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साहित्यिक निबंध

१ सितंबर जन्मदिवस के अवसर पर के अवसर पर

सदा सजीली गजल दुष्यंत की
-शैलेन्द्र चौहान
 


अपने तीसरे कविता संग्रह 'जलते हुए वन का वसंत' की भूमिका में दुष्यंत कुमार कहते हैं कि 'मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं हैं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राएँ नहीं हैं, मैं सामाजिक परिस्थिति के संदर्भ में साधारण आदमी की पीड़ा, उत्तेजना, दबाव, अभाव और उनके संबंधों में उलझनों को जीता हूँ और व्यक्त करता हूँ। मेरे लिए मनुष्य मात्र की अवमानना सबसे अधिक कष्टप्रद है।' इसी भावभूमि, विचार और संवेदना के तहत दुष्यन्त का परवर्ती लेखन निरंतर निखरता रहा एवं अधिक समृद्ध होता गया। अपने पहले कविता संग्रह 'सूर्य का स्वागत' से लेकर 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का वसंत' और ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' तक उनकी काव्य-प्रतिभा और प्रखरता लगातार परवान चढ़ती रही। उनका काव्य नाटक 'एक कंठ विषपायी' और दो उपन्यास 'छोटे छोटे सवाल' तथा 'आँगन में एक वृक्ष' भी इस दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।

दुष्यंत कुमार ने अपनी अधिकांश लोकप्रिय गज़लें अंतिम समय में ही लिखीं। कहते हैं कि बुझते दिए की लौ तेज होती है। इन्हीं गज़लों की वजह से दुष्यंत ने साहित्य में एक मुकम्मिल जगह बना ली। उनकी अंतिम समय की लिखी गजलें न केवल बेइंतिहा लोकप्रिय हुर्इं अपितु इन गज़लों को एक जड़ व्यवस्था का तीव्र विरोध भी सहना पड़ा। व्यवस्था वादी लोगों ने कहा कि हिंदी में गज़ल कोई विधा ही नहीं है। यह बहुत हल्की चीज है और साहित्य में इसका कोई महत्वपूर्ण स्थान भी नहीं। अब इसकी वजह क्या रही यह पता कर पाना बहुत मुश्किल काम नहीं। दरअसल दुष्यंत की गज़लें एक पैनी सामाजिक और राजनैतिक चेतना की बेमिसाल नमूना थीं । वह इतनी संवेदनात्मक थीं कि लोगों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती थीं। अत: संवेदन-हीन और रूढ़ व्यवस्था के पक्षधरों द्वारा उनका विरोध होना स्वाभाविक ही था। इस से पहले न तो कभी गज़ल को साहित्य की विधा मानने से इन्कार किया गया न ही उसे हल्की चीज माना गया। ७० के दशक में दुष्यंत कुमार ने 'गजल' को एक नई जिंदगी दी। दिल को छूने वाले सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने में दुष्यंत की भाषा एवं शैली ने जादू-सा कर दिया।'

उर्दू गज़ल का मिज़ाज़ दरबारी था । उसकी विषयवस्तु, उसकी शब्दावली, संवेदना, लय, उन्मान, प्रतीक सब सुनिश्चित थे उन्हें तोड़ना या विकसित करना बहुत मुश्किल काम था। शमशेर बहादुर सिंह ने संभवत: इस दिशा में पहल की जब उन्होंने कहा-'हक़ीक़त को लाए तखैयुल से बाहर, मेरी मुश्किलों का हल जो पाए'। शमशेर जी के बाद दुष्यंत कुमार ही एक ऐसे शायर हुए जिन्होंने उर्दू गज़ल के बँधे-बँधाए ढाँचे को एकदम तोड़ दिया। यों हिंदी में गज़ल लिखने की पहल जयशंकर प्रसाद, निराला, देवी प्रसाद पूर्ण, राम नरेश त्रिपाठी आदि कवियों ने की पर वे चूँकि उर्दू की परंपरागत गज़लों और उसके छंद शास्त्र से कतई भिन्न थीं सो तब बहुत लोकप्रियता उन्हें हासिल नहीं हुई। इसका एक कारण उनकी रूढ़ और पारंपरिक विषयवस्तु भी रहा होगा। पर दुष्यंत ने जब गज़लें लिखीं तो उसकी विषयवस्तु बहुत प्रभावी था। अब यहाँ नई मुसीबत आ खड़ी हुई, व्यवस्था-विरोध पूर्ण शिद्दत से इन गज़लों में उभर कर आया। वहीं परंपरावादी गज़लकारों, ग़ज़ल प्रेमियों को आम, सहज भाषा का प्रभावी इस्तेमाल भी अखरा।

यों उर्दू की जदीद शायरी में भी आम बोलचाल की भाषा का काफी इस्तेमाल होता रहा था पर दुष्यंत को कैफ़ियत देना पड़ी कि उन्होंने शह्र को शहर और वज्न को वज़न जैसे शब्दों का उपयोग क्यों किया। बहरहाल जब दो मिसरों की गज़ल आम भाषा में नुमाया हुई तो रदीफ़, क़ाफ़िये, वज़न, टेक्सचर और भाषा के सवालात पैदा हुए। पर दुष्यंत कुमार की गज़लों ने इन सारे सवालों को दरकिनार करते हुए अपनी पुख़्ता और मुकम्मिल जमीन बनाई। यहाँ यह बताना ग़ैरमुनासिब नहीं होगा कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने भी उर्दू की परंपरा और शैली में गज़लें लिखीं थीं परंतु अपनी पारंपरिक शैली के कारण जन मानस में वह महत्वपूर्ण स्थान न पा सकीं। जाहिर है दुष्यंत की गज़लों की लोकप्रियता के पीछे हिंदी और उर्दू का फ़र्क नहीं बल्कि गज़लों की धारदार विषयवस्तु ही है।

हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते कि गज़ल उर्दू हो या हिंदी, गज़ल उर्दू से आई है वह हिंदी नहीं हो सकती। अलबत्ता उर्दू मिश्रित आम बोलचाल की भाषा में हो सकती है। ऐसी गज़ल यदि लोगों के करीब हो तो कोई आश्चर्य की बात भी नहीं। दुष्यंत की गज़लों में सामाजिक स्थितियों की पैनी और गहरी पड़ताल है तो राजनीतिक चेतना भी गजब की है। दुष्यंत आम आदमी के दुख दर्द, सियासत की चालबाज़ी, फ़रेब, पाखंड और जड़-व्यवस्था की मूल्य हीनता के ख़िलाफ़ बहुत तीखे ढंग से प्रतिक्रिया करते हैं। वह साफ़ कह उठते हैं -
कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।

यहाँ दुष्यंत की दृष्टि बहुत विस्तृत है। वह हर घर के लिए चराग़ की बात करते हैं। चराग़ का मतलब रोशनी से है और रोशनी का मतलब सुख, समृद्धि, शांति और समझदारी से है। हैरत की बात है कि आज चराग़ पूरे शहर के लिए यानि एक बहुत बड़े वर्ग के लिए मयस्सर नहीं है। यहाँ दुष्यंत की वर्ग चेतना बहुत स्पष्टता से मुखरित होती है लेकिन दुष्यंत इस स्थिति से हताश नहीं हैं। वह कहते हैं कि -
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए।

हर पल दुष्यंत कुमार की चेतना, मूल्य हीनता, सियासती दाँव-पेंच, सिद्धांतहीनता और प्रतिगामी स्थितियों को आरपार चीरती नजर आती है। उनकी संवेदनशीलता हर बार और अधिक वेधक हो उठती है -
कैसे-कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।

वे देखते हैं कि आम अवाम किस कदर असंवेदनशील हो गया है तब वे कहते हैं कि -
गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशाँ है कि वहाँ पर क्या हुआ होगा।
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा।

दुष्यंत की गज़लें देश के हालात ( जाहिर है ख़स्ता हालात ) से रूबरू हैं। वे इससे इतने जुड़े हुए दिखते हैं कि प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और गज़ल नुमाया होती है। दूसरी चीज जो इन गज़लों में बखूबी देखी जा सकती है वह है लोगों की संवेदनाओं को तेज करने की ललक। वह कुछ लोगों की संवेदन हीनता और शेष की जड़ता पर व्यंग्यात्मक प्रहार करते दीखते हैं -
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं।

आज के निम्न वर्ग के हालात पर और दिल्ली के संसदी-सियासती ढ़ोंग पर गज़ल है -
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ

'लोक की चिंता' आजकल राजनीति की दुनिया में बस दिखाने भर की चीज बच गई है। लोगों की परेशानी की नुमाइश अब जलसों-जुलूसों में की जाती है। भव्य आयोजन होते हैं यह बताने के लिए कि वे सब अवाम के लिए कितने फिक्रमंद हैं -
ये लोग होमो हवन में यकीन रखते हैं
चलो यहाँ से चलें, हाथ जल न जाए कहीं।

अभिव्यक्ति की आजादी और सत्ता का उससे डर दुष्यंत की एक गज़ल में यों आया है -
मत कहो आकाश में कोहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

दुष्यंत की गज़लों की जो सब से बड़ी विशेषता है, वह है उनका आशावाद। यही बात कम से कम मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करती है । वह साफ़गोई से कहते हैं -
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

सांप्रदायिकता और धार्मिक पाखंड पर वह क्षुब्ध होकर कह उठते हैं -
गजब है सच को सच कहते नहीं वो
कुरानो उपनिषद खोले हुए हैं,
मज़ारों से दुआएँ माँगते हो
अकीदे किस कदर पोले हुए हैं।

दुष्यंत कुमार का यह दृढ़ विश्वास था कि असली कविता सामाजिक जीवन से ही उभरकर सामने आती है। वे किसी स्कूल या साहित्यिक मत के हिमायती नहीं थे। वे एक ऐसी कविता शैली की तलाश कर रहे थे जो स्वाभाविक हो। काव्य के प्रति उनके इसी दृष्टिकोण ने उनमें सामान्य जीवन के यथार्थ को पुनर्सृजित करने का विश्वास पैदा किया।
'वे कविताएँ उसी हद तक मेरी हैं कि मैंने इन्हें लिखा और इन्हें जिया है। अगर आप इनमें एक परिचित आवाज को सुन पाते हैं, एक सहृदय भाषा और अपनापन महसूस करते हैं तो मैं समझूँगा कि मैं सफल हो गया।' दुष्यंत ने एक उम्र कविताएँ लिखने में गुज़ार दी, नाटक और उपन्यास भी लिखे पर लोकप्रियता गज़ल से ही मिली यह अकारण नहीं है। यहाँ तक कि उनके गीत भी गजलों की श्रेणी में पहचाने जाने लगे -
रह रह कर आँखों में चुभती है
निर्जन पथ की दोपहरी,
आगे और बढ़ो तो शायद
दृश्य सुहाने आएँगे।
और इन्हीं सुहाने दृश्यों की मधुर परिकल्पना के साथ ३० दिसंबर १९७५ को अल्प वय में भोपाल में हुए हृदयाघात से दुष्यंत चले गए लेकिन छोड़ गए एक विस्तृत आकाश, समृद्ध परंपरा और आने वाले स्वर्णिम कल की उम्मीद।

१ सितंबर २०१४

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