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					गैराज का दरवाजा खुलने की आवाज 
					आई। वे लोग आ गए। मैं उत्सुकता से बाहर लपकी नहीं बल्कि खड़े 
					होकर गहरी साँस ली। उसके सामने होने की तैयारी तो दो दिन से कर 
					रही थी, अब बस होना था। अपने को साध कर सीढ़ियाँ नीचे उतरी। 
					एकदम सामने फ़ॉयर में लगा आइना था, ठिठकी। जैसे किसी और को देख 
					रही होऊँ। वह भी इसी ओर को देखेगी।
 सामने का दरवाजा अन्दर की ओर खुला। मेरे पति मुस्कुरा कर पीछे 
					हट गए ताकि वह आगे आ सके। एक पल, शायद इतना भी नहीं, वही थी। 
					हम दोनों एक दूसरे से लिपट गईं। उसने मुझे अपने सीने से ज़ोर से 
					भींच रखा था और मैंने उसे। हमारे बदन काँप रहे थे, उद्वेग से, 
					प्रेम से, इतने सालों की बिछुड़न को नकारते हुए।
 "तू बिल्कुल वैसी की वैसी ही है।" मैने उसके चेहरे को पहली बार 
					देखा।
 "तू भी तो नहीं बदली।" उसकी आवाज तक में कंपकंपाहट थी।
 
 मेरे पति शरारत से मुस्कुराए। अनुवाद कि दोनों झूठ बोल रही हो। 
					वह उसका सामान लेकर ऊपर के कमरे में रखने के लिए चले गए। मेरा 
					हाथ अभी भी उसने पकड़ा हुआ था। वैसे ही आकर ड्रॉइंग-रूम में एक 
					ही सोफ़े पर आकर बैठ गईं। दोनों एक-दूसरे को देख रही थीं, तौल 
					नहीं। दोनों की आँखों पर चश्मे, बालों में घनेपन की जगह छीजन 
					और भर आए बदन।
 उसकी बड़ी- बड़ी आँखें अब चश्मे के भीतर थीं। वही छोटी सी नाक, 
					पतले होंठ, कोई प्रसाधन नहीं, सिर्फ़ माथे पर बिन्दी। मैं जब भी 
					किसी फ़िल्म में दीपिका पादुकोण को देखती हूँ तो मुझे इसकी याद 
					आती। झेंप हुई कि कहीं वह मेरे देखने को घूरना न समझ बैठे।
 
 "कितने बरसों बाद?" मैं जो सोच रही थी वही कह दिया।
 "तीस"। वह हिसाब लगा चुकी थी।
 कितना कुछ इस बीच गुजर गया। मै भारत जाती तो सिर्फ़ अपने मायके 
					-ससुराल वाले शहरों में रहकर लौट आती। वह अपने पिता की बदलियों 
					के कारण उस जगह से दूर-दूर होती गई। मुझे अपने ही वक्त का 
					हिसाब नहीं, उसके का तो अन्दाजा भी नहीं सिवाए इसके कि वह 
					स्कूल में पढ़ाती है, उसके पति यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं, 
					दो बच्चे हैं और बहुत बड़ा ससुराल, बस इतना ही।
 
 "चाय बनाऊँ?" मुझे उसका मिलना आत्मसात करने के लिए कुछ पल 
					चाहिए थे।
 "अच्छा, वैसे जरूरत नहीं।" उसने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा।
 "तेरा घर सुन्दर है।" वह उठकर खड़ी हो गई।
 "हाँ, अब हमारे अपने-अपने घर हैं। पहले माँ-बाप के घर में मिला 
					करते थे।"
 पति को उनके कमरे में ही चाय पकड़ा दी। उन्हें मालूम था कि हम 
					पुरानी सहेलियाँ इतने बरसों बाद मिली हैं तो उन्हें पृष्ठ-भूमि 
					में ही रहना होगा।
 वह अभी भी खिड़की के बाहर देख रही थी। मैने टी-बैग निचोड़कर चाय 
					उसके आगे रख दी। उसने दूध और चीनी मिलाकर प्याला हाथ में उठा 
					लिया।
 "पहले मैं भी ऐसे ही पिया करती थी। फिर ससुराल में सब पत्ती 
					काढ़कर पीते थे तो अब वैसी ही पीने लगी हूँ।"
 मैं चुपचाप चाय पीती रही।
 
 "तू अभी भी ससुराल वालों के साथ रहती है?" मुझे अचम्भा हुआ।
 "नहीं-नहीं। एक ही घर में तो ज्यादा नहीं रही पर एक शहर में 
					सभी रहते हैं।"
 वह कुछ उखड़ी-सी लगी फिर धीमे से बुदबुदाई- "अब क्या? अब कोई 
					फर्क नहीं पड़ता।"
 "किस बात का?"
 "किसी भी बात का।" उसने आँखें नीची कर ली थीं।
 उसकी आँखों के पपोटे भारी थे जिससे लगा करता था कि वह हँस रही 
					है। अब लगा, जैसे रेगिस्तान हो, दूर-दूर तक रेत उड़ती हो।
 मैं पूछना चाहती थी कि क्यों क्या हुआ? पर पूछा -"तू ठीक है न?
 "अब तो ठीक हूँ। पिछले कुछ साल बहुत बीमार रही।"
 मेरी सवालिया नजरें देखकर उसने बात सीधी कह दी, "गर्भाशय में 
					कुछ गड़बड़ थी। निकलवा दिया। झंझट ख़त्म हुआ। इस उम्र में यह सब 
					हो जाता है।"
 
 मुझे अजीब सा लगा। पहले हम औरत बनने के शुरु के दौर में साथ 
					थे। हर बात एक कौतुहूल थी, जिज्ञासा थी। भोलापन, आशंका, नई 
					दुनिया को बातों से छूकर, वापिस कच्ची उम्र के सुरक्षित घेरे 
					में लौट आने का सुख। रीति-कालीन नायिकाओं के प्रसंगों को पढ़ते 
					हुए शर्म से सुर्ख़ गाल, झेंपती हँसी और कक्षा में नोट्स की 
					कॉपी में शरारत भरी बातें लिखकर, एक-दूसरे की ओर सरकाना। 
					कभी-कभी बेक़ाबू हँसी के दौरे पड़ने पर, प्राध्यापक के 
					अग्नि-नेत्रों का सामना। और बता न पाना कि इतनी हँसी क्यों और 
					किस बात पर आ रही है। और आज? मालूम पड़ा कि शो तो कब का ख़त्म हो 
					चुका है- उठो और निकल जाओ जवानी के इस थिएटर से।
 "पता है, पहले हम कितना हँसा करते थे?" मैं फिर से उसे अपने 
					साथ याद की बीती गलियों में ले जाना चाहती थी।
 
 "कब?" उसे वाकई याद नहीं था।
 जब एक बार डॉ. प्रसाद की क्लास में डाँट पड़ी थी। और फिर जब डॉ. 
					सिंह बेहद गुस्सा हो गए थे और तब भी मेरी हँसी नियन्त्रण में 
					नहीं आ रही थी तो वह भी हँस पड़े थे। बोले थे कि कुछ छात्र ऐसे 
					होते हैं कि उन पर क्रोध भी नहीं किया जा सकता। अगले दिन सारी 
					यूनिवर्सिटी में यह बात फैल गई थी कि दो लड़कियाँ डॉ. सिंह के 
					कोप-भाजन से बच गईं।
 "तू थी ही शरारती।" कह कर वह हँस पड़ी।
 "तू कोई कम नहीं थी। सिर्फ़ तुझे भोली शक्ल बना कर पलकें झपकाने 
					का हुनर आता था, मुझे नहीं।"
 
 "याद है, सुधा कैसे आर्ट फ़ैकल्टी की सीढ़ियों पर खड़ी होकर लड़कों 
					को छेड़ती थी और वे बेचारे कैसे घबराए से, आँखें नीची किए पास 
					से गुजरा करते थे।"
 "हमने विदाई के समय क्लास की ग्रुप फोटो भी नहीं खिंचवाई थी। 
					वजह कि इसके जरिए हमारी तस्वीर उन लड़कों के घर पहुँच जाएगी। 
					कहीं कोई लड़का अपनी माँ को वह तस्वीर दिखाकर यह न कह दे - 
					"माँ, मैंने इसी लड़की से शादी करनी है।"
 वह हो-हो करके हँस पड़ी।
 
 "जैसे हम बड़ी सुन्दरियाँ थीं न?"
 "कम से कम तब तो यही समझते थे।"
 "असल में सारा कसूर हमारी माँओं का था। उन्होंने ही हमारे 
					दिमाग़ में ये बातें डाली थीं कि हमारे जैसा कोई दुनिया में है 
					ही नहीं।"
 "अच्छा हुआ। कम से कम माँओं ने तो सराहा।"
 
 मुझे अपनी माँ का चेहरा याद आ गया। कितना कुछ घुमड़ा। मेरे 
					चेहरे के भाव पढ़ती नजरें, सिर चूमते होंठ, पीठ सहलाते हाथ। 
					मेरी पीड़ा खुद न ओढ़ पाने की बेबसी। मेरे साथ साँस के साथ साँस 
					लेती माँ।
 शायद मेरा उच्छवास निकल गया होगा। उसने अपना हाथ मेरे हाथ पर 
					रख दिया। उसकी आँखों में हल्की-सी नमी थी।
 "मुझे सुधा ने आंटी जी की मौत की ख़बर दी थी। बहुत विचलित हो गई 
					थी मैं। पता नहीं तूने कैसे यह दुख सहा होगा?"
 "जैसे तुमने अपने डैडी की मौत का झेला होगा।" मैने कहना चाहा।
 
 हम दोनों खिड़की से बाहर देख रही थीं। न कोई पत्ता हिल रहा था 
					और न ही कोई गिलहरी फुदकी। आसमान का साथ देने के लिए पेड़ भी 
					शांत- स्थिर हो गए। बादल छाए थे तो शाम होने पर सूरज ने रंग भी 
					नहीं बदला।
 उसने जैसे बात बदलनी चाही।
 "तेरे घर का वातावरण मैडीटेशन के लिए अच्छा है।" उस ने कहा तो 
					मैंने जैसे पहली बार अपने घर को देखा। कमरे में तीनों तरफ 
					खिड़कियाँ होने से लगता था बाहर की सारी हरियाली अन्दर आ गई हो।
 "तू ध्यान करती है?" मुझे अजीब सा लगा।
 "हाँ, इससे मेरा मन शांत हो जाता है। नहीं तो शायद मैं जी ही न 
					पाती।"
 मैं उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगी।
 
 हर दिवाली पर इसका शुभकामनाओं का कॉर्ड आता रहा है। कभी अपना, 
					अपने पति और दोनो बच्चों के नाम के साथ तो कभी वह भी नहीं। 
					बिना नाम लिखा कॉर्ड किसी और का हो ही नहीं सकता सिवाए इस 
					बुद्धू के, जिसके अलावा मुझे और कोई शुभकामनाएँ नहीं भेजता।
 कहा इतना ही, "तूने मैडीटेशन करनी है तो मुँह-हाथ धोकर कर ले। 
					मैंने ऊपर तेरे लिए कमरा तैयार करके रखा है।"
 वह अनमनी सी उठ गई। "संध्या को यों ही थोड़ी देर बैठती हूँ।"
 मैने उसे उसके लिए तैयार कमरा, बाथरूम सब समझा दिया।
 नीचे आकर पति से कहा-"आज आपकी ज्यादा पूछ नहीं होगी।"
 "बस खाना दे दो। भई, तुम्हारी सहेली को हवाई-अड्डे से लेकर आया 
					हूँ कुछ तो मुआवजा मिलना चाहिए। बाद में मैं अपने सोने वाले 
					कमरे में जाकर पढ़ता रहूँगा। सुबह ही काम पर निकलना है।"
 
 मैंने उसके आने से पहले ही खाना बना कर रख दिया था। गर्म करके 
					चावल, चपातियाँ भी बना दीं। मेज पर खाना लगाकर उसका इंतजार 
					करने लगी।
 इसके डैडी काफ़ी ऊँचे पद पर थे। जब भी हम इनके घर जाते तो यों 
					ही खाने की मेज भरी होती। इसकी मम्मी के आदेश पर नौकर 
					गर्म-गर्म चपातियाँ लाता जाता। एक बार यह कुछ तस्वीरें लाई थी, 
					बीकानेर वाले अपने सरकारी घर की, जहाँ इसके डैडी का नया-नया 
					तबादला हुआ था।
 
 "तेरा घर तो महल जैसा लगता है।" हम लोग जान-बूझ कर इसे छेड़ते।"
 यह संकोच से लाल हो जाती। "अरे, यह घर तो सरकारी घर है, हमारा 
					थोड़े ही है। हम तो इसमें परदे तक लगाने का ख़र्चा नहीं कर 
					सकते।"
 यह शालीनता और विनम्रता, जो हममें से किसी में भी नहीं थी।
 वह आ गई। बहुत शांत और सौम्य लग रही थी। मुस्करायी।
 "यह सब तूने बनाया है? कब सीखा?" वह खुश लग रही थी।
 "यह तो मेरी बेइज्जती वाली बात कही तूने?" मैने झूठी नाराजगी 
					दिखाई।
 "मैने तो सच बोला। यह गुण तुझ में नहीं था।"
 "तू मिली ही इतने सालों बाद है। अब तक तो मैं पता नहीं 
					क्या-क्या सीख कर भूल भी चुकी हूँ।"
 
 मेरे पति जो अभी तक ख़ाली प्लेट लिए चुप बैठे थे, बोले,
 "तुम्हारा क्या है, तुम तो मुझे भी भूल चुकी हो।"
 "खाना खाइए।" मैंने प्यार से डपट दिया।
 उसने अपनी प्लेट में बहुत थोड़ा सा खाना डाला।
 "अब ज्यादा खाया नहीं जाता।"
 "याद है, हमारा हर ख़ाली पीरियड कैंटीन में ही बीतता था। कितना 
					खाते थे हम लोग और हर वक्त।"
 "मैं भूल गई हूँ उन सब बातों को।" कहकर वह चुपचाप कौर बनाती 
					रही।
 ये उठकर खड़े हो गए, दोनों हाथ जोड़कर।
 "देखिए, मैं तो तड़के ही निकल जाऊँगा। आपसे फिर शायद मुलाक़ात 
					नहीं हो पाएगी।"
 "अच्छा....", वह भी अनमनी-सी खड़ी हो गई।
 पति जा चुके थे। मैंने बाँह से खींच कर उसे बैठा लिया।
 "मेरा बनाया खाना अच्छा नहीं लगा?" मैंने बहुत दुलार से पूछा।
 "नहीं-नहीं, खाना बहुत अच्छा है। तूने इतने प्यार से इतना कुछ 
					बनाया है। बस, मैं ही......।" वह नीची नजरें किए कहीं खो गई।
 
 मैं उसे लेकर नीचे वाले फ़ैमिली-रूम मे आ गई। वह दीवार पर लगी 
					तस्वीरों को देखने लगी।
 "तेरे भी बच्चे नीड़ छोड़ गए।" उसने जैसे अपने-आप से कहा।
 मैंने मुस्कुरा कर अपनी मजबूरी को आशीर्वाद की शक्ल दे दी।
 "हाँ, ऐसा ही समझ ले। बस जहाँ रहें, खुश रहें।" सीने मे उठी 
					दर्द की लहर को वहीं दबा दिया। बात फिर सुरक्षित दायरे में ले 
					आई- "और तेरे बच्चे?"
 "दोनों ब्याहे गए। अपने-अपने संसार में सुखी हैं। बेटी तेरे 
					अमेरिका में आ गई। अब बच्चा होने वाला है तो मुझे बुलाया है।"
 "तू बिना मिले चली जाती तो मुझे दुख होता।" मैंने ढुलक कर कहा।
 "अब दुख-सुख कुछ नहीं व्यापता। बस, बहुत तीव्र इच्छा थी तुझसे 
					मिलने की।" वह पता नहीं कैसे इतने निर्विकार भाव से बात कर रही 
					थी।
 "तो, तुझ में अभी मोह बचा हुआ है?" मैंने उसे छेड़ने के लहज़े से 
					कहा।
 वह चुप रही। लगा फिर पिछली गलियों में कुछ ढूँढने निकल पड़ी है।
 "मोह न रोकता तो अब तक मर न चुकी होती।" उसने इस बार मेरी 
					आँखों में सीधे देखा।
 
 सिहर गई, बस उसे देखती रही। हँसती आँखों वाली वह लड़की, मैं उसे 
					इसमें ढूँढने लगी। इन आँखों के गिर्द खिंच आए वीरानगी के 
					दायरों की भाषा को पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
 "नौकरी करती रही ना। ऊपर से बीमारियाँ, तनाव की वजह से। एहसास 
					- बस कौरव महारथियों के बीच अभिमन्यु के घिर जाने जैसा। यों ही 
					घर-गृहस्थी के रोज-रोज के ताने, व्यंग्य, आरोप। मुझे लगता कि 
					जैसे मैं दुनिया की सबसे बुरी औरत हूँ।" वह काँप रही थी।
 मैं उसके लिए पानी लेने के लिए उठने लगी।
 
 "बैठ।" उसने मुझे हाथ पकड़ कर रोक लिया।
 "तू भी तो नहीं थी वहाँ। मेरा कोई नहीं था। डैडी रहे नहीं। 
					मम्मी भैया के पास थीं- दूसरे शहर में। उनकी अपनी समस्याएँ 
					थीं। उनको कुछ कहकर बोझ बढ़ाना नहीं चाहती थी। पति खुद परेशान 
					थे, मुझे वह क्या सहारा देते?"
 आज बरसों बाद वह मुझे अपने जख्मों के निशान दिखा रही थी। चोटों 
					का इतिहास बता रही थी। मैं जो उसकी सहेली थी और कुछ नहीं जानती 
					थी। अपने ही युद्ध से ज़िन्दा बच आने के संघर्ष में उलझी रही। 
					चुप सुनती रही।
 
 "सभी ननदें, जिठानी, देवरानी और देवर, सास के साथ मिलकर यों 
					लांछित प्रताड़ित करते कि मैं उनका बेटा छीनकर ले आई हूँ। हम 
					दोनों जने कमाते हैं और उन्हें पूरा वेतन लाकर क्यों नहीं 
					देते? यहाँ तक कि मेरे माता-पिता को भी इस गन्दगी में लपेटा 
					जाने लगा। उन्हें भी जब गालियाँ दी जाने लगीं तो मुझे लगा कि 
					मैं क्यों हूँ इस जमीन पर?"
 "कैसी बातें करती है?" मैं उस पर तानों, फब्तियोंके प्रहार 
					होते देख रही थी जो शरीर पर नहीं आत्मा पर पड़ते हैं।
 "तुझे यह सब क्या मालूम? तू तो यहाँ अकेली रहती है।"
 मन हुआ उसे वह सब फरमायशी चिट्ठियाँ दिखाऊँ जो यहाँ आती रहती 
					हैं और जिनमें मेरा ज़िक्र तक नहीं होता। पर कहा कुछ नहीं बस 
					फीकी सी हँसी हँस दी।
 "तुझे वह सब बातें फिर कभी बताऊँगी।"
 
 वह बहुत धीरे-धीरे बोल रही थी। "सब कुछ असहनीय था, बहुत 
					पीड़ादायक। स्कूल से रिक्शे से घर लौटते वक्त बीच में एक तालाब 
					पड़ता था। वह मुझे अपनी ओर खींचता, बुलाता। सोचती, इसमें डूब 
					जाऊँ। कल मेरी लाश सबको मिलेगी तो सारा कलह-क्लेश शांत हो 
					जाएगा।"
 वह रुकी। पता नहीं कितने तालाब, नदियाँ पार कर रही थी। डूब-डूब 
					कर तैर रही थी और तैर-तैर कर डूब रही थी। अकेली ही।
 "बच्चों का ध्यान आ जाता। बस इसी लिए नहीं कर पाई।" वह एकदम 
					निढाल होकर सोफ़े पर लेट गई।
 हम वर्तमान में नहीं थे। यादों की रील जैसे हाथ से छूटकर पीछे 
					की ओर भाग रही थी, ज़िन्दगी फ़्लैश बैक में लुढ़की हुई। जी चाहा 
					उसके हिस्से के सभी घावों को सहला दूँ, दर्द सोख लूँ। उसके 
					कमज़ोर से, ठंडे हाथ पर मैंने अपना हाथ रख दिया।
 उसने मेरी ओर देखा, सहज विश्वास के साथ कि जैसे जानती हो, मैं 
					उसकी चोटों को छीलूँगी नहीं, सिर्फ़ सहलाऊँगी ही।
 "अब तो कुछ नहीं कहते न?" मैने आवाज से उसे मल्हम लगाने की 
					कोशिश की।
 "अब क्या?" कहकर उसने गहरी उसाँस छोड़ी।
 "क्यों अब क्या हो गया?", मैने पूछना चाहा पर उसके चेहरे को 
					सिर्फ़ देखती भर रही। उसके माथे पर एक त्यौरी झिलमिलायी।
 "अब तो कहानी ख़त्म हो रही है। मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ना चाहिए।" 
					यह शब्द शायद उसने अपने-आप से कहे थे, मुझसे कहने के लिए नहीं।
 
 मैं भी अब क्या ऐसा ही नहीं सोचती? यों ही ज़िन्दगी का 
					हिसाब-किताब नहीं करती कि कितना वक़्त बीत गया और कितना और शेष 
					होगा? कंजूस हो गई हूँ। भावनाओं, संवेदनाओं को सोच-समझ कर 
					भुनाना चाहती हूँ।
 "क्या तू कुछ और तरह से जीती?" मैंने उसकी तरफ एकटक देखते हुए 
					पूछा।
 वह चुप रही। उसकी आँखें अस्थिर थीं। पता नहीं वह फिर कहाँ, 
					क्या ढूँढने निकल पड़ी थी।
 "क्या जैसा चाहो वैसे ही जी सकते हैं?" उसने प्रतिप्रश्न किया।
 "कुछ लोग इस बात का दावा करते हैं।"
 "औरों की बात मत कर, तूने जैसे चाहा, वैसे जिया?" अब उसकी 
					आँखें मुझ पर गढ़ी थीं।
 "कोशिश तो की।"
 "बेकार हैं सब कोशिशें भी। सिर्फ़ छटपटाहट ही हाथ आती है।" उसके 
					चेहरे पर पीड़ा थी।
 मैं उस में साझीदार नहीं थी, न ही मैंने बनने की कोशिश की।
 बस उसके हाथ पर हाथ रख दिया। वह मुस्करायी। चेहरे पर वही 
					कोमलता तिर आई।
 "कितने बेवकूफ हैं न हम?" उसकी आँखें चमक रही थीं।
 "वह तो शुरु से ही हैं।" मैं भी हँस दी।
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 सुबह वह मुझसे पहले उठकर तैयार बैठी थी। मै चाय बनाने को लपकी।
 "मैने खुद बनाकर पी ली।"
 "और?"
 "नहा-धोकर समाधि भी लगा ली।"
 "वाह! कुछ दिन रुक जाती, मेरा मन था।"
 "देख तूने भी काम पर जाना है और उसका बच्चा किसी दिन भी हो 
					सकता है। जितना संयोग था, उतना ही मिल लिया।"
 फोन बजा। एयरपोर्ट ले जाने के लिए जिस टैक्सी का इन्तजाम किया 
					था, वह घर के बाहर खड़ी थी।
 वह एक थैला उठाकर मेरे पास आई, फिर मेज पर रख दिया।
 "तेरे लिए है - कोलकाता की साड़ी।"
 मैं थोड़ी असहज हो गई। "इतनी औपचारिकता की क्या जरूरत थी। देख, 
					मुझे उपहार लेते वक्त भार महसूस होता है।"
 
 एकदम उसका चेहरा गुस्से से तमतमा गया। उसने मेरे हाथ से थैला 
					झपट लिया।
 "ठीक है। फिर मत ले मुझसे कुछ भी। मेरा तुझ पर अधिकार ही कहाँ 
					है?
 मैने थैला ज़ोर से पकड़ लिया और हँस पड़ी।
 "सब कुछ छोड़ दिया पर गुस्सा करना नहीं छोड़ा।"
 "तूने बात ही इतनी ग़लत कही।" वह ठंडी पड़ गई।
 "सॉरी", मैंने कान पकड़ कर माफ़ी माँगी। वह हँस दी। मैने ध्यान 
					दिया, हाँ थोड़ी सी दीपिका पादुकोण से वह अब भी मिलती है।
 बाहर निकले तो टैक्सी वाला बड़ी बेसब्री से घड़ी देख रहा था। उसे 
					डर था कि कहीं एयरपोर्ट पहुँचने में देरी न हो जाए।
 तब तक हम दोनों यों ही खड़ी थीं। इतनी सारी बातें कहने को उमड़ीं 
					पर उलझ गईं, आवाज बनकर कोई न निकली।
 
 अचानक वह लपकी और मुझे ज़ोर से भींच लिया। मेरी दोनो बाँहें 
					उसकी पीठ पर थीं। बहुत सी बातें जो हम कह नहीं पाए, बहुत से 
					जख्म जो दिखा नहीं पाए, बहुत सी खुशियाँ जो मना नहीं पाए, लगा 
					यों भींच के, एक दूसरे के गले से लगकर सब सम्प्रेषित हो गया।
 
 कोई ख़ास बात याद करके या किसी ख़ास भावना से नहीं, बस यों ही 
					रुलाई उमड़ना चाह रही थी। पता नहीं विदाई का क्षण इतना नाटकीय 
					ढंग से बोझिल क्यों हो जाता है?
 
  मैंने 
					धीरे से अपने को उससे अलग किया और मुस्करायी। वह भी जवाब में 
					मुस्करायी पर उमड़ रहे आँसुओं को गटकने की कोशिश में उसके चेहरे 
					पर एक अजीब सा भाव आ गया। "अच्छा!", उसने कहा और वहीं खड़ी रही।
 टैक्सी वाले ने हल्का सा हॉर्न बजाया। वह जल्दी से जाकर बैठ 
					गई। उसने हल्का सा हाथ हिलाया। टैक्सी आगे चल पड़ी।
 मुझे एकदम होश आया। यह तो पूछा ही नहीं कि फिर कब मिलेंगे।
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