा है।
रासे सम्भूयः गोलोके सा दधाव हरेः पुरेः तेन राधा
समाख्याता पुराविद्भिः द्विजोत्तमः। अर्थात- गोलोक में
रासमण्डल में प्रकट हुई और प्रकट होते ही पुष्पचयित कर
श्रीकृष्ण के चरणों में अर्ध्य समर्पित के लिए धावित
हुई, अतः राधा नाम से प्रसिद्ध हुई।
राधा और कृष्ण क्रमशः प्रेम और
आनंद हैं-
श्रीराधिका प्रेममयी है और श्रीकृष्ण आनन्दमय है। जहाँ
आनन्द है वहीं प्रेम है, जहाँ प्रेम है वहीं आनन्द है।
राधिकोपनिषद् में उल्लेख है- कृष्णेन अराध्यत इति
राधा, कृष्णं समाराधयति सदेति राधिका। अर्थात्
श्रीकृष्ण इनकी नित्य अराधना करते हैं और श्रीकृष्ण की
ये सदा सम्यक् रूप से आराधना करती हैं, अतः श्रीराधिका
नाम से प्रसिद्ध हुई। श्रीकृष्ण रसो वै सः है और रस
रूप श्री कृष्ण ही राधा बन जाते हैं, क्योंकि रस्यते
असौ इति, इति रसः इस व्युत्पत्ति के अनुसार रस की
सत्ता आस्वाद के लिए है।
द्वापर युग में अवतरण-
दूसरी बार राधा द्वापर युग में श्री वृषभानु के घर
प्रगट होती हैं। कहते हैं कि एक बार श्रीराधा
गोलोकविहारी से रूठ गईं। इसी समय गोप सुदामा प्रकट
हुए। राधा का मान उनके लिए असह्य हो हो गया। उन्होंने
श्रीराधा की भर्त्सना की, इससे कुपित होकर राधा ने
कहा- सुदामा! तुम मेरे हृदय को सन्तप्त करते हुए असुर
की भांति कार्य कर रहे हो, अतः तुम असुरयोनि को
प्राप्त हो। सुदामा काँप उठे, बोले-गोलोकेश्वरी !
तुमने मुझे अपने शाप से नीचे गिरा दिया। मुझे असुरयोनि
प्राप्ति का दुःख नहीं है, पर मैं कृष्ण वियोग से तप्त
हो रहा हूँ। इस वियोग का तुम्हें अनुभव नहीं है अतः एक
बार तुम भी इस दुःख का अनुभव करो। सुदूर द्वापर में
श्रीकृष्ण के अवतरण के समय तुम भी अपनी सखियों के साथ
गोप कन्या के रूप में जन्म लोगी और श्रीकृष्ण से विलग
रहोगी। सुदामा को जाते देखकर श्रीराधा को अपनी त्रृटि
का आभास हुआ और वे भय से कातर हो उठी। तब लीलाधारी
कृष्ण ने उन्हें सांत्वना दी कि हे देवी ! यह शाप
नहीं, अपितु वरदान है। इसी निमित्त से जगत में
तुम्हारी मधुर लीला रस की सनातन धारा प्रवाहित होगी,
जिसमे नहाकर जीव अनन्तकाल तक कृत्य-कृत्य होंगे। इस
प्रकार पृथ्वी पर श्री राधा का अवतरण द्वापर में हुआ।
राधा के अवतरण की एक और कथा-
एक अन्य कथा है - नृग पुत्र राजा सुचन्द्र और पितरों
की मानसी कन्या कलावती ने द्वादश वर्षो तक तप करके
श्रीब्रह्मा से राधा को पुत्री रूप में प्राप्ति का
वरदान मांगा। फलस्वरूप द्वापर में वे राजा वृषभानु और
रानी कीर्तिदा के रूप में जन्मे। दोनों पति-पत्नि बने।
धीरे-धीरे श्रीराधा के अवतरण का समय आ गया। सम्पूर्ण
व्रज में कीर्तिदा के गर्भधारण का समाचार सुख स्त्रोत
बन कर फैलने लगा, सभी उत्कण्ठा पूर्वक प्रतीक्षा करने
लगे। वह मुहूर्त आया। भाद्रपद की शुक्ला अष्टमी
चन्द्रवासर मध्यान्ह के समये आकाश मेघाच्छन्न हो गया।
सहसा एक ज्योति पसूति गृह में फैल गई यह इतनी तीव्र
ज्योति थी कि सभी के नेत्र बंद हो गये। एक क्षण
पश्चात् गोपियों ने देखा कि शत-सहस्त्र शरतचन्द्रों की
कांति के साथ एक नन्हीं बालिका कीर्तिदा मैया के समक्ष
लेटी हुई है। उसके चारों ओर दिव्य पुष्पों का ढेर है।
उसके अवतरण के साथ नदियों की धारा निर्मल हो गयी,
दिशाऐं प्रसन्न हो उठी, शीतल मन्द पवन अरविन्द से सौरभ
का विस्तार करते हुए बहने लगी।
पद्मपुराण में राधा का अवतरण-
पद्मपुराण में भी एक कथा मिलती है कि श्री वृषभानुजी
यज्ञ भूमि साफ कर रहे थे, तो उन्हें भूमि कन्या रूप
में श्रीराधा प्राप्त हुई। यह भी माना जाता है कि
विष्णु के अवतार के साथ अन्य देवताओं ने भी अवतार
लिया, वैकुण्ठ में स्थित लक्ष्मीजी राधा रूप में
अवतरित हुई। कथा कुछ भी हो, कारण कुछ भी हो राधा बिना
तो कृष्ण हैं ही नहीं। राधा का उल्टा होता है धारा,
धारा का अर्थ है करेंट, यानि जीवन शक्ति। भागवत की
जीवन शक्ति राधा है। कृष्ण देह है, तो श्रीराधा आत्मा।
कृष्ण शब्द है, तो राधा अर्थ। कृष्ण गीत है, तो राधा
संगीत। कृष्ण वंशी है, तो राधा स्वर। भगवान् ने अपनी
समस्त संचारी शक्ति राधा में समाहित की है। इसलिए कहते
हैं-
जहाँ कृष्ण राधा तहाँ जहं राधा तहं कृष्ण।
न्यारे निमिष न होत कहु समुझि करहु यह प्रश्न।।
इस नाम की महिमा अपरंपार है। श्री कृष्ण स्वयं कहते
है- जिस समय मैं किसी के मुख से ‘रा’ सुनता हूँ, उसे
मैं अपना भक्ति प्रेम प्रदान करता हूँ और धा शब्द के
उच्चारण करनें पर तो मैं राधा नाम सुनने के लोभ से
उसके पीछे चल देता हूँ। राधा कृष्ण की भक्ति का
कालान्तर में निरन्तर विस्तार हुआ। निम्बार्क, वल्लभ,
राधावल्लभ, और सखी समुदाय ने इसे पुष्ट किया। कृष्ण के
साथ श्री राधा सर्वोच्च देवी रूप में विराजमान् है।
कृष्ण जगत् को मोहते हैं और राधा कृष्ण को। १२वीं शती
में जयदेवजी के गीत गोविन्द रचना से सम्पूर्ण भारत में
कृष्ण और राधा के आध्यात्मिक प्रेम संबंध का जन-जन में
प्रचार हुआ।
भागवत में एक प्रसंग आता है-
‘‘अनया
आराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः यन्नो विहाय गोविन्दः
प्रीतोयामनयद्रहः।’’ प्रश्न उठता है कि तीनों लोकों का तारक
कृष्ण को शरण देनें की सामर्थ्य रखने वाला ये हृदय उसी अराधिका
का है, जो पहले राधिका बनी। उसके बाद कृष्ण की आराध्या हो गई।
राधा को परिभाषित करनें का सामर्थ्य तो ब्रह्म में भी नहीं।
कृष्ण राधा से पूछते हैं- हे राधे ! भागवत में तेरी क्या
भूमिका होगी ? राधा कहती है- मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए
कान्हा ! मैं तो तुम्हारी छाया बनकर रहूँगी। कृष्ण के प्रत्येक
सृजन की पृष्ठभूमि यही छाया है, चाहे वह कृष्ण की बांसुरी का
राग हो या गोवर्द्धन को उठाने वाली तर्जनी या लोकहित के लिए
मथुरा से द्वारिका तक की यात्रा की आत्मशक्ति।
आराधिका में आ को हटाने से राधिका बनता है। इसी आराधिका का
वर्णन महाभारत या श्रीमद्भागवत में प्राप्त है और श्री राधा
नाम का उल्लेख नहीं आता। भागवत में श्रीराधा का स्पष्ट नाम का
उल्लेख न होने के कारण एक कथा यह भी आती है कि शुकदेव जी को
साक्षात् श्रीकृष्ण से मिलाने वाली राधा है और शुकदेव जी
उन्हें अपना गुरू मानते हैं। कहते हैं कि भागवत के रचयिता
शुकदेव जी राधाजी के पास शुक रूप में रहकर राधा-राधा का नाम
जपते थे। एक दिन राधाजी ने उनसे कहा कि हे शुक ! तुम अब राधा
के स्थान पर श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण ! का जाप किया करो। उसी समय
श्रीकृष्ण आ गए। राधा ने यह कह कर कि यह शुक बहुत ही मीठे स्वर
में बोलता है, उसे कृष्ण के हाथ सौंप दिया। अर्थात् उन्हें
ब्रह्म का साक्षात्कार करा दिया। इस प्रकार श्रीराधा शुकदेव जी
की गुरू हैं और वे गुरू का नाम कैसे ले सकते थे ?
राधा प्रेम की थाह नहीं-
कृष्ण के विराट को समेटने के लिए जिस राधा ने अपने हृदय को
इतना विस्तार दिया कि सारा ब्रज उसका हृदय बन गया। इसलिए कृष्ण
भी पूछते हैं- बूझत श्याम कौन तू गौरी ! किन्तु राधा और राधा
प्रेम की थाह पाना संभव ही नहीं। कुरूक्षेत्र में उनके आते ही
समस्त परिवेश बदल जाता है। रूकमणि गर्म दूध के साथ राधा को
अपनी जलन भी देती है। कृष्ण स्मरण कर राधा उसे एक सांस में पी
जाती है। रूकमणि देखती है कि श्रीकृष्ण के पैरों में छाले हैं,
मानों गर्म खोलते तेल से जल गए हों। वे पूछती हैं ये फफोले
कैसे ? कृष्ण कहते हैं - हे प्रिये ! मैं राधा के हृदय में
हूँ। तुम्हारे मन की जिस जलन को राधा ने चुपचाप पी लिया , वही
मेरे तन से फूटी है। इसलिए कहते हैं कि-
तत्वन के तत्व जगजीवन श्रीकृष्णचन्द्र और।
कृष्ण कौ हू तत्व वृषभानु की किशोरी है।
तो आइए ऐसे अनुपम प्रेम का साक्षात् दर्शन करने श्री राधा माधव
की दिव्य लीला श्रीराधारानी के प्रागट्य (जन्मदिन) महोत्सव में
प्रवेश करें और कहें- जय जय श्री राधे !
१ सितंबर २०१४ |