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ज़रा
सुन तो लीजिये
-जयप्रकाश मानस
मंदिरों में घंटा-घड़ियाल
ध्वनि का एक अर्थ बाहर की तेज भागती दुनिया से मुक्त
होकर भीतर की दुनिया में प्रवेश करना है। रेलगाड़ी तो
स्वयं चीखती है फिर प्रेशर-हॉर्न बजाने की क्या जरूरत।
इसलिए ही कि श्रवण बाधित लोग और अबोध पशु अकाल मृत्यु
से बच सकें। मिल का भोंपू समय पर पुकारता है कि चले
आओ! तुम्हारे श्रम से ही अन्न जल चलता है। मेरे गाँव
का करमसिंह चौकीदार बारहों मास देर रात तक हाँका लगाया
करता था-''जाग-जाग के सुतिहो हो ऽऽऽ ।''तब पल्ले नहीं
पड़ता था कि जाग-जागकर कैसे सोया जाता है। जागते हुए ही
सोना चाहिए। ताकि चोरी-दारी की आहट सुनी जा सके। यह
जाग-जाग कर सोना ध्यान देना या सुनना ही तो है।
आधुनिक मानुष न सुनता न गुनता है। उसकी संवेदना का कलश
लगातार रिसता जा रहा है। सच यह है कि स्वयं उसने ही
अपनो हाथों घड़े को छेद डाला है। अब तो उस टूटे हुए घड़े
में संवेदना-जल के कुछ कतरे ही चिपके हुए हैं। कैसा
उलटबसिया मानुष है-कान हैं पर जड़ बहरा है। आँखें भी
हैं पर सूरदास हैं। मुँह है पर गूँगा है। हाथ है पर
अकर्मण्य। वीर्यवान होकर भी नपुंसकता से ग्रस्त है।
बाहर से गतिमान भीतर से वहीं का वहीं-बनैला, वनमानुष।
वनमानुष की उछलकूद को सकर्मक कैसे माना जा सकता है?
मानुष अपने आत्मचिंतन, ध्यान-धारणा, पारमार्थिक भावना
से चिन्हा जाता है और यह तभी संभव है जब वह विराम की
मुद्रा में हो। विराम में 'वि' अर्थात् विशेष है ओैर
'राम' भी है। स्वयं राम की यात्रा पड़ावों के साथ ही
संपन्न होती है। पड़ावों की शृंखला ही राम की यात्रा का
निमित्त है। वे सबकी सुनते हैं। वे सबकी कुटिया में
बिलम लेते हैं। यही राम का योग है । योगी सर्वश्रेष्ठ
श्रोता होता है। वह आत्मा से हॉट लाइन वार्तालाप करता
है। वह नीरवता को भी सुन सकता है। उसे कूदना-फाँदना
नहीं पड़ता। दर-दर भटकना नहीं पड़ता। योग विराम का
उत्कर्ष है। आधुनिक मानुष योगी न हो सके, योग का संयोग
तो अवश्य बन सकता है। सुनना जुड़ाव की पहली सीढ़ी है।
लोक समाज 'सुनकर' ही ज्ञान की परम्पराओं से संपन्न
हुआ। लोक की सम्पन्नता और संप्रभुता का रहस्य श्रवण
है। श्रवण पढ़ाई की श्रेष्ठ प्रविधि है। लोक में इसलिए
सब कुछ सुनी जाती है। सबकी सुनवाई होती है। वहाँ हर
कोई जरा ठहर लेता है, पसीना जुड़ा लेता है,आगे के मार्ग
का आकलन कर लेता है, कोई साथ मिल जाये तो उसे हमसफर
बनाकर साथ ले चलता है। एकाकी दौड़ कर्महीनता है, जो
सिर्फ जंगलीपन का लक्षण है।
'श्रवण' से संबद्ध क्रियाओं के बारे में अभिधान
चिन्तामणि(२ /२२५) में एक छंद आया है :
शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा
ऊहापोहोऽर्थ विज्ञानं तत्वज्ञाने त धी गुणा: ।
अर्थात् सुनने की इच्छा, सुनना, ग्रहण करना, स्मरण
रखना, तर्क-वितर्क, ऊहापोह निश्चय, अर्थ को भलीभाँति
समझना और तत्वज्ञान बुद्धि के आठ गुण हैं। इसमें सें
कहीं भी चूके, तो समझो निपटे। जैसे वह बूढ़ा अपने बेटे
और गधे के साथ निपट गया था। तीनों किसी गाँव की ओर चले
जा रहे थे। रास्ते में कुछ लोग मिले। उनमें से एक अपने
साथियों से कहने लगा- '' कैसे बेवकूफ हैं यह-गधा साथ
है, पर दोनों पैदल चले जा रहे हैं।''
यह सुनकर बूढ़ा गधे की पीठ पर जा बैठा। अभी कुछ दूर ही
चले थे कि एक राहगीर ने कहा- ''देखो इस बुढ़े को। लड़के
को पैदल चला रहा है और खुद गधे पर मजे से सवार है।''
ऐसा सुनना था कि वह गधे से उतर पड़ा और बाप की जगह बेटे
ने ले ली। रास्ते में फिर कोई मिल गया। उसकी टिप्पणी
सुनिए- ''क्या जमाना आ गया। बूढ़ा बाप पैदल चल रहा है
और बेटा राजा की तरह गधे पर बैठा इतरा रहा है।''
अब दोनो गधे पर आरूढ़ थे। अभी कुछ दूर चले होंगे कि कोई
फिर मिल गया । उन्हें देखकर वह भी बोल पड़ा- '' कैसी
निर्दयता है। मुक पशु पर दो-दो लाशों की सवारी।''
अब हुआ क्या, बाप-बेटों ने गधे के पैरों को बाँध लिया
और एक मोटे डंडे के सहारे उसे कन्धों पर लेकर चलने
लगे। आगे नदी का सँकरा पुल था । पुल पर गाड़ियों की भीड़
थी। अचानक किसी का धक्का लगा । तोनों नदी में जा गिरे
और सीधे जल समाधि। सबकी सुनते जाने का इससे बड़ा
दुष्परिणाम और क्या हो सकता है? भैय्ये! कहावत थोड़े न
निरर्थक है- 'सुनिए सबकी, पर करिए अपनी।'
सुनने वाला कलाकार कान है पर निर्देशक तो मन है और
सरसता मन की प्रवीणता। रसविहीन मानुष नीरस हो जाता है।
नीरसता का शोर जीवन-बोध के सरगम को शनै:शनै:लील जाती
है। पहाड़ी झरने-सा गाता-गुनगुनाता मन देखते ही देखते
लोहे के घान-सा कुचलने लगता है। एक रसिक कर्कश स्वर से
संत्रस्त हो मनहूस बन जाता है। मनहूसियत जब सीमा लाँघ
जाती है, तो आत्महंता मुकाम तक ले पहुँचाती है। जीवन
ही जीवन के शत्रु-सा बर्ताव करता है। पश्चिमी
दुनिया-ऐसे दौर से ही गुज़र रही है। पश्चिम ही क्यों?
हमारे देश का समाज भी इस रसनाशी रोग का शिकार हो चुका
है। मन पे कलश से प्रसन्न रस निथर चुका है। जीवन में
नयी सांद्रता के लिए आधुनिकता के डिस्टिल्ड वॉटर का
आसरा लिया जा रहा है। कहीं तो थोड़ा रस मिले। जीवन में
स्वाद आये। जीने का आकर्षण बढ़े। भई, सीधी सी बात है!
जो तरलता नदी, ताल, पोखर एवं कुएँ के जल में मिलेगी,
वह डिस्टिल्ड वॉटर में कैसे संभव है? चीजों का
मॉडर्नाइजेशन उचित है, पर इससे मन का माडर्नाइजेशन तो
कदाचित् संभव नहीं। प्रश्न तो मन की तरलता,संपन्नता और
निर्मलता का है। जो सबसे जुड़े, सबको जोड़े। सब उससे
जूड़ें। जो तरल होगा वह प्रवाहमान निश्चय होगा। जहाँ
निर्मलता होगी वहाँ कलुषता न उपजेगी। संपन्न होगा तो
उदार आग्रह होगा। इसलिए कान में तेल डालने से ज्यादा
जरूरी है मन में तेल डालना। इसलिए कान की औषधि से कहीं
ज्यादा जरूरी है मन की औषधि। मेरी भावुकता मेरे अफसर
मित्रों के लिए अक्सर मनोरंजन का विषय बन जाती है।
कभी-कभी उनके अहं को निर्वस्त्र कर देती है। सो कि मैं
एक देहाती से बढ़कर कुछ भी नहीं हूँ। यानी संवेदनशील
हो, सहयोगी भावना वाले हो तो देहाती यानी कि पिछड़े,
परम्परावादी। निर्मम, टालू, निरकूंश हो तो शहरी यानी
कि विकसित, माडर्न। मानुषपन जाय भाड़ में! वाह रे मेरे
सभ्य साथियो! कर्तव्यच्युत नौकरशाहो! स्वार्थ के दलदल
के बिलबिलाते कीडों। स्वारथ के दीमको। चाट जाओ मानुष
को!
भावुकता जूता नहीं, जिसे अपने पैरों से रौंदा जा सके।
वह तो मुकुट है। भावुकता वह पुलिया है जिस पर चलकार
इंसान रस-कुरस दुनिया के अंत:पुर तक बड़ी सरलता से
पहुँच सकता है। भावुकता को हम इस कोण से अनुभव-बहुलता
का माध्यम भी कह सकते हैं। कवि भावुक होता है
,भावग्राही होता है, इसलिए अतीत के सागर से मोती निकाल
लेता है और आगत के आकाश से तारे तोड़ लेता है। शिशु
भावुक होता है, इसलिए वह सबको स्निग्ध-स्नेहिल लगता
है। उसके हाव-भाव, बोल-चाल में ईश्वर नज़र आता है। उसकी
भावुकता पर यशोदाएँ मर मिटती हैं। उसकी भावुकता पर
कौशल्याएँ लुट जाती हैं। भावुकता की गहराई और
श्रवण-बोध परस्पर आश्रित हैं। भावुकता श्रवण-बोध की
प्रेरणा है। भावुक हर आवाज तक पहुँचता है। वह सुनते
वक्त काँटा-तराजू लेकर तौलने नहीं बैठता कि उसके पलडे
में क्या आ रहा है। वह स्वयं तुल जाता है। भावना,
भावुकता, भावोन्मेष समकालीन संसार में बेमानी हैं। यही
इस समय की सबसे जटिल व्याधि है। भावविहीन मनुष्य और
पत्थर में क्या अंतर रह जाता है । भावविहीनता पशुता का
लक्षण है। पुराने संसार के सयाने इसीलिए तीज-तिहार,
कथा-प्रवचन, गाने-बजाने, नाचने-कूदने, तीर्थाटन के लिए
लालायित रहते थे। आज त्योहार औपचारिकता मात्र रह गये
हैं। घरों में कथा-प्रवचन के आयोजनों को अब ढोंग कहा
जाता है। जब कथाओं को टी.व्ही.चैनलों में फैंटेसी के
रंग में रंग कर मसाले दार बना कर परोसा जा रहा हो तो
फिर क्यों सुनना-
बारहस्कंद, भागवत,
रामायण, पद्मपुराण।
नाचना-कूदना तो बहुत अहर्निश हो रहा है पर राई, करमा,
गरबा, भांगडा, बिहू, डालखाई नहीं बल्कि डिस्को। नाच
क्या कहें इसे, यह नाच के नाम पर नंगा होकर
चीखना-चिल्लाना ही है। तीर्थाटन का मतलब पर्यटन हो गया
है। प्रकृति नयनसुख की वस्तु बन गयी है। दिल और दिमाग
तक उसकी बात पहुँचती ही नहीं। ऐसे में मन का भाव कैसे
जगे? अभाव का भूत कैसे भागे? मन की कूंठाएँ गलें कैसे
? मन में राग पले कैसे? कहीं कोई संवाद नहीं। चारों ओर
केवल एक ही वाद है। वस्तुओं का विवाद। संसार के इतिहास
में वस्तुवाद का ऐसा घटाटोप कभी नहीं देखा गया। जीवन
का चरम लक्ष्य आज मनों का संवाद नही, वस्तुओं से आबाद
होना हो गया है। वस्तुओं को साधन न समझ कर साध्य समझ
बैठना ही वस्तुवाद है और यही इसकी विकृति है। समझ नहीं
आता वस्तुएँ मानुष की जगह कैसे ले सकती हैं। वस्तुएँ
मन को कैसे जीत सकती हैं। वे मानुष की बराबरी नहीं कर
सकती हैं। यदि वस्तुवाद ही आज की सभ्यता है, तो ऐसी
सभ्यता से मुक्ति पाने में ही मानुष की भलाई है ।
वस्तुओं की संप्रभुता की स्वीकृति का सीधा-सीधा अर्थ
मनुष्यता की समाप्ति है। यह केवल भारतीय सभ्यता के
सम्मुख चुनौती का प्रश्न नहीं, समूची मानव जाति के सिर
पर मँडराता संकट है।
औरों की बात मैं नहीं जानता। भारतीय मन का स्वभाव है
कि वह हर सभ्यता, हर जीवन शैली, हर दर्शन की चकाचौंध
में फट से आ जाता है। उसमें रम जाता है। सार-सार को गह
लेता है। थोथा को उड़ा देता है। हंस की तरह। लेकिन यहाँ
तो थोथा ही थोथा है। इससे ग्रहण करने योग्य कुछ भी नजर
आता नहीं। इसे बूझना ही होगा। इस अमानवीय दौर से बचना
ही होगा। मैं कोई उपदेशक, समाजशास्त्री, दार्शनिक,
चिंतक नहीं, जो लंबा-चौड़ा प्रवचन सुनाना चाह रहा हूँ।
सच तो यह भी है, जाने कितनी बातों, आवाजों, पुकारों,
चीखों की अनसुनी स्वयं मुझसे होती रही है। लेकिन एक सच
और भी है, जो मुझे कोंचता रहा है कि मैने अनसुनी की
है। भीतर का यही सच मुझे इन्सान बने रहने की याद कराता
रहता है। यह सच क्या है, भीतर की सरसता के अलावा। यह
सरसता ही है, जो मुझे ताकीद कराता चलता है कि मेरा
होना किसी और के भी होने जैसा है। कि मेरा नहीं होना
किसी और के भी नहीं होने जैसा नहीं है कि दुनिया के
होने में ही मेरा होना है। मेरे नहीं होने में दुनिया
का भी नहीं होना नहीं है। तो मैं अपने जैसे मनुष्यों
को इस सच की याद दिलाना मात्र चाह रहा हूँ। सुन रहे
हैं न आप!
२५ अगस्त २०१४ |