मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


चौथा भाग

इस परीक्षा के पश्चात, सफल हुए विद्यार्थियों को एक और परीक्षा से निकलना पड़ता था। सभी सफल हुए विद्यार्थियों को, इसी उद्देश्य के लिए बने विभिन्न सैन्य केन्द्रों में चार दिन बिताने थे और इन चार दिनों में उनकी विभिन्न प्रकार से एक गहन परीक्षा होनी थी जिसमे उनकी योग्यताओं को जाँचा जाना था।
मैंने इस परीक्षा के लिए गहन अध्ययन किया। जहाँ से जो भी सीखने को मिला मैंने सीखा। इस परीक्षा की तैयारी के समय में मुझे बहुत अच्छे सबक सीखने को मिले जो मेरे जीवन में हर समय मेरे काम आने वाले थे। उनमें से कुछ सबक यहाँ लिख रहा हूँ:-

१. अपना ध्यान हमेशा अपने उद्देश्य पर केन्द्रित रखो। व्यर्थ की बातों में समय न गँवाओ।
२. जब भी तैयारी करो, पुरे विस्तार से तैयारी करो। एक एक बात का ध्यान रखो। जितनी अच्छी तैयारी करोगे उतना ही अच्छा परिणाम आएगा। तुम्हारी सफलता सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी तैयारी पर निर्भर करती है।
३. हर कार्य को उसकी प्राथमिकता और आवश्यकता के अनुसार महत्व दो। आवश्यकता से अधिक या आवश्यकता से कम महत्व देने पर ही समस्या उत्पन्न होती है।
४. अपने काम को सबसे ऊपर रखो। किसी भी वस्तु या विचार का तुम्हारे कार्य पर नकारात्मक प्रभाव न हो। विफलता का भय या सफलता की चाह उसपे हावी न हो।

जिस केंद्र में मेरी परीक्षा होनी थी वो मध्यप्रदेश प्रांत की राजधानी भोपाल में था। चार दिन की परीक्षा में मैंने पूरी लगन से काम किया और जब चार दिन के बाद नतीजे सुनाए गए तो मैं सफल हुआ था। वो दिन मेरे जीवन का तब तक का और अब तक का सबसे प्रसन्नता का दिन था। मैंने अपने जीवन में और भी बहुत सफलताएँ प्राप्त कीं लेकिन उस दिन से अधिक प्रसन्नता कभी नहीं हुई।

कुछ महीने पश्चात २८ जून १९९१ को मुझे राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में तीन वर्ष के प्रशिक्षण हेतु जाना था।


राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (सन १९९१-१९९४)

मैंने २८ जून १९९१ की शाम को, लगातार हो रही बूँदाबाँदी और बारिश के बीच, महाराष्ट्र प्रान्त की सह्याद्री पहाड़ियों के बीच स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रवेश किया। इस अकादमी में पुरे देश से चुने गए युवकों को कठिनतम सैन्य प्रशिक्षण से गुज़रना पड़ता है और यह अकादमी अपने कठिनतम प्रशिक्षण के लिए विश्व विख्यात है। मेरे अन्दर कुछ भय भी था लेकिन बहुत सा विश्वास भी था कि न सिर्फ मैं इस प्रशिक्षण को पूरा करूँगा बल्कि मेरा प्रदर्शन भी अच्छा रहेगा।

जब मैंने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में नया नया प्रवेश लिया था तो मेरे कुछ वरिष्ठ प्रशिक्षणार्थियों (senior cadet) ने मुझसे पूछा कि प्रशिक्षण पूरा होने पर मैं सेना के कौनसे अंग में सेवा करना चाहूँगा। मैंने कहा कि मैं एक कमांडो बनना चाहूँगा। (कमांडो बनना सबसे कठिन होता है)

इस बात पर वे सब हँसे और उन्होंने कहा "चार दिन के कठिन प्रशिक्षण को झेल कर ही तुम अपना निर्णय बदल दोगे। चार साल का प्रशिक्षण तो दूर की बात है।"

लेकिन पूरे चार साल के प्रशिक्षण में मैंने अपना निर्णय कभी नहीं बदला।

'मुश्किलों के सामने अगर हम अपना फैसला बदल दें तो हम अन्दर से कमज़ोर हो जाते हैं'

प्रशिक्षण कठिन था और बहुत सी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। लेकिन दोस्तों के साथ खूब हँसी मज़ाक भी किया और उस समय का आनंद भी लिया।

'कठिन समय में जो आपके मित्र बनते हैं वो ही आपके सबसे श्रेष्ठ मित्र होते हैं।'

कठिन समय और कठिन /परिश्रम में जीवन के बहुत महत्वपूर्ण पाठ भी सीखे। कठिन समय ही जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। इसी लिए हमें कठिनाइयों से कभी दूर नहीं भागना चाहिए। जीवन में आने वाली चुनौतियाँ ही हमारे लिए सीखने और अनुभव करने का एक अवसर होती हैं। इसी को दर्शाता मेरा एक शेर है:-

ऐ खुदा दे कुछ और तकलीफ मुझे, नई कोई चुनौती तो दे,
कि ज़िन्दगी को और जीने को जी चाहता है।
कुछ तो आँधियों को उठा, कुछ तूफ़ान तो हों
कि आसमानों को फिर छूने को जी चाहता है।

एक दुर्घटना एक चुनौती

१९९३ के अप्रैल महीने की बात है। बाकी खेलों की तरह मुझे घुड़सवारी भी बहुत पसंद थी। एक दिन घुड़सवारी करते समय मेरे हाथ एक अड़ियल घोडा आ गया। मैं उस घोड़े को ले अस्तबल से बाहर आया लेकिन इस से पहले कि मैं उसपे सवार हो पाता, वो घोडा मुझसे छुड़ा कर भाग खड़ा हुआ।
इसपर मैं उस घोड़े को पकड़ने के लिए उसके पीछे पीछे गया। वह घोडा मुझे एक खुले इलाके में घास चरता हुआ दिखा। जैसे ही मैं लगाम पकडने के लिए उस घोड़े के पास गया और मैने उसकी लगाम को थामा तो वो घोडा बिदक गया और उछल उछल कर लात घुमाने लगा, जिससे एक लात मेरी दाहिनी आँख और सर पर जा लगी और मैं बेहोश हो गया।

उस विशालकाय घोड़े के पैर के टेल में लगी बड़ी लोहे की नाल की चोट से मेरी दाहिनी आँख की पलकों और उसके आस पास के गाल और सर की चमड़ी के चीथड़े उड़ गए थे और तेज़ खून बह रहा था। संयोगवश मेरे कुछ साथियों ने मुझे देख लिया और वे मुझे उठा वापिस घुडसाल तक ले आए। मेरे अच्छे संयोग से वहाँ एक जीप उपलब्ध थी जिसमें डाल मुझे तुरंत सैन्य हस्पताल पहुँचाया गया।

मेरी आँख खुली तो मैं हस्पताल के बिस्तर पर पड़ा था। कुछ साथी मुझे घेरे खड़े थे और उन्होंने मेरी दाहिनी आँख पे ढेर सारी पट्टियाँ दबा रखी थीं। उन पट्टियों के बीच से खून निकल रहा था। मुझे बताया गया कि मुझे घोड़े ने लात मारी थी और मेरी दाहिनी आँख के आस पास की चमड़ी पूरी तरह कट फट गई थी। मेरी आँख पे दबाई गई पट्टियों के बाद भी उनके किनारे से निकल कर बहुत खून बह रहा था।

ऐसा लग रहा था कि हो न हो मेरी दाहिनी आँख जा चुकी थी। लेकिन मैं बहुत सौभाग्यशाली था क्योंकि इतने ताकतवर घोड़े की नाल वाले पैर की लात से किसी की भी जान अवश्य चली जाती। मैं सौभाग्यशाली था जो बच गया।

जब डाक्टर आया तो उसने मेरी पट्टियों को हटवाया। फिर उसने मेरी आँख के आस पास की कटी फटी चमड़ी को हटा मुझसे पूछा कि क्या मुझे दिख रहा है। मेरा उत्तर था "हाँ, मुझे दिख रहा है"। डॉक्टर बहुत अचंभित था कि इतनी क्षति पहुँचने पर भी मुझे दिखाई दे रहा था और इतने नुकसान के बाद भी मेरी आँख बच गई थी।

चूँकि मेरी आँख की आस पास की चमड़ी कट और उधड गई थी तो उसमें आँख के पास दर्द सुन्न करने वाला इंजेक्शन नहीं लगाया जा सकता था। अतः बिना सुन्न करने का इंजेक्शन लगाए मेरी आँख और उसके आस पास टाँके लगाए जाने थे। यह मेरे जीवन का सबसे दर्द भरा अनुभव था, जिसमें दर्द के कारण मैं कई बार बेहोशी के करीब पहुँच गया था।

उसने मेरी आँख और गाल पर लगभग २८ टाँके लगा मेरी कटी हुई चमड़ी और पलकों को जोड़ा और फिर ढेर सारी पट्टियाँ बाँध दीं। उसके कुछ दिन पश्चात पूना शहर के एक बड़े सैन्य हस्पताल में मेरा ऑपरेशन भी किया गया।

चोट गंभीर थी लेकिन मैं एक माह के समय में ही पूर्ण रूप से स्वस्थ हो वापिस अपने प्रशिक्षण में जुड़ गया। यह मेरा सौभाग्य ही था कि इतनी गंभीर चोट लगने पर भी मैं इतनी जल्द ठीक हो वापिस आ गया था।

जब मैं वापिस आया तो मैं नहीं चाहता था के मेरे अन्दर घुड़सवारी का भय आए, इसीलिए आते ही मैंने पुनः घुड़सवारी प्रारंभ की और उसी घोड़े को (जिसने मुझे लात मारी थी) फिर से सवार हो कर सफलतापूर्वक चलाया।


‘कर्म ही अधिकार है’ - जीवन का सबसे बड़ा सत्य

श्रीमद भगवद गीता के मुख्य श्लोक का संधि विच्छेद कर अर्थ देखा जाए तो उसका अर्थ है - कर्म करने में ही अधिकार है तुम्हारा। कर्म के फल की इच्छा में कभी नहीं है। और ऐसा जानकर कभी भी तुम्हारी आसक्ति कर्म न करने की ओर न हो।

हम किताब से शिक्षा पढ़ तो सकते हैं लेकिन वो हमें समझ में तभी आती है जब हम जीवन में किसी घटना अथवा होनी के द्वारा उसका अनुभव करते हैं। ऐसी ही एक विशेष घटना मेरे जीवन में प्रशिक्षण के समय हुई।


जीवन की परिस्थितियाँ हमें सीखने का मौका प्रदान करती हैं। एक दिन सब कैडेट किसी खेल अथवा प्रशिक्षण गतिविधि के लिए अपने कमरों से निकल दौड़ रहे थे। मैंने देखा कि एक गिलहरी का बच्चा घबराया सा इधर उधर दौड़ रहा है। मुझे पशु पक्षियों से सदैव प्रेम रहा है। मुझे लगा कहीं यह किसी के पैर के नीचे न आ जाए। मैं बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर था। पेड़ों की शाखाएँ तीसरी मंजिल की खिडकियों में आकर लगा करती थीं और इन टहनियों से गिलहरियाँ बिल्डिंग में आ जाया करती थीं। मैंने सोचा कि मैं गिलहरी को खिड़की से लगी टहनी पे छोड़ दूँगा और वो सुरक्षित भाग जाएगी।

मैंने गिलहरी के बच्चे को हाथों में उठा लिया। वो बहुत डरा हुआ था। जब मैंने उसे खिड़की के बाहर बने समतल स्थान पर रखा तो वो जोर से भागा और नीचे जा गिरा। गिलहरी इतने ऊपर से गिर कर भी नहीं मरती। वो कुछ पल में ही वहाँ से उठ कर पेड़ की तरफ भागा। लेकिन इतने में ही वहाँ पास बैठी बिल्ली ने उसे देख लिया और दबोच लिया।

अब मेरा उद्देश्य तो उस गिलहरी के बच्चे को नुक्सान से बचाना था लेकिन उसकी मृत्यु हो गई। इस कहानी का अंत दुखद अवश्य है लेकिन इसमें हमारे लिए एक आवश्यक सीख है।


'कर्म ही हमारा अधिकार है। अंत क्या होगा यह हमारे हाथ में नहीं है। अर्थात हमें हमेशा बिना फल की अधिक परवाह किये अच्छी मंशा से काम करते रहना चाहिए।'


राष्ट्रीय रक्षा अकादमी का तीन साल का प्रशिक्षण समाप्त होने को आया। इस प्रशिक्षण के अंत में वो छः दिन का प्रशिक्षण शिविर था जिसमें हमारा एक साथी बेहोश हो गया था और हमें उसे उठा कर दौड़ना था और हॉस्पिटल तक पहुँचाना था। इसका वर्णन मैं पुस्तक के शुरू में कर चुका हूँ अतः दोबारा नहीं दोहराऊँगा। हाँ, लेकिन इस प्रशिक्षण के समय का एक सिद्धांत जो मेरे जीवन का आधारस्तंभ बन गया है उसको मैं यहाँ लिखना चाहूँगा।

'हममें शारीरिक और मानसिक रूप से असीमित योग्यता होती है। हमारी योग्यता हमें कुछ पाने से नहीं रोक सकती। हमारी सोच हमें रोक सकती है। यदि हम यह सोचते हैं और विश्वास रखते हैं कि हम किसी कार्य को सफलता पूर्वक कर पाएँगे तो अवश्य ही हम कर पाएँगे। और यदि हम में कोई शंका घर कर जाती है कि शायद हम सफल नहीं होंगे तो हम अवश्य ही सफल नहीं होंगे।'

'विश्वास सफलता का पहला कदम है और शंका पराजय की पहली सीढ़ी'

इस कठोर प्रशिक्षण के समय लिखी मेरी एक कविता 'वीर' यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

'वीर'

न करे विचलित, मुश्किल न जिसको झुकाए
हार जिस से हार गई सोचे बहुत उपाय
वीर उसको जानिये, जो हर संकट हर जाए

विवेक को अपनी शक्ति बना, संयम को कर प्रबल
विकट स्थिति में रह अपनें उसूलों पर तू अडिग अचल
जो डगमगा गया अपनी कर्मभूमि पर, वो इंसान ही क्या कहलाएगा
जो चलता रहेगा तूफानों में, अपनी मंजिल को वो ही तो पाएगा

संकट जिसकी शक्ति बने, आँधी न जिसको हिलाए
हार जिस से हार गई सोचे बहुत उपाय
वीर उसको जानिये, जो हर संकट हर जाए

जज्बा, जोश, जूनून, जतन, यह जो तेरी पहचान है
वो इंसान क्या, जिसे अपनें होने पर नहीं अभिमान है
चार दिन आगे चार दिन पीछे, हर कोई मिटटी में मिल जाएगा
चार दिन में जो कर गया कुछ वो ही तो महान कहलाएगा

न करे विचलित, मुश्किल न जिसको झुकाए
संकट जिसकी शक्ति बने, आँधी न जिसको हिलाए
हार जिस से हार गई सोचे बहुत उपाय

वीर उसको जानिये, जो हर संकट हर जाए
वीर उसको जानिये, जो हर संकट हर जाए

रक्षा अकादमी में मेरा तीन साल का सफ़र १९९४ के जून महीने में समाप्त हुआ।

पृष्ठ- . . . . .

१ सिंतबर २०१४                                आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।