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संस्मरण

षष्ठिपूर्ति के अवसर पर माल्यार्पण करते हुए लता मंगेश्करपापा
—लता मंगेशकर
 


भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता, धर्म, देशभक्ति, आत्मविश्वास, ईश्वर में श्रद्धा और अटूट विश्वास, इन सारी बातों का संगम पं. नरेन्द्र शर्मा जी में मैंने देखा है।

संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं पर उनका प्रभुत्व था। प्रतिभाशाली कवि,  प्रकाण्ड पंडित, ज्योतिषविद्या और आयुर्वेद के बड़े जानकार, तुलसीकृत 'रामचरित–मानस', 'महाभारत', वाल्मीकि रामायण जैसे महान ग्रंथों पर घंटों तक बहुत सहजता से वे बोला करते थे।

परन्तु उन्हें देखकर किसी को भी महसूस नहीं होता था कि इस वामन मूर्ति के भीतर ज्ञान का महासागर छिपा है। सरल हृदय पापा के मन के अंदर पवित्र स्नेह की गंगा सदा बहती थी।

बीमारी से लेकर प्रोग्राम कब करने चाहिए? मुझे कौन–सी बात से दुःख होता है, कौन–सी बात से खुशी होती है, ये सारी–सारी बातें उनके सामने बैठकर सुनाया करती थी। मेरे जीवन की कोई ऐसी बात नहीं, जो पापा को मालूम नहीं थी, परन्तु वो उन्होंने अम्मा को भी नहीं बताई।

१९७3 में मैं बहुत बीमार थी। मेरा ऑपरेशन होने वाला था। यह बात सिर्फ चार–पांच व्यक्तियों को मालूम थी। पापा को तो मालूम था ही। उस समय मैं "चलां वाहि देस" मीरा भजनों की एल.पी. रेकार्ड कर रही थी, गाते समय बहुत तकलीफ होती थी। पापा हर रोज सुबह एच.एम.वी. स्टूडिओ पहुंच जाते। उन्हें मेरी चिंता होती थी। जिस दिन रेकार्डिंग पूरी हो गयी और सब लोग बैठकर गाने सुनने लगे, तो पापा की आंखों से आंसू बहने लगे। मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा "बहुत बढ़िया हो गया है।" वे जानते थे कि दो–चार दिन में आपरेशन होनेवाला है।

बाद में अम्मा ने मुझे बताया कि आपरेशन के दिन पापा सुबह जल्दी उठकर, स्नान करके पूजा घर में बैठ गये, जब तक उन्हें खबर नहीं आई कि आपरेशन अच्छी तरह हो गया।

मैं कितनी भाग्यवान हूं कि पापा जैसे साधु पुरूष ने मुझे अपनी बेटी कहकर आशीर्वाद के योग्य समझाॐ

पापा के मुख से किसी के भी लिए मैने कोई बुरी बात नहीं सुनी। लेकिन अगर कोई गलत बात कहे, तो वे उसे उसी समय डांट देते।

पापा भगवान श्री राम के परम भक्त थे। वे रोज रामायण पढ़ा करते थे। तुलसीदास, कबीर, मीराबाई उनके प्रिय संत कवि थे। मैथिलीशरण गुप्त ह्यपापा उन्हें दद्दा कहा करते थेहृ, सुमित्रानंदन पंत, हरिवंशराय बच्चन और अमृतलाल नागरजी का उल्लेख बहुत आदर और प्रेम से करते थे। उन्हें मराठी के संत कवि भी पसंद थे। खासतौर पर संत ज्ञानेश्वर, मुक्ताबाई, नामदेव इत्यादि मराठी के कवि। भा.रा.तांबे की एक कविता का अनुवाद पापा ने बहुत ही सुन्दर किया है। विदेशी कवियों में उन्हें "शेली" बहुत ही पसंद था।

१९८८ नवम्बर १४ को नेहरू सॅन्टिनरी समारोह में तीन मूर्ति में कार्यक्रम करके जब वापस लौटी तो पापा से मिलने गई। जाते ही उन्होंने कहा, "बहुत ही अच्छा लगा। न जाने क्यों उनकी आखें भर आयी? उस वक्त मैं समझी नही, पर आज यों लगता है कि वे समझ गये थे कि "लता की और मेरी ये आखिरी मुलाकात है।"

पापा के बहुत सारे भजन, गीत मुझे पसंद है, परन्तु सबसे ज्यादा पसंद है –
"दिन जाये, दिन आये। उस दिन की क्या गिनती–
जो दिन, भजन किये बिन जाये।" . . . .

इतनी सच्ची और सुंदर पंक्तियाँ एक संत ही लिख सकता है। एक और भजन में पापा मां वैष्णवी से कहते हैं –
"माता तेरे भजन में सुख शांति का बसेरा
माता तेरे चरण में सौभाग्य का सवेरा।"

१९४७ या ४८ में अनिल विश्वास के संगीत में मैंने रेडियो के लिए पापा के दो गाने रेकार्ड किये थे। उसमें एक गीत था – जिसके बोल आज भी मुझे याद हैं और आज भी बहुत अच्छे लगते हैं –
"रख दिया नभ शून्य में किसने तुम्हें मेरे हृदय।
इंदु कहलाते सुधा से विश्व नहलाते
पर न जग ने जाना तुम्हें मेरे हृदय।"

पापा के जाने से मेरा जो नुकसान हुआ है, वो इस जीवन में पूरा नहीं हो सकता।

१९४८ में अनिल विश्वास जी ने मुझे पापा की बहुत ही सुप्रसिद्ध कविता सिखायी थी, और उसे मैं प्रायः गाया करती थी – आज मेरे होठों पर वो पंक्तियाँ बार–बार आ रही हैं
"आज के बिछुड़े न जाने,
कब मिलेंगे? कब मिलेंगे??

१ दिसंबर २००१

 
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