इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
सुरेन्द्र सुकुमार, डॉ. राकेश जोशी, सुशांत सुप्रिय, गोपाल कृष्ण भट्ट आकुल तथा
राजेश कुमार वर्मा की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है-
इस माह स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में विशेष व्यंजन-
तिरंगा पुलाव। |
गपशप के अंतर्गत- हमारा जीवन जितना मशीनीकृत हो रहा है, नींद में
कटौती बढ़ रही है। तमाम सुखों के बावजूद नींद बिना चैन कहाँ?-
विस्तार से... |
जीवन शैली में-
शाकाहार एक लोकप्रिय जीवन शैली है। फिर भी
आश्चर्य करने वालों की कमी नहीं।
१४
प्रश्न जो शकाहारी सदा झेलते हैं- ७
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सप्ताह का विचार में-
कोई भी व्यक्ति अयोग्य नहीं होता केवल उसको उपयुक्त काम में लगाने वाला ही कठिनाई से मिलता है। -शुक्रनीति |
- रचना व मनोरंजन में |
क्या-आप-जानते-हैं-
कि-आज-के-दिन-(४-अगस्त-को)
राणा उदय-सिंह,-बॉम्बे-क्रानिकल-के-संस्थापक-फीरोजशाह-मेहता,
हाकी खिलाड़ी ऊधमसिंह, गायक किशोर कुमार...
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लोकप्रिय
उपन्यास
(धारावाहिक) -
के
अंतर्गत प्रस्तुत है २००५
में
प्रकाशित
सुषम बेदी के उपन्यास—
'लौटना' का
छठा और अंतिम भाग। |
वर्ग पहेली-१९६
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि-आशीष
के सहयोग से |
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति
में- |
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है
भारत से कृष्णा अग्निहोत्री की कहानी-
मी अंजनाबाई देशमुख अहे
उसने बड़बड़ाते हुए अपनी झुकी कमर को कुछ
सीधा करने का प्रयास किया और लाठी पर पूरा वजन डाल अपने घर से
बाहर निकली। अचानक बगल की गली से एक छोटा-सा पत्थर का टुकड़ा
आया और उसकी पीठ पर तेजी से लगा। ‘‘कौन है रे ?’’ हलसी-सी
सिसकारी लेती वह घर के सामने वाली मिट्टी की ओसारी पर लाठी
टिका बैठ गयी। सिसकारी सुनकर बगल से एक लहँगा-चूनरी ओढ़े
नवयुवती झाँकी।
‘‘अम्मा, क्या हुआ ?’’
‘‘क्या होयेंगा री- जानबूझकर सताते हैं।’’ कहकर वह लाठी टेकती
चलने लगी। रुकती-चलती उसने रेलवे फाटक पार कर लिया और एक बड़े
दोमंजले मकान के सामने खड़ी होकर हाँफने लगी। गेट उसने खटखटाया
तो अंदर से एक गोरी-सुंदर स्त्री ने खिड़की से झाँका। उसकी झुकी
कमर की झलक देखते ही कहा, ‘‘आगे जाओ।’’ उसने जैसे-तैसे गेट
खोला। डपटकर डाँटने को तैयार मकान-मालकिन के हाथ में तपाक से
एक कागज का पुरजा थमा, वह बोली, ‘‘मी भिखारन नाको- मी तो अंजना
देशमुख अहे।’’
... आगे-
*
अशोक गौतम का व्यंग्य
एक गधे से मुलाकात
*
विनोद
मिश्र सुरमणि का आलेख
लोक - फ़ोक और बुंदेलखंड का स्वांग
*
डॉ. डी.एन. तिवारी की कलम से
नगरवानिकी एवं पर्यावरण
*
पुनर्पाठ में- लता मंगेशकर का संस्मरण
पापा (पं. नरेन्द्र शर्मा)
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आलोक सक्सेना का व्यंग्य
स्वामी आलोकानंद जी महाराज का बिजली उपवास
*
अवधेश मिश्र से
कलादीर्घा में जानें
न्यू मीडिया समकालीन कला का कल
*
धमयंत्र चौहान का एकांकी
ह और म की लड़ाई
*
पुनर्पाठ में- विद्याभूषण मिश्र का निबंध
सावन उड़ै कजरिया मस्तानी
*
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है
यू.एस.ए. से
अनिल प्रभा कुमार की कहानी--
बरसों बाद
गैराज का दरवाजा खुलने की आवाज
आई। वे लोग आ गए। मैं उत्सुकता से बाहर लपकी नहीं बल्कि खड़े
होकर गहरी साँस ली। उसके सामने होने की तैयारी तो दो दिन से कर
रही थी, अब बस होना था। अपने को साध कर सीढ़ियाँ नीचे उतरी।
एकदम सामने फ़ॉयर में लगा आइना था, ठिठकी। जैसे किसी और को देख
रही होऊँ। वह भी इसी ओर को देखेगी। सामने का दरवाजा अन्दर की ओर खुला। मेरे पति मुस्कुरा कर पीछे
हट गए ताकि वह आगे आ सके। एक पल, शायद इतना भी नहीं, वही थी।
हम दोनों एक दूसरे से लिपट गईं। उसने मुझे अपने सीने से जोर से
भींच रखा था और मैंने उसे। हमारे बदन काँप रहे थे, उद्वेग से,
प्रेम से, इतने सालों की बिछुड़न को नकारते हुए।
"तू बिल्कुल वैसी की वैसी ही है।" मैने उसके चेहरे को पहली बार
देखा।
"तू भी तो नहीं बदली।" उसकी आवाज तक में कंपकंपाहट थी। मेरे
पति शरारत से मुस्कुराए। अनुवाद कि दोनों झूठ बोल रही हो।
आगे-
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