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संस्कृति

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चूड़ियाँ- इतिहास से संस्कृति तक
डॉ. दिवाकर
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भारतीय नारियाँ रंग-बिरंगी चमकीली चूड़ियाँ कलात्मक एवं सुरुचिपूर्ण ढंग से पहनकर अपनी कोमल कलाइयों का शृंगार करती हैं। यह शृंगार शताब्दियों से कुमारियों एवं नारियों को रुचिकर प्रतीत होता है, साथ ही स्वजन-परिजन भी हर्षित होते हैं। हाथ की चार चूड़ियाँ उनके अहिवात को सुरक्षित रखने के लिए ही पर्याप्त हैं। कवि देव के शब्दों में नारियों की प्रभु से चिर प्रार्थना यही है-
संग ही संग बसौ उनके अंग अंगन देव तिहरे लूटीए।
साथ में राखिए नाथ उन्हें हम हाथ में चाहती चार चुरिए।।

उत्सव से पूर्व मनिहारिन की आवाज़ गलियों में सुनाई देती है। ले लो चूड़ियाँ लाल, हरी, पीली, नीली... बालिकाओं, वधुओं और बड़ी-बूढ़ियों के कानों में भी यह ध्वनि गूँज उठती है। सभी आकर्षित हो जाती हैं। वे विचार करती हैं सावन आ रहा है, चूड़ियों से हाथों का शृंगार करना ही है। मनिहारिन को घेरकर सब लोग बैठ जाती हैं और प्रफुल्लित होकर अपनी मनभावनी चूड़ियाँ पहनती हैं। कार्य में व्यस्त वधुएँ भी आ जाती हैं।

मनिहारिन भी हँस-हँस कर दो चूड़ियाँ आशीष की अधिक पहनती हैं। वधुएँ, सास, जिठानी के चरणस्पर्श करती है और आशीर्वाद पाती हैं- सदा सुहागिन रहो, फूलो, फलो।
प्रत्येक पर्व एवं शुभ कार्य से पूर्व चूड़ियों को प्रधानता दी जाती है। मनिहारिन विभिन्न प्रकार की चूड़ियाँ पहनाकर, वधुएँ रंग-बिरंगी चूड़ियाँ पहनकर और बड़ी-बूढ़ियाँ आशीर्वाद देकर प्रसन्न होती हैं। चारों ओर मधुर झंकार और चूड़ियों की खनकार सुनाई देती है। विवाहित नारियों के लिए भारत के कोने-कोने में चूड़ियों का विशेष महत्व है।

भारत के प्रागैतिहासिक काल की नारी मूर्तियाँ भी कराभरणों से अलंकृत हैं। यह मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त वसुओं से सिद्ध होता है। उज्जैन, अमरावती और मथुरा के उत्खनन से प्राप्त नारी मूर्तियों से ज्ञात होता है कि उनके करों के अलंकार सोने व चाँदी के कंगन होते थे।

चूड़ियाँ पहनने के विभिन्न प्रसंग

मौर्य, शुंग और सातवाहन काल में भारतीय महिलाएँ दोनों हाथों में बहुत-बहुत चूड़ियाँ धारण करती थीं। ये सोने-चाँदी की धातु से निर्मित होती थीं। उनमें कलात्मक ढंग से कटाव भी होते थे। साँची से प्राप्त नारी मूर्तियों के हाथों में चूड़ियाँ हैं। कुषाण काल की महिलाएँ अनेक चूड़ियाँ पहनती थीं। मथुरा से प्राप्त नारी मूर्तियों में घुंडीदार कड़े और महीन चूड़ियाँ प्राप्त होती हैं। गुप्तकालीन प्राप्त नारी-मूर्तियों के हाथों में तीन-चार चूड़ियाँ हैं। अजंता से प्राप्त नर्तकी के चित्र में अधिक चूड़ियाँ सुशोभित हैं। खजुराहो की नायिका के दोनों हाथों में रत्नजटित दो-दो चूड़ियाँ हैं। लक्ष्मण मंदिर की नारी मूर्ति बीच में पाँच चूड़ियाँ पहने हुए हैं। गांधार शैली की तक्षशिला से प्राप्त मूर्तियाँ कड़े और चूड़ियों से युक्त हैं। नालंदा से प्राप्त नारी-मूर्ति के हाथ पाँच चूड़ियों से सुशोभित हैं।

रामायण काल के हस्ताभरण मणि-मुक्ताओं से सुसज्जित थे। महाभारत में शंख की चूड़ियों का उल्लेख है। मेघदूत में यक्षप्रिया पालित मयूरों को अपनी चूड़ियों की मधुर खनकार पर नचाती हैं। कादंबरी में सरस्वती की शंख की चूड़ियों का वर्णन है और नारियों की रत्नजटित चूड़ियाँ भी प्राप्त होती हैं। शिशुपाल-वध में भी शंख की चूड़ियों का उल्लेख है। मुनि-कन्या शकुंतला वन में रहकर भी कमलनाल से अपनी कलाइयों को सुसज्जित करती हैं। सिद्ध हेमशब्दानुशासन में काँच की चूड़ियों का वर्णन विरह के समय किया गया है- जिसके एक श्लोक का अर्थ है कि विरहिणी बाला कपोल पर हथेली धरे बैठी है। गाल से सटी चूड़ियाँ उत्तप्त साँसों से तप्त होकर आँसुओं के संसर्ग में आते ही टूट जाती है। ये टूटनेवाली चूड़ियाँ काँच की ही हो सकती हैं।

कर्णप्रिय और मधुर झनकार

नारियों की चूड़ियाँ धान कूटते समय कर्णप्रिय और मधुर झनकार कराती हैं। गीत अति आनंददायक प्रतीत होते हैं। हेमचंद ने अपभ्रंश व्याकरण में अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जिनमें चूड़ी का उल्लेख स्पष्ट सुंदर और सर्वप्रथम किया गया है। उन्होंने 'वलय' और 'चूड्डिलऊ' दोनों ही शब्दों के प्रयोग किए हैं जो अत्यंत सार्थक हैं और साथ ही विषाद एवं हर्ष के मिश्रित सजीव चित्रण भी। 'वलय' का सुंदर प्रयोग देखिए-
वायसु उड्डावंति अए पिउ विहउ सहसत्ति।
अद्धा वलया महिहि गय अद्धा फूटि तड़त्ति।।
अर्थात कौवे को उड़ाती हुई विरहिणी ने सहसा प्रिय को देखा। इतने में उसकी आधी चूड़ियाँ विरह-कृशता से ढीली होने के कारण पृथ्वी पर गिर गई और प्रिय को देखने से जो हर्ष हुआ, उसके कारण कृशता जाती रही और आधी चूड़ियाँ कड़ी होकर तड़-तड़ टूट गईं।

चूड्डल्लउ चुण्णी होइ अए मुद्धि कवेलि निहितउ।
सासा सनल जाल पलक्किड़ बाहर सलिल संसितउ।
अर्थात हे मुग्धे! तेरी चूड़ियाँ गरम साँसों की आग से तपकर और आँसुओं की धारा से भीग कर स्वयं ही टूट रही हैं।

चूड़क से चूड़ियाँ
सोमेश्वर कृत 'मानसोल्लास' में स्वर्ण-निर्मित, रत्न, मुक्ता-माणिक्य से जटित 'चूड़क' शब्द का उल्लेख है। 'वर्णरत्नाकर' में चुलि (चूली) शब्द सोने-चाँदी की चूड़ियों के लिए प्रयुक्त किया गया है। यह 'चुलि' शब्द ही प्राकृत अपभ्रंश के 'चूड़' का विकसित रूप है। 'सभाशृंगार' में भी चूड़ी का उल्लेख है। 'निंबार्क' संप्रदाय के प्रसिद्ध ग्रंथ 'महावाणी' में पोइंची के साथ चूरा-चूरी का वर्णन आया है-
कबहू बाहु निहारि बारिके बाजूबंध सुधारै जू।
कबहुंक चूरा-चूरी पहुँची हैकरि है रस सारै जू।।
पंद्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में श्री राजशेखर सूरि ने 'नेमी नाथ फागु' में बाहु के शृंगार में 'चूड़िय' का उल्लेख किया है-
कंचन कंकण चूड़िय बाहू शृंगार।'

मध्यकाल में भारतीय नारियों के सौभाग्यपूर्ण शृंगार के रूप में चूड़ियों की उनके विभिन्न प्रकार से रसमय चर्चा की गई है। सूरदास ने चार-चारर के जोड़े के रूप में सुंदर वर्णन किया है-
'डारनि चार-चार चूरी बिराजति।' परमानंद सागर में चूड़ियों के साथ गजरा और पहोंची का प्रयोग दृष्टव्य है- नवग्रह गजरा जगमगै नव पाहौंची चुरियन आगे।

सभी नारियों को चूड़ियाँ प्रिय
भारत के सभी प्रदेशों की नारियों को चूड़ियाँ अत्यंत प्रिय हैं। उत्तर प्रदेश में बालिकाओं के विवाह के अवसर पर हरे रंग की काँच की चूड़ियाँ पहनाई जाती हैं। ब्रज प्रदेश में विवाह के दिन सभी सुहागिन महिलाओं को चूड़ियाँ पहनाने की प्रथा आज भी प्रचलित है। हरी काँच की चूड़ियाँ पहनने से शीघ्र शुभ फल प्राप्त करने में सफलता मिलती है। देवियों को सदा सुहागिन मानकर विशेष अवसरों पर उनके लिए प्रथमतः चूड़ियाँ बाँध दी जाती हैं। पुत्र जन्म के अवसर पर भी हरी काँच की चूड़ियाँ पहनना शुभ माना जाता है। करवा चौथ हरितालिका तीज, होली-दीवाली, भैया दूज आदि त्यौहारों पर नई सुंदर चूड़ियाँ पहनना सौभाग्य का सूचक होता है। सावन मास में तो चूड़ियों की बहार छा जाती है। हरियाली तीज पर बालिकाएँ, विवाहिता सभी रंगीन कामदार चूड़ियाँ पसंद करती हैं।

ब्रज में कृष्ण-राधा के अगाध प्रेम को प्रकट करनेवाली 'मनिहारी लीला' अभिनीत की जाती है जिसमें राधा से मिलने हेतु कृष्ण मनिहारी का रूप धारण करके आवाज़ लगाते हैं- 'कोउ चुरियाँ लेउजी चुरियाँ।' बाद में उनका कृष्ण रूप प्रकट हो जाता है। 'चूड़ियाँ टूटना' कहना अमंगल माना जाता है। 'चूड़ियाँ मौल गईं।' टूटी चूड़ियों से बालिकाएँ काँच गरम करके मालाएँ बना लेती हैं और घेरा बनाकर खेल भी खेलती हैं। चंडीगढ़ के रॉकगार्डन में टूटी चूड़ियों का सुंदर उपयोग हुआ है।

आधुनिक काल में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत निवासिनी नारियों के मणिमय चूड़ियाँ पहनने का वर्णन किया है। साकेत के प्रथम सर्ग में-
चूड़ियों के अर्थ जो है मणिमयी, अंग ही कांति कुंदन बन गईं।
कृष्णप्रेम दीवानी मीरा ने वैरागिन बनने पर सभी सौभाग्य और सौंदर्य वृद्धि के चिह्न मिटा दिए थे-
'चूरियाँ फोरूँ माँग बखेरूँ, कजरा डारुँगी धोय रे।'

सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी 'झाँसी की रानी' शीर्षक प्रसिद्ध कविता में लिखा है-
तीर चलानेवाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाईं?

चूड़ियों के फ़ैशन में परिवर्तन

चूड़ियों के फ़ैशन में परिवर्तन आता रहता है, कभी दो-चार चूड़ी, कभी कलाई भर-भर के। आजकल एक हाथ में घड़ी और दूसरे हाथ में चार चूड़ियों का प्रचलन है। ठा. गोपाल शरण सिंह की कविता 'ग्रामिका' में ग्राम स्वामिनी द्वारा कृपा करने का उल्लेख इस प्रकार है- ग्रामवासिनी ने दासी पर दया विशेष दिखायी। दी उसको चूड़ियाँ और साड़ी नवीन मँगायी।।

प्रयोगवादी कवि गिरिजाकुमार ने संध्या समय नारी की व्यस्तता में चूड़ियों की झनकार का अतिभावपूर्ण वर्णन किया है-
उस धुएँ में ही मिल जाती है, उन चपल चूड़ियों की आवाज़।
'चूड़ी का टुकड़ा' शीर्षक माथुरजी की कविता सुहागरात की मधुर स्मृतियों का स्मरण करा देती है-
निकल गयी सपनों- जैसी वे रातें, याद दिलाने रहा सुहाग भरा यह टुकड़ा।

विदेशी नारियों को भी चूड़ियाँ पसंद

विदेशी नारियाँ भी चूड़ियाँ पसंद करने लगी हैं और पहनती हैं, वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय में काँच की तकनीक के विशेषज्ञ डॉ. मेडिल के दिशा निर्देश के फलस्वरूप फिरोजाबाद की काँच की चूड़ियाँ अच्छे गुण और कम लागत पर बनने लगी हैं। इसके बनाने की अति जटिल प्रक्रिया है। आश्चर्य है कि नारी के हाथों में पहुँचने से पहले रंग-बिरंगी चूड़ियाँ दस व्यक्तियों के हाथों से गुजरती हैं। चूड़ियाँ नारी के शृंगार, सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक तो हैं ही, किंतु पुरुषत्व की प्रेरणा और चुनौती भी बन जाती हैं। जब भी पुरुष को पीछे हटता हुआ देखा गया नारियों ने ही चूड़ियाँ भेजकर ललकार दिया। अबला का आभूषण होकर भी वही चूड़ियाँ इस अवसर पर रण-निमंत्रण बन जाती हैं।

२१ दिसंबर २००९ २५ अगस्त २०१४

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