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सावन उड़ै कजरिया मस्तानी
—विद्याभूषण मिश्र
वैदिक ऋचाओं
की तरह लोकगीत अत्यंत प्राचीन एवं मानवीय
संवेदनाओं के सहजतम उद्गार हैं। ये लेखनी का सहारा
न लेकर लोक-जिह्वा के सहारे जन-मानस से निःसृत
होकर आज तक जीवित रहे। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी
ने कहा था कि 'लोकगीतों' में धरती गाती है, पर्वत
गाते हैं, नदियाँ गाती हैं, फसलें गाती हैं। उत्सव
मेले और अन्य मधुर कंठों में लोक समूह गाते हैं।
स्व॰ रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों में जैसे कोई नदी
किसी घोर अंधकारमयी गुफ़ा में से बहकर आती हो और
किसी को उसके उद्गम का पता न हो, ठीक यही दशा
लोकगीतों के प्रभाव की विद्वान मनीषियों ने
स्वीकारी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस प्रभाव को
स्वीकृति देते हुए कहते हैं जब जब शिष्टों का
काव्य पंडितों द्वारा बँधकर निश्चेष्ट और संकुचित
होगा तब तब उसे सजीव और चेतन प्रसार देश के
सामान्य जनता के बीच स्वच्छंद बहती हुई प्राकृतिक
भाव धारा से जीवन तत्व ग्रहण करने से ही प्राप्त
होगा।
लोकगीत तो प्रकृति के उद्गार हैं। साहित्य की
छंदबद्धता एवं अलंकारों से मुक्त रहकर ये मानवीय
संवेदनाओं के संवाहक के रूप में माधुर्य प्रवाहित
कर हमें तन्मयता के लोक में पहुँचा देते हैं।
संगीतमयी प्रकृति जब गुनगुना उठती है लोकगीतों का
स्फुरण हो उठना स्वाभाविक ही है। विभिन्न ऋतुओं के
सहजतम प्रभाव से अनुप्राणित ये लोकगीत प्रकृति रस
में लीन ही हैं। पावसी संवेदनाओं ने तो इन गीतों
में जादुई प्रभाव भर दिया है पावस ऋतु में गाए
जाने वाले बारह मासा, छैमासा तथा चौमासा गीत इस
सत्यता को रेखांकित करने वाले सिद्ध होते हैं।
लोकगीतों के स्वर्ण घट पावसी संवेदनाओं के रस से
छलकते हुए प्रतीत होते हैं।
अषाढ़ में वर्षा के शुभारंभ
से कृषि कार्य में उल्लास स्वाभाविक है। इस उल्लास
की अनुभूति प्रस्तुत अवधि लोकगीत की पंक्तियों में
देखिए –
नभ ना उड़े बदरवा, रिमझिम बरसे पानी, किसानी
भदरानी।
लाग महीना जब अषाढ़ का, भरिगे नदी औ नार।
धान और बजरी जौन्हरी, अरहरि बोई रहा संसार।
सावन उड़ै कजरिया मस्तानी।
लोकगीतों में पावसीय उद्दीपन में विप्रलंभ शृंगार
को विशेष हृदयस्पर्शी स्वरूप प्रदान किया गया है
विरहाकुल नारी–हृदय की मार्मिकता से मानो ये
गीतोद्गार अँसुआ उठे हैं वियोगावस्था में
पति-दर्शन की आकुलता को व्यक्त करने वाली भोजपुरी
लोकगीत की ये पंक्तियाँ पठनीय हैं-
प्रथम मास अषाढ़ सखि हो, गरजि गरजि के सुनाई।
साथी के अइसन कठिन जियरा, मास अषाढ़ नहिं आई बयारी।
राजस्थानी लोकगीतों में वर्षा का महत्वपूर्ण स्थान
पाया जाता है। वर्षा लोगों में नव चेतना एवं नव
उमंग का संचार करने आती है। ऐसी कल्याण प्रदायिनी
वर्षा में घिरी हुई बदली को देखकर राजस्थानी कृषक
हर्षोत्फुल्ल होकर झूम उठते हैं। एक राजस्थानी
लोकगीत की बानगी देखिए —
आयो आयो सावण भादवा, कोई काली घटा घिर आय,
आज म्हारी बदली बरसैगी।
म्हारो बीरोजी बीजै बाजरो, म्हारा भाभाजी, काटे
फौग, आज म्हारी बदली बरसैगी।
ऐसी वर्षा ऋतु को देखते हुए भी जब प्रियतम चाकरी
के लिए परदेश जाना चाहता है तो पदमिनी नारी को ऐसा
लगता है मानो उसका प्रियतम उसे भाले से घायल करना
चाह रहा हो यथा :
ओ बरसालो देख अब पद्मण भालो पीव।
चढ़बों थारी चाकरी कढ़बो मारे जीव।
अवधी लोकगीतों में जहाँ वर्षाकालीन सौंदर्य एवं
खेती-किसानी की मनःस्थितियों का सहजतम उद्गार है
वहीं हमें उनमें हृदयस्पर्शी नवयुवक जब विवशतावश
प्रवासी हो जाता है वियोगिनी प्रियतमा अपनी ननद से
आपबीती का चित्रण करने लगती है-
मारे न सवनवाँ बौछार हो, अँगनवाँ फुहार परै ननदी।
फुटगे ना करमवाँ हमार हो, अँगनवाँ फुहार परै ननदी।
जबते पिया परदेसवा सिधारे रतियाँ गुजारूँ गिन गिन
तारे,
रतिया में छतिया पहार हो।
प्रिय के वियोग में छाती पर वियोग के भार की
कल्पना अद्वितीय एवं विशेष मार्मिक जान पड़ती है।
मैथिली लोकगीतों में पावसी प्रभाव की मनोवैज्ञानिक
अभिव्यंजना पाई जाती है। पावस ऋतु में प्रिय के
समीप रहने की अभिलाषा अत्यंत स्वाभाविक एवं
मनोवैज्ञानिक है। घिरते हुए बादलों को देखकर हृदय
उद्दीप्त हो उठता है। वह बादलों से बोल उठती है कि
तू वहीं बरस जहाँ मेरे प्रियतम निवास कर रहे हैं।
तू बरस उनकी टोपी को भिगो दे :
रे बदरा मत बरसु एहि देसवा, रे बदरा बरसु ललनजी के
देसवा
बदरा उनके गिरजाऊ सिर टोपिया।
महाकवि कालीदास के 'मेघदूत' में बादलों द्वारा
दौत्य कार्य की कल्पना का प्रभाव उपर्युक्त
लोकगीतों में हम पाते हैं।
अन्य लोकगीतों की तरह छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में भी
हम पावसी प्रभाव पाते हैं। श्रीराम-लक्ष्मण एवं
सीता के वन्य जीवन की स्मृति पावस ऋतु में माँ
कौशल्या के लिए असहनीय हो उठती है। पावस ऋतु में
वे किसी वृक्ष के नीचे भीगते होंगे यह सोचकर
कौशल्या का मातृत्व तड़प उठता है गीत की बानगी
देखिए–
हाथ ज़ोरी विनती करत है कौशिल्या माई, अरज करत
हावैं विनती करत हावैं हो।
वदुली तीनों खूँट झनिच बरसिहा, मोर राम-लक्षिमन वन
भींजै,
राम-लक्षिमन बन गए हों।
माता कौशल्या का बादलों से प्रार्थना करते हुए
अपने वनवासियों के प्रति कल्याण-कामना में जो
वात्सल्य और करुणा है वह हमारे नेत्रों को
स्वाभाविक रूप से अश्रुपूरित कर देती है।
इसी तरह कनौजी लोकगीत की इन पंक्तियों में पावसी
प्रभाव की एक झलक देखिए–
बरसौ इंदार तुम दिउता। पहर राति बरसौ हो।
टरै जान केरि बिरिया। पिया घर बिल में हो।
अगर बादल रात–दिन बरसते रहेंगे तो प्रिय घर से
बाहर नहीं जा पाएगा, संयोग की स्थिति बनी रहेगी।
इस तरह सभी आँचलिक लोकगीतों में पावसी प्रभाव का
मनमोहक चित्रण आज भी चिरजीवी रूप में हमारी
संस्कृति की गंध निरंतर प्रसारित करते हुए गुंजन
कर रहा है। पावसी लोकगीतों में नारी–मानस का
स्वाभाविक प्रतिबिंब रूपायित हो उठा है। उनमें
पावसी प्रभाव की आत्माभिव्यक्ति रस संपन्नता से
युक्त है।
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