| 
					 गली 
					में अभी धूप पसरी हुई थी। गर्मियों की शाम पाँच बजे का समय कुछ 
					नहीं होता। सूरज तब भी सिर पर चमकता-सा लगता है, जमीन तप रही 
					होती है। लोग घरों में दुबके होते हैं और मोहल्ले में सन्नाटा 
					पसरा लगता है। इक्का-दुक्का रिक्शेवाले.... यह समय गली में 
					पैदल चलने के लिये, कुछ रहस्य बाँटने के लिये, दो बच्चियों को 
					सही लगा। ‘‘माँ और मामी क्या बातें कर रही थीं ?’’
 ‘‘तुमने सुना नहीं?’’
 ‘‘नहीं न!’’
 ‘‘चल, बताऊँ।’’
 चारु ने चंदामामा छोड़ा और रूपा के साथ हो ली।
 ‘‘यहीं कहाँ निकल रही हो तुम, इतनी धूप में?’’ पीछे से चारु की 
					माँ ने टोका।
 ‘‘ये बस गली के मोड़ तक। चिक्कू को घुमा लायेंगे।’’
 ‘‘नहीं, अभी धूप है।’’
 ‘‘थोड़ी दूर तो है। अच्छी हवा चल रही है। घर में बंद हैं दिन 
					भर। जाने दीजिये न फुआ।’’ रूपा ने चिरौरी की।
 ‘‘अच्छा जाओ। ज्यादा इधर-उधर मत जाना। सीधे भाभी के पास।’’
 ‘‘हाँ!’’
 
 रूपा ने चारु को इशारे से बुलाया और दोनों बाहर निकल आईं।
 भाभी ने अलसाते हुए दरवाजा खोला। दस बरस की रूपा उनकी दूर के 
					रिश्ते से ननद है और गली के छोर का आखिरी मकान उनका है। वे जिस 
					किराये के मकान में हैं वह इन दोनों के घरों के बीच पड़ता है। 
					इसी गली के अगले छोर पर रहने वाली ग्यारह साला चारु, रूपा की 
					फुफेरी बहन है। उनका डेढ़ साल का बेटा चिक्कू इन बच्चियों का 
					प्रमुख आकर्षण है। आज भी आ पहुँचीं। डटी हुई हैं कि चिक्कू को 
					घुमाने ले जायेंगी-बाबा गाड़ी में। भाभी को लगा कम से कम आधा 
					घंटा के लिये जान छूटी। शरीर सीधा कर लें, फिर चाय बनायेंगी। 
					उमेश के लौटने तक ये लौट आयेंगी।
 जब वे बाबागाड़ी में चिक्कू को डालकर घर से निकलीं, तब तक सचमुच 
					शाम हो गई थी और ठंडी हवा चलने लगी थी।
 रूपा ने मोर्चा सँभाला-सदा की दादी अम्मा। पाको मामा!
 
 चारु को जानने की उत्कंठा। कभी कायदे से सुन जो नहीं पाती बड़ों 
					की बातें ...हालाँकि आसपास ही बैठी होती है। अभी रूपा मिली है। 
					इसको सब पता होगा।
 ‘‘पता है, वो बनर्जी साहब हैं न, हमारे किरायेदार, उनकी दीपू 
					घर से भाग गई।’’
 ‘‘कब?’’ चारु ने अविश्वास से मुँह बनाया।
 ‘‘कल। उसके माँ-बाबा में खूब लड़ाई होती है न। लगता है, इसीलिये 
					चली गई।’’ रूपा ने अपनी अकल लगाई, फिर जोड़ा-घर में चिट्ठी छोड़ 
					गई है कि मुझे मत खोजना। सब कहते हैं कोलकाता गई है। वही तो 
					बता रही थीं माँ, फुआ को।’’
 माँ-पिता में लड़ाई हो तो घर से भाग जाना चाहिये ?’’ चारु सोचने 
					लगी। उसे उचित नहीं लगा। चुपचाप रूपा के साथ चलती रही।
 
 लेकिन यह सच था कि सारे रहस्य ऐसे ही खुलते हैं चारु के लिये। 
					कोई कुछ बतला देता है, कोई कुछ समझा देता है, कान में फुसक 
					देता है, तो वह सुन लेती है। कभी आधी-अधूरी, अधकचरी बातें भी! 
					आज भी वह चेहरे से निर्विकार लेकिन मन में नई मिली जानकारी को 
					गुनती हुई, साँझ ढले घर वापस लौटी। किसी से कुछ पूछना भी नहीं, 
					डाँट पड़ेगी, रूपा ने समझा दिया है। उससे भी किसी ने कुछ खास 
					नहीं पूछा। उसने दूध पिया, एक रोटी खायी और फिर चंदामामा 
					पढ़ते-पढ़ते सो गई।
 स्कूल में चारु का उठा हुआ हाथ हवा में झूल गया।
 नेली दी ने इस बार भी उसे सवाल का जवाब नहीं देने दिया।
 ‘‘रीना, तुम बोलो, पानीपत की दूसरी लड़ाई किस ईसवी में हुई?’’
 ‘‘विभा, तुम?’’
 ‘‘नेली दी, आप मुझे बोलने क्यों नहीं देतीं?’’ चारु ठुनकी। उसे 
					नेली दी अच्छी लगती है और इसलिये इतिहास भी।
 ‘‘हर बार तुम्हीं बोलोगी? मैं जानती हूँ तुम्हें सही जवाब 
					मालूम है। ये लड़कियाँ जो पढ़ती नहीं, इन्हें पढ़ाना है मुझे।’’ 
					नेली दी चारु की तरफ प्यार से देखकर मुस्करा दीं।
 क्लास में खुसफुस शुरू हो गई।
 
 क्लास के बाद खेल के मैदान में उसे रीना ने रगड़ा। श्यामली और 
					सुषमा साथ में।
 - जब नेली दी बोलती हैं, तब तो सब सुनाई देता है और जब हम 
					बोलते हैं तो सुनाई नहीं देता।
 -जानबूझकर नहीं सुनती। हम सब समझते हैं।
 -मेरी साँस नहीं रुकी थी। तुम हारीं। मैं धीमे बोल रही 
					थी-कबड्डी-कबड्डी.... ऐसे।’’
 सुषमा अपना मुँह चारु के कानों के पास ले आई, फिर गुस्से से 
					बोली, ‘‘तुम अपने कान डॉक्टर को दिखाओ।’’
 -तुम क्या कम सुनती हो! चारु बुरा मत मानना, लेकिन मुझे लगता 
					है यह रीना थी।
 ‘‘जी नहीं, मैं सब सुन सकती हूँ। नहीं खेलूँगी जाओ।’’ दृढ़ स्वर 
					में बोलती हुई, गुस्सा दिखाती हुई, चारु अलग जा खड़ी हुई, सबसे 
					दूर। कभी नहीं जानने देगी किसी को कि वह कम सुनती है। कितनी 
					शरम की बात है।
 रात का समय.... भाई कहीं से अमीन सयानी का कैसेट उठा लाया है। 
					टू इन वन को घेरकर खड़े हैं सब। बिनाका गीतमाला में अमीन सयानी 
					की आवाज गूँजती है, ‘‘और आखिरी पायदान पर है यह गीत-जय जय शिव 
					शंकर...।’’
 
 चारु सुनती है, गुनगुनाने की कोशिश करती है और अटकती है, जो 
					तूने मुझे थाम न लिया, सौरभ जी ठहाका लगाता है, भाई, ‘‘नहीं 
					मेरा नाम नहीं है इस गाने में।’’
 ‘‘बताइये न, क्या गाती है?’’ चारु मिन्नतें करती है। आकुल है 
					जानने के लिये।
 दीदी मुस्कराती है। छोटी बहन हँसती है, ‘‘ही!ही! इसे तो सुनाई 
					ही नहीं देता!’’
 कोई नहीं बताता। कोई नहीं देखता साँवली-सलोनी चारु का रुँआसा 
					हो आया चेहरा!
 चारु खूब पढ़ती है। बड़ी-बड़ी किताबें। कोर्स की किताबों के सिवा 
					भी बहुत कुछ-कहानी, उपन्यास, कविता की किताबों में डूबी रहती 
					है। खूब अच्छा ध्यान है उसका। चारों तरफ के हो-हंगामें में भी 
					पढ़ लेती है। किताबें उसे बहुत अच्छी लगती हैं। वे उस पर हँसती 
					जो नहीं...।
 ‘‘धीमे बोल, सुन लेगी।’’
 ‘‘ना, वो ऊँचा सुनती है। ऐसे भी डूबी है किताब में।’’
 ‘‘केतना पढ़े हो!..’’
 ‘‘खूब मने लगे है’।’’
 
 वे अपनी गति से अपने सहज स्वर में बातें करती रहीं। बगल में 
					बैठकर। रूपा की माँ चारु की माँ से। ननद-भाभी..!
 चारु को गुस्सा आया। उठकर दूर जा बैठी। वह हाव-भाव से पकड़ लेती 
					थी कि उसी के बारे में कुछ बातें हो रही हैं। कान लगाया। कान 
					होते तब तो...कभी पानी आयेगा, कभी पस, कभी आवाजें, सारे समय 
					जैसे बंद रहते हैं कान। जाते रहो डॉक्टर के पास, ठीक ही नहीं 
					होता। इसीलिये तो वह चुप किताबें पढ़ती है। अपनी दुनिया में 
					गुम।
 बनर्जी साहब का परिवार मुहल्ले से चला गया, दूसरे शहर में। यह 
					चारु ने रूपा से ही जाना।
 चारु अब कॉलेज में पढ़ती है। खूब सारी किताबें और एक-दो दोस्त। 
					सह-शिक्षा वाला कॉलेज। लड़कों से तो बात करने का प्रश्न ही 
					नहीं, लड़कियों के बीच भी गुमसुम।
 -चारु तू बोला कर यार!
 -मुझे भी तो टांसिल्स हैं। आपरेशन करवाना है। मैं तो तेरी तरह 
					चुप नहीं रहती! पता है मैं रवि शास्त्री पर फिदा हूँ। क्या 
					खेलता है यार। इतना हैंडसम है। मैं तो उसकी बीवी बनना चाहती 
					हूँ।
 नंदिता चहक रही थी। गोरी सुन्दर नंदिता!
 -दूसरी बीवी? चारु ने टोका।
 -चलेगा...।
 
 हो..हो..हो..। इस बार सम्मिलित ठहाके में चारु की धीमी हँसी भी 
					शामिल थी।
 -देख शबाना, तुझे तो डॉक्टर बनना है न। ई इन टी स्पेशलिस्ट 
					बनना। चारु के टांसिल ठीक करना।
 -लेकिन मुझे साइनस की बीमारी भी है। चारु के बोल फूटे।
 -हाँ, वह भी ठीक हो जायेगा। ई एन टी का ही मामला है।
 -हाँ, उससे मन बहुत खराब लगता है। इसलिये तू चुप रहती है, है 
					न! शबाना ने सहानुभूति जतायी।
 -हाँ! टांसिल्स की वजह से कान भी भारी रहते हैं।
 -हाँ, यह होता है!
 चारु ने आश्वस्ति की साँस ली। झूठ काम कर गया था।
 हँसती-खिलखिलाती लड़कियों का झुंड गर्ल्स कॉमन रूप में प्रवेश 
					कर गया।
 इसे पढ़ना अच्छा लगता है, इसे पढ़ने दो।
 
 चारु के माता-पिता रात के भोजन के बाद आपस में धीमे स्वर में 
					बात कर रहे थे, ‘‘इतना कम सुनती है, कैसे होगी इसकी शादी!’’
 ‘‘इतना पैसा भी नहीं कि आपरेशन ही करवा देते। कान के परदे में 
					जो बड़ा छेद है, उस पर चिप्पी लगा देते हैं डॉक्टर। 
					टिम्फोप्लास्टी कहते हैं उस आपरेशन को। कहते हैं कि तब ठीक 
					सुनाई पड़ने लगता है। लेकिन बहुत बार आपरेशन फेल भी हो जाता 
					है।’’
 ‘‘चारु बहुत कमजोर भी है। इसका आपरेशन सफल होगा क्या?’’
 ‘‘इसे पढ़ने दो। अपने पैरों पर खड़ी हो जायेगी तो शायद ब्याह भी 
					हो जाये। न हो तो आत्मनिर्भर तो हो ही जाएगी।’’
 ‘‘पढ़ना तो अच्छा लगता ही है उसे।’’
 चारु को, रेलवे में छोटे अफसर, उसके बाबूजी ने कहा है कि वह 
					जितना चाहे पढ़ेगी। कोई नहीं रोकेगा उसे। चारु को नहीं पता 
					उन्होंने आपस में क्या बातें की हैं। चारु खुश है!
 खूब पढ़ने वाली चारु यूनिवर्सिटी में आ गई है। एम.ए. कर रही है- 
					सोशियोलाजी में। खाली पीरियेड में सब लड़के-लड़कियाँ साथ बैठते 
					हैं। गाते हैं, गुनगुनाते हैं नोट्स बनाते हैं, प्रोफेसरों के 
					कैरीकेचर से लेकर दुनिया भर की बातें और हँसी-मजाक करते हैं। 
					सब दोस्त हैं। बारह छात्र-छात्राओं का एक ग्रुप है जिसमें चारु 
					भी है।
 अशोक उसे ध्यान से देख रहा है।
 क्या हुआ? चारु ने नजर उठाई।
 
 मैं तुम्हीं से पूछ रहा हूँ, तीसरी बार! तुमने फाइनल एग्जाम के 
					लिये नोट्स बना लिये? किस दुनिया में रहती हो तुम? सुनती ही 
					नहीं।’’
 अब चारु ने कमरे में नजर दौड़ाई, सब उसे देख रहे हैं और हँस रहे 
					हैं।
 ‘‘गजब का कन्सेन्ट्रेशन है यार! टॉप करेगी।’’
 ‘‘हाँ, मैं कुछ सोच रही थी।’’
 ‘‘इतना मत सोचा करो। शेयर किया करो। कुछ हम भी सोच लेंगे।’’
 सम्मिलित हँसी.....
 चारु उठ खड़ी हुई।
 अनूप गा उठा-
 रुक जा, रुक जा ओ जाने वाली रुक जा.....
 चारु को रुकना नहीं था। उसे तो नौकरी तक पहुँचना था, कैसे रुक 
					जाती।
 हमारा क्या दोष है?
 
 बैंक की नौकरी चारु को रास आ गई है। हाँ, घर से दूर हो गई है। 
					राँची से जमशेदपुर की दूरी अधिक नहीं है, यह अच्छी बात है। 
					वर्किंग वीमेन्स हॉस्टल में रहती है चारु। एक नया अनुभव! बैंक 
					में बगल की टेबल पर बैठने वाली अनीता, चारु को अच्छी लगती है। 
					उन दोनों में एक समानता है। दोनों के ही कान खराब हैं।
 ‘‘मुझे कम सुनाई देता है।’’
 ‘‘मुझे भी।’’
 ‘‘क्यों, क्या हुआ था तुम्हें?’’
 ‘‘गलत दवा दी थी डॉक्टर ने बचपन में। कान के परदों पर असर पड़ 
					गया। सारे वक्त कान से पानी आने लगा। कभी पस आता। बहुत ईलाज 
					हुआ, होम्योपैथी का। अब कान सूखे रहते हैं तो पहले से बेहतर 
					सुनाई देता है, लेकिन बहुत बड़ा छेद है, एक कान के परदे में। 
					दूसरे में उससे छोटा। डॉक्टर ने बताया था चेक करके कि सुनने की 
					क्षमता पचहत्तर प्रतिशत ही है। तब छोटी थी। कहा, बड़े होने पर 
					हो सकता है परदे अपने आप बन जायें। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। चेक 
					कराया था मैंने। आपको क्या हुआ था?’’
 
 ‘‘मलेरिया। उसका असर कान पर पड़ा’’, फिर थोड़ा हँसकर बोली अनीता, 
					‘‘मुझे तो सब ‘‘बहरी’’ बुलाते थे स्कूल में। बहुत गुस्सा आता 
					था। जबकि मैं इतना भी कम नहीं सुनती थी। डॉक्टर भी कहते हैं, 
					छोटा सा छेद है। बीस प्रतिशत कम सुनती है, लेकिन तब समझ नहीं 
					थी न। बता दिया था और सबको मौका मिल गया हँसने का। अब इसलिये 
					मैं जल्दी किसी को बताती नहीं। तुम अच्छी दोस्त हो इसलिये इतने 
					दिनों बाद बता दिया।
 ‘‘मैं तो बताती ही नहीं किसी को। कभी ऐक्सेप्ट ही नहीं किया। 
					कितने शरम की बात है!’’
 ‘‘इसमें शरम की क्या बात है! इसमें हमारा क्या दोष!’’
 चारु ने सोचा-लेकिन अगर वह अब भी अपनी समस्या से बाहर आने की 
					कोशिश नहीं करती तो यह जरूर उसका दोष होगा।
 
 
 पहली कोशिश
 
 ‘‘डॉक्टर ने कहा, ‘‘वन टू जीरो।’’
 ‘‘गलत। डॉक्टर ने कहा था.....फोर टू जीरो। चार सौ बीस। 
					तुम्हारा कान अभी भी ठीक नहीं हुआ।’’
 यह प्रतीक था। छोटे भाई-सा। उसकी टाँग-खिंचाई में अव्वल, लेकिन 
					दिल का भला।
 सब खिलखिलाकर हँसे। चारु भी। सहज मुक्त हँसी। जीवन में पहली 
					बार।
 अपनी नौकरी के बूते जमा किये पैसे से अपने कान का आपरेशन 
					करवाकर चारु खुश है। बैंक की नौकरी ने उसे दोस्त दिये हैं। 
					चारु को अब नहीं छुपाना किसी से कुछ भी। वह तो बाहर आ गई अपनी 
					समस्या से। अनीता ने ही साहस दिया। वही आसपास रही आपरेशन के 
					वक्त। माँ-बापू तो रुक नहीं सकते थे, घर भी देखना था। बस एक 
					दिन रुके और वापस हॉस्टल पहुँचाकर चले गये।
 आजकल चारु बौखलाई-सी घूमती है। अचानक से उसके चारों ओर आवाजें 
					ही आवाजें हैं। उसके चलने से चप्पलों से आवाज होती है, घड़ी की 
					टिकटिक परेशान करती है, रजिस्टर के पन्ने पलटने से भी आवाज 
					होती है...इतनी सारी आवाजें, इतना शोर है दुनिया में?
 
 भौंरे सचमुच कान में गुन गुन करते हैं। कवियों की कल्पना नहीं 
					है यह।
 सड़क पर गाड़ियों का शोर कितना ज्यादा है!
 कमरे के अन्दर, बंद खिड़कियों से भी शोर की आहट पहुँच जाती है, 
					चिड़ियों की आवाज के साथ!
 तेज हवा सन-सन करती है। हवा की भी आवाज होती है!
 रोमांचित है चारु, बौखलाई हुई है चारु, मुग्ध है चारु! 
					आवाजें-आवाजें-आवाजें! कितनी आवाजें हैं दुनिया में, वह पच्चीस 
					साल में पहली बार जान रही है।
 सोचे तो, कितनी अजीब बात है!
 फिर चारु ने सोचा, उसने जाना तो! अगर कभी जान ही न पाती!
 यह खुशी बहुत दिन कायम न रही। एक दिन बरसाती मौसम में फिर से 
					कान में पानी आया। वह भागी डॉक्टर के पास। ‘‘आय अम सॉरी, 
					‘‘जवाब मिला, ‘‘ऐसा होता है।’’ टिम्फोप्लास्टी के अस्सी 
					प्रतिशत आपरेशन ही सफल हो पाते हैं।’’ चारु बाकी के बीस 
					प्रतिशत में आती है। चारु का नसीब! चारु फिर से बौखलाई हुई है।
 आवाजें गुम। जिंदगी मुँह चिढ़ा रही है।
 
 दूसरी कोशिश
 
 चारु घर आई है। तीन बरस हो गये उसे नौकरी करते हुए, अब तो शादी 
					हो ही जानी चाहिए। उसकी शादी के लिये रायपुर में बात तय हुई 
					है। उसे उस लड़के से मिलना है, बात करनी है। वह भी स्टेट बैंक 
					में है, बात बनी तो कल को ट्रांसफर ले सकती है।
 ‘‘मुझे अपने कान चेक कराने हैं फिर से। अगर उसकी बात ठीक से न 
					सुन पाई तो क्या जवाब दूँगी। मुझे सुनने की मशीन लेनी है। इतनी 
					अच्छी तो मशीनें आती हैं अब। कान के पीछे लगाने वाली। मैं अपने 
					पैसे से खरीद लूँगी।’’
 चारु घबराई हुई है। चारु डरी हुई है। वह शादी करना चाहती है। 
					माँ ले जाती हैं डॉक्टर के पास।
 ‘‘इतनी तो खराब नहीं है इसकी सुनने की क्षमता। फिर लड़की का 
					मामला है। मशीन दे दूँ और बात कट जाय इसी बात पर तो? सोच 
					लीजिये। मैं तो कहूँगा, शादी के बाद यह सब सोचिये।’’ डॉक्टर ने 
					उसके कान चेक करने के बाद फरमाया।
 चारु को बेहद गुस्सा आया। उसे श्रवण यंत्र चाहिये लेकिन यह 
					डॉक्टर देगा नहीं। माँ किसी और के पास भी नहीं ले जायेगी। सब 
					यही कहेंगे। न सुन पाई, इसी बात पर कट जा सकती है शादी। यह 
					नहीं सोचते और अगर हो गई शादी तो झेलेगी चारु, इन्हें क्या!
 ‘‘बी प्रैक्टिकल! छोटी की भी शादी करनी है।’’
 ‘‘ठीक है, मैं करूँगी उससे शादी, लेकिन उसे बता दो कि मैं कम 
					सुनती हूँ।’’
 ‘‘ठीक है, बतला दिया जायेगा उसे। पहले बात आगे तो बढ़े।’’
 चारु गई रायपुर। मिली उससे, दोनों परिवारों के सामने। वह मिलना 
					ऐसा नहीं था कि वह खुद कुछ कह पाती। लेकिन, लड़के वालों को पसंद 
					आ गई। शादी तय हो गई। उसने बाद में स्नेहलता को पटाया। वह उसके 
					बैंक में थी और उन लोगों को जानती थी। उसके आश्वासन से 
					निश्चिन्त हुई कि उसकी समस्या जानने के बाद भी अरविंद उससे 
					शादी करने को तैयार है। खुश हुई।
 चारु की शादी हो गई। शादी के साल बीतने से पहले ही वह रायपुर 
					पहुँच गई अपनी नौकरी के साथ।
 
 आखिरी कोशिश
 
 ‘‘किस दुनिया में रहती हो? कुछ बोल रहा हूँ मैं, सुना करो।’’
 चारु ने असहाय भाव से नजरें उठाईं, ‘‘जानते तो हो, कम सुनती 
					हूँ। जरा जोर से बोला करो।’’
 ‘‘अरे वाह! यह कब हुआ? नई खबर!’’
 ‘‘स्नेहलता ने नहीं बताया? उसने तो कहा था कि बतला दिया है और 
					तुम मुझसे शादी करने को तैयार हो तब भी।’’
 ‘‘मुझे तो किसी ने नहीं बताया। अच्छा धोखा है’’
 गुस्से में बड़बड़ाता अरविंद कमरे से बाहर हो गया। वह पीछे-पीछे 
					आई, ‘‘तुम्हें किसी ने धोखा नहीं दिया। कम से कम मैंने तो नहीं 
					ही। मैं तो शादी के लिये मिलने से पहले ही श्रवण यंत्र खरीद 
					लेना चाहती थी कि तुम्हें ठीक से सुन सकूँ’’
 ‘‘तो लिया क्यों नहीं? फिर कुछ कहने-सुनने की जरूरत ही न होती। 
					मैं पहले ही मना कर देता। मशीन वाली लड़की से शादी करके अपनी 
					बेइज्जती थोड़े ही करवाता।
 ‘‘तुमने कभी देखी भी है वह मशीन?’’
 ढेर सारे आँसू बहा, लड़ने-झगड़ने, मान-मनौवल के बाद वह अंततः 
					अरविंद को शहर के आडियोलाजिस्ट के पास अपने साथ जाने को राजी 
					कर पाई। इस बिंदु तक आने में भी महीनों लगे, लेकिन वहाँ मशीन 
					की कीमत सुनकर वह बिदक गया,
 ‘‘सवा लाख। तुम अपने सारे गहने बेच दो, तब आयेगी मशीन।’’
 ‘‘लोन लेकर ले सकते हैं, कुछ सालों में चुक जायेंगे।’’
 ‘‘नई शादी, नई नौकरी। अभी दूसरे खर्चे नहीं होंगे क्या?’’
 बात सही थी।
 
 चारु ने इंतजार किया। अगले पाँच साल। झेलती रही 
					अपमान...व्यंग्य। लड़ती रही अरविंद से अपनी निरपराधिता साबित 
					करने के लिये, अपने तरीके से। एक बच्चे की माँ बनी। पति का 
					विश्वास जीता और फिर एक दिन किश्तों पर नया श्रवण यंत्र खरीदने 
					आडियोलाजिस्ट के पास पहुँच गई। इस बार अरविंद की सहमति से, 
					उसके साथ।
 पुनर्जन्म मिला जैसे।
 
 एक छोटा सा बुकलेट और बारह इंच चौड़ा, छह इंच लम्बा डब्बा अब 
					उसके हाथ में था। डब्बे के अन्दर दो छोटे गोल डब्बे और डब्बे 
					से निकलीं दो छोटी-छोटी कान के अन्दर छुप जाने वाली मशीनें । 
					क्या यह वैसे ही काम करेंगी, वैसा ही महसूस होगा उसे, जैसा 
					टिम्फोप्लास्टी के बाद हुआ था! वह उत्तेजना से काँप रही थी। 
					आडियोलाजिस्ट ने उसे शीशे की दीवारों से घिरे कमरे में बैठाया। 
					कम्प्यूटर से श्रवण क्षमता की जाँच की और मशीन उसकी जरूरत के 
					हिसाब से सेट कर दी कान के पीछे। चारु सहसा पीछे लौट गई। 
					जमशेदपुर...ऑपरेशन... वन टू जीरो... हाँ, फिर से वही आवाजें 
					हैं, वही शोर-जो अपनी झलक दिखाकर गायब हो गये थे। घड़ी की 
					टिकटिक कानों तक पहुँचने लगी, कागजों की फड़फडाहट भी। बाहर 
					निकली तो सड़क पर चल रहे वाहनों की आवाज, इन सबके बीच कौओं की 
					काँव-काँव और बगल की दूकान पर धीमे स्वर में बज रहा गाना भी। 
					वही पुराना गाना- जय-जय शिव....शंकर रोमांचित हो उसने सुना- 
					सौं रब दी सौं रब दी। उसके पैर ठिठक गये।
 ‘‘रुक क्यों गई?’’
 ‘‘यह गाना’’
 ‘‘तुम्हारा फेवरेट है?’’ अरविंद मुस्कराया।
 ‘‘नहीं, आज सुन पाई। सौं रब दी।’’
 आँखों के कोरों से एक बूँद आँसू ढलक गया, गला रुँध गया। अरविंद 
					ने अबूझ नजरों से उसे ताका।
 
 चारु ने होंठ भींचे। पर्स से रूमाल निकाला, आँसू पोंछा और सहज 
					होने की कोशिश करती हुई साथ-साथ चलने लगी। कुछ कहने की इच्छा 
					ही न हुई। बरसों से कुंठित स्वाभिमान जाग रहा था, बीता समय 
					चलचित्र की तरह आँखों के आगे आ
  रहा 
					था। बचपन से तो हमेशा झेला ही, अपने पैरों पर खड़े होने के बाद 
					भी इतने साल इंतजार करना पड़ा! अरविंद ने ही कब उसकी परेशानी 
					समझी, गुस्सा दिखाता रहा हर वक्त। उसके न सुन पाने की कुंठा मन 
					में पाले रहा इतने साल और अगर आज उसका साथ देने को राजी हुआ है 
					तो वह इसलियें नहीं कि उसने उसका दुख महसूस किया, वरन इसलिये 
					कि वह जिस समाज में जीता है, उसमें चारु की यह कमजोरी उसकी 
					इज्जत घटाती है, इसलिये भी कि चारु अपने बूते पर लोन की 
					किश्तें चुका सकती है। अगर वह आवाजों की दुनिया से इतने साल 
					बाहर रही, तो उसकी वजह यह नहीं थी कि उसकी श्रवण शक्ति कम थी। 
					यह दुनिया ऊँचा सुनती है! बहरी और कम अक्ल है यह दुनिया! |