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आज सिरहाने


लेखक
मैत्रेयी पुष्पा
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प्रकाशक
राजकमल प्रकाशन
१- बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली ११०००२
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पृष्ठ- ३३२
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मूल्य- २५० रुपये

कस्तूरी कुण्डल बसै (उपन्यास)

'चाक', 'इदन्नमम' और 'अल्मा कबूतरी' जैसे उपन्यासों की बहुपठित लेखिका मैत्रैयी पुष्पा की इस औपन्यासिक आत्मकथा के कुछ अंश यत्र–तत्र प्रकाशित होकर पहले ही खासे चर्चित हो चुके हैं अब पुस्तक रूप में यह सम्पूर्ण कृति निश्चय ही हिन्दी के आत्मकथात्मक लेखन को एक नई दिशा और तेवर देगी।

हर आत्मकथा एक उपन्यास है और हर उपन्यास एक आत्मकथा। दोनों के बीच सामान्य सूत्र 'फिक्शन' है। इसी का सहारा लेकर दोनों अपने को अपने आप की कैद से निकालकर दूसरे के रूप में सामने खड़ा कर लेते हैं। यानी दोनों ही कहीं सर्जनात्मक कथा–गढ़न्त हैं। इधर उपन्यास की निर्वेयक्तिकता और आत्मकथा की वैयक्तिकता मिलकर उपन्यासों का नया शिल्प रच रही हैं। आत्मकथाएँ व्यक्ति की स्फुटित चेतना का जायजा होती हैं, जबकि उपन्यास व्यवस्था से मुक्ति–संघर्ष की व्यक्तिगत कथाएँ। आत्मकथा पाए हुए विचार की या 'सत्य के प्रयोग' की सूची है और उपन्यास विचार का विस्तार और अन्वेषण।

जो तत्व किसी आत्मकथा को श्रेष्ठ बनाता है वह है उन अन्तरंग और लगभग अनछुए अकथनीय प्रसंगों का अन्वेषण और स्वीकृति जो व्यक्ति की कहानी को विश्वसनीय और आत्मीय बनाते हैं। हिन्दी में जो गिनी–चुनी आत्मकथाएँ हैं, उनमें एक–आध को छोड़ दें तो ऐसी कोई नहीं है जिसकी तुलना मराठी या उर्दू की आत्मकथाओं से भी की जा सके। इन्हें पढ़ते हुए कबीर की उक्ति 'सीस उतारै भूंई धरै' की याद आती है। यह साहसिक तत्व कस्तूरी कुंडल बसै में पहली बार दिखाई देता है।

लेखन कर्म से जुड़े किसी भी व्यक्ति का जीवन पटरियों पर चलने वाली रेल सरीखा नहीं होता कि जो समाजसम्मत निर्धारित स्टेशन से चलकर तयशुदा स्टेशन पर जा कर समाप्त हो जाए। लेखक-लेखिका के जीवन में सैंकड़ों मोड़, उतार–चढ़ाव और पड़ाव होते हैं। उसका जीवन सम्बन्धों की प्रयोगशाला होता है। वह आम परम्परावादी इन्सानों की तरह बेनाप के रिश्ते पहन कर जोकर जैसा हास्यास्पद जीवन जीना पसन्द नहीं करता। उसे अपने मानसिक कद के अनुरूप रिश्ते की तलाश निरन्तर यत्नशील रखती है। उसकी इस यत्नशीलता को दुनिया कभी अय्याशी, कभी चरित्रहीनता तो कभी समाजद्रोह कहती है, लेकिन उसकी यह तलाश दरअसल दाम्पत्य के वर्तमान घुटन भरे परिवेश से मुक्ति और खुले हवादार रिश्तों के निर्माण की एक रचनात्मक प्रक्रिया होती है। कहानी या उपन्यास की अपेक्षा आत्मकथा लेखन में हम इस सच्चाई को ज्यादा गहराई से जान और समझ सकते हैं।

मैत्रेयी पुष्पा की सद्यःप्रकाशित आत्मकथा 'कस्तूरी कुंडल बसै' में यह सच्चाई हालाँकि आत्मकथा का मुख्य उद्देश्य नहीं है। मुख्य मुद्दा तो पुरूषवादी व्यवस्था द्वारा स्त्री पर सदियों से लादी गई गुलामी से मुक्ति और स्त्री सशक्तिकरण ही है। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से आत्मकथा की अन्तर्धारा में यह सच्चाई प्रवहमान नज़र आती है।

तीन सौ बत्तीस पृष्ठों और नौ प्रसंग–क्रमों में फैली इस आत्मकथा में स्त्री के अन्तर्जगत के कई ऐसे अछूते स्थलों, कई ऐसे गुप्त गृहों और उनमें रखे बक्से, 'पिटारियों और पोटलियों' से पाठक का साक्षात्कार होता है जहाँ अभी तक कोई कोलम्बस नहीं पहुँचा। कुल मिला कर यह आत्मकथा, लेखिका द्वारा पाठकों की अदालत में उठाई गई सच की शपथ पर पूरी तरह से खरी उतरती है। क्योंकि इसमें लेखिका ने अपनी कमजोरियों से जम कर मुठभेड़ की है।

—अमरीक सिंह दीप

 
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