उसने
बड़बड़ाते हुए अपनी झुकी कमर को कुछ सीधा करने का प्रयास किया और
लाठी पर पूरा वजन डाल अपने घर से बाहर निकली। अचानक बगल की गली
से एक छोटा-सा पत्थर का टुकड़ा आया और उसकी पीठ पर तेजी से लगा।
‘‘कौन है रे ?’’ हलसी-सी सिसकारी लेती वह घर के सामने वाली
मिट्टी की ओसारी पर लाठी टिका बैठ गयी। सिसकारी सुनकर बगल से
एक लहँगा-चूनरी ओढ़े नवयुवती झाँकी।
‘‘अम्मा, क्या हुआ ?’’
‘‘क्या होयेंगा री- जानबूझकर सताते हैं।’’ कहकर वह लाठी टेकती
चलने लगी। रुकती-चलती उसने रेलवे फाटक पार कर लिया और एक बड़े
दोमंजले मकान के सामने खड़ी होकर हाँफने लगी। गेट उसने खटखटाया
तो अंदर से एक गोरी-सुंदर स्त्री ने खिड़की से झाँका। उसकी झुकी
कमर की झलक देखते ही कहा, ‘‘आगे जाओ।’’
उसने जैसे-तैसे गेट खोला। डपटकर डाँटने को तैयार मकान-मालकिन
के हाथ में तपाक से एक कागज का पुरजा थमा, वह बोली, ‘‘मी
भिखारन नाको- मी तो अंजना देशमुख अहे।’’
मकान-मालकिन हँसी, ‘‘अरे, तुमको तो शीला ने मालिश के लिए भेजा
है न !’’
‘‘जी, आजकल मैं उनके बच्चे की मालिश करती हूँ।’’
‘‘अंदर आ जाओ।’’
‘‘हऊ... पांडुरंगा तुमको भला चंगा रखे।’’
सुशीला को कुछ दया उमड़ी... उसने गरम चाय और रोटी उसे परोसी, तो
जल्दी-जल्दी उसे खा-पी वह बोली, ‘‘अब एकदम से खाया नहीं जाता
बाई !’’
सुस्ताने के बाद सचमुच बूढ़ी ने जैसे ही पीठ पर हाथ रखा, तो
सुशीला समझ गयी कि वह अपने काम की अच्छी जानकार है।
सुशीला चुप। बूढ़ी कभी पलंग पर इधर तो कभी उधर करती लगातार बोल
रही थी।
उसकी हाँफन देख सुशीला का मन हुआ कि कह दे, ‘इतना मत बोलो थक
जाओगी’, पर वह बोल नहीं पायी। बूढ़ी को जैसे समझ आ गया, वह
हँसने लगी, ‘‘फिकर न को, मुझे तो बोले बिना काम पुरता नहीं,
क्या करूँ मैं इतनी दुखी औरत कि तुम्हारी-सी दयावानी और मैं
बोल पड़ी।’’
सुशीला से बूढ़ी खुश थी। आते ही अपना कुछ-न-कुछ दर्द उंडेल
जाती...अगली बार आयी, तो उसके माथे पर एक बड़ा गुम्मा उठा हुआ
था।
‘‘क्या हुआ ? गिर गयी क्या ?
‘‘नहीं...ये लोगन हैं...उनका दिया प्रसाद है, यह लोग
बूढ़े...अपंग को भी सताते हैं न...बाई बो गणेश तलाई का वार्ड
मेंबर रहा न...अरे, वही जिसके पिता तो दबंग नेता रहे और यह है
आज का लालची, कपटी नेता।’’
‘‘मैं नहीं जानती।’’
‘‘तुम्हारी आई-बाबा जानते होंगे, ऐसों को सब जानते हैं, मेर
कूँ देखो...सारी जिंदगानी उनके ठौर काम आती रही हूँ। मेरा मरद
रेलवे का चौकीदार रहा। हम नागपुर से यहाँ आये। एकठो छोटी खोली
में भरपूर मस्ती से रहे थे। उस साल गाँव गयी, तो हैजे में ये
मर गये। मेरी गोद में तड़फ कर शांत हो गये। गाँव में नहीं मिला
कुछ...सो इनके रुपये से खरीदी जमीन।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘गणेश तलाई में। तीस-पचास का प्लाट है,’’ कहते हुए वह गर्व से
तन गयी, ‘‘मौके की जमीन है, तीन तरफ से सड़क है, मैंने उसमें दो
खोली पक्की बनायीं। एक में शकुन उसका पति रहता है, पेट से है।
सौ रुपये देती है किराया और मेरी रोटी सेंक देती
है...पांडुरंगा उसे चाँद-सा बेटा देगा। अब तुम बोलो...मैं तो
इस छोटे नेता से कुछ माँगती नहीं...समय-बेसमय मुफ्त में पेट
मलती, मालिश करती...उस पर मुझ बूढ़ी को बुलाकर तेज आवाज में
बोला-
‘‘अंजनाबाई काकी, बाकी नको कि तुम अपनी जमीन हमको दे दो, हम
वहाँ एक अच्छी दुकान बनायेंगे, तुमको क्या, हमारे पीछे वाली
ओसारी में पड़ी रहो।’ मी घूरी...और बोली, ‘घर कूँ बेच तुम्हारी
ओसारी में क्यूँ पड़ी रहूँ-मी अंजनाबाई देखमुख अहे...इज्जत की
दो बाखरी से काम चलेगा मेरा।
‘‘बस हो गया लफड़ा...अब जब-तब मुझे सड़क पर रोक दोनों बेटे
गलियाते हैं...‘जिंदा रहेगी कब तक ?’
‘‘अब उस दिन गिरा दिया मेरे कूँ...पूरी कमर सूज गयी। अब उसने
मेरे बगल का प्लाट ले लिया है। दोनों के बीच की गली से भी पाँच
फुट जमीन दबा ली। मेरे कूँ नोटिस भेजा है कि वो मेरे घर की
जमीन उन्होंने मुझे दी थी...सो वापस कर दूँ। विधवा-अनाथ-बूझ़ी
औरत की जमीन पर भी उनकी गिद्ध आँख लगी है। मेरे कूँ साइकिल अड़ा
कर दो बार गिराया है। लेकिन मैं नहीं डरती-मी अंजनाबाई देशमुख
अहे। कोरट जायेंगी, लड़ेंगी, परंतु अपनी गाढ़ी कमाई की जमीन मुफत
में नहीं देगी उनको। इज्जत से जिएगी !’’
सुशीला को बहुत बुरा लगा ? क्या हमारे जज्बात इतने गिर गये हैं
कि हम दूसरों का हिस्सा डकारने के लिए लज्जा त्याग दें। भूमि
अधिग्रहण जब नेता ही करेंगे, तो बचाव कैसा होगा ?
वह लाठी टेकती खड़ी हो गयी। चोट पर पट्टी बाँधी थी। उसने साड़ी
का पल्ला कसकर बांधा और डगमगाते कदमों से चल पड़ी। उसकी लड़खड़ाती
काया से टपकती हिम्मत-साहस की रेखाएँ पूरी तरह ताक, सुशीला
सोचने लगी।
सुशीला और उसका परिवार मड़ावा के इस दो मंजिले मकान में लगभग
चालीस वर्षों से रह रहा है। नीचे के उनके हिस्से में चार कमरे
हैं। जर्जरित हैं, परंतु मरम्मत करवाकर काम निकल जाता है, चारा
भी तो कुछ नहीं, दो-तीन लाख की पूँजी अभी जमा नहीं। डॉ. साहब
की होमोपैथिक की दुकान शहर के बीचों-बीच होने से चल ही जाती
है, दूर कहीं जाएँ तो हाथ खर्च के लाले पड़ जाएँ। बच्चे बड़े हो
रहे हैं, उनकी पढ़ाई का खर्चा भी तो बढ़ता ही जा रहा है। इसलिए
उनके लिए मकान बदलना व्यावहारिक है ही नहीं। ऊपरवाले किरायेदार
पैसे वाले हैं। बाजार में रेडीमेड कपड़े की बहुत बड़ी दुकान है।
किसी ने उन्हें सलाह दी कि यदि नीचे वाले किरायेदार चले जाएँ,
तो आप वहाँ भी दुकान रख लो। शहर के बीच है, बहुत बिक्री होगी।
मकान-मालिक को उन्होंने पटा ही लिया...‘किराया बढ़ाकर देंगे और
हो सकता है पूरा मकान ही खरीद लें।’
मकान-मालिक तो दिल्ली में रहता है बस, उसे तो किराये से मतलब।
सो उनके पीछे पड़ा है...‘खाली करो मकान, हमें रहना है।’
ऊपरवाले शर्माजी के देखते-देखते चार बच्चे हो गये। छोटे भाई
शादी तक तो सब सुशीला से निभा ही रहे थे, परंतु अब तो वह जैसे
उनकी जायदाद खा रही थी, उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाती।
दिन-रात ऊपर जैसे मूसल पटककर कोई अनाज कूटता हो, ऐसा धमाका
चलता है। सुशीला को लगने लगा कि उसका परिवार तो अब भूकंप
क्षेत्र में रह रहा है। भूकंप भी आकर चला जाता है, परंतु यहाँ
तो दैनंदिन के भूचाल ने सुशीला का सरदर्द बढ़ा दिया।
कुछ समय निकला तो शर्माजी आये और डॉ. साहब को समझाने लगे, ‘‘आप
यह मकान खाली क्यों नहीं कर देते ? मकान-मालिक अब आपको रखना
नहीं चाहते।’’
‘‘कि आप नहीं रहने देना चाहते ?’’ डॉ. साहब ने कडुवाहट से
पूछा।
‘‘ऐसा ही समझ लें।’’ वह दीठ होकर बोले।
‘‘तो आप यह भी जानते हैं कि हम मध्यम वर्ग के हैं, हमारी आमदनी
अधिक नहीं। आप हमें कानूनन तो निकाल सकते नहीं, दे दीजिये
वाजिब हरजाना। हम दूसरा मकान खरीद लेंगे और आपकी यहाँ दुकान
खुल जाएगी।’’
‘‘ले लें, दस-पाँच हजार और इसके अधिक की न सोचें।’’ शर्माजी
व्यंग्य से हँसे।
‘‘इतने से तो कुछ काम बनेगा नहीं।’’ डॉ. साहब उदासी से बोले।
‘‘काम बनाना हमें आता है डॉ. साहब।’’
और वे फनफनाते लौट गये। अब बढ़ गये उनके कारनामे। पान खाकर आँगन
में थूक देते, गंदे कपड़ों का पानी आँगन और बरांडे में, जब मन
आता बाल्टी का कचरा सामने वाले बरांडे में डाल देते। अब सुशीला
परिवार करे तो क्या करे ? न कौर खा सकते हैं और न निगल पाते
हैं।
सचमुच, अब जो अस्त्र शर्माजी ने लड़ाई के लिए उपयोग किया उसका
वार सहना कठिन था, रोज रात दो-चार गुंडेनुमा व्यक्ति बरांडे
में बैठ पूरे परिवार को गाली बककर सुनाते, ‘बाहर निकल
हरामजादे, तेरे हाथ-पैर तोड़ देंगे।’
वे सब जब इस दौर में पूरी तरह शिकस्त और विचारहीन थे, बूढ़ी
अंजना पुनः अवतरित हुई। उखड़े भाव में बैठी सुशीला के घुटने
सहलाती बोली, ‘‘बाई, मालिश नहीं कराओगे, इतनी दूर से आयी
मैं।’’
’’नहीं ...आजकल मैं बहुत कड़की में हूँ।’’
‘‘कोई बात नहीं...ऐसे में मालिश करवा लो, आराम मिलेगा...में
मैं नहीं रहती, इनसान में जीती।’’ और अंजना आदतन बोल पड़ी,
‘‘बाई ! मेरे घर के बगलवाली गली के एक ओर की जमीन पर रातोंरात
झोंपड़ा ठुक गया। ससुरों ने मेरी सात फीट जमीन दबा ली। इस पर भी
उन हरामियों को, जिन्हें मुफ्त में खाने की आदत है, चैन
नहीं...रोज कूँ मेरे घर के सामने वो उनका किराये का आवारा
गुंडा खड़ा हो मुझे डराता-धमकाता है। शकुन तो घर छोड़कर जा रही
थी, परंतु मी नाहिं डरली, गयी वकील साहब के पास, उनके पैर धर
ली। बड़े दया-धरम के आदमी हैं, मेरा मुकदमा ले लिये...कोर्ट में
केस चला गया है। जज साहब ने थानेदार को डांटा है, तो गुंडा
नहीं आता। अब मी केस लड़ेगी, डरेंगी नहीं। मी अंजनाबाई देशमुख
अहें...हाँ, भी डरेंगी नहीं।’’
लाठी पर वजन डाल काँपती-थरथराती उसकी देह को ताकती-ताकती
सुशीला एकदम उठी और थाने जा पहुँची। उसने एफ. आई. आर. दरज करवा
दी कि उसे ऊपरवाले शर्माजी गुंडों द्वारा धमकी देकर आतंकित
करते हैं...उसके परिवार का जीवन असुरक्षित है।
थानेदार तहकीकात करने आया अैर जेब भर लौट गया। व्यवस्था की
अव्यवस्था से कुंठित डॉ. साहब ने पूछा, ‘‘अब क्या करें ?’’
‘‘क्या करें ? ’’सुशीला ने अपनी देह सीधी की और बड़बड़ाई, मी
अंजनाबाई देशमुख अहे। मी डरेंगी नहिं। हाँ ?’’
‘‘क्या बक रही हो तुम ? पागल हो गयी हो!’’
‘‘नहीं ...अब ही तो सँभली हूँ, मैं डरूँगी नहीं। अपना अधिकार
लेकर रहूँगी। आखिर, इस मकान में पैंतालीस वर्षों से रह रही
हूँ’’ और सुशीला तेजी से घर से बाहर निकल गयी। धीरे-धीरे उसके
साथ मुहल्ले की दस-पंद्रह औरतें साथ थीं और वह सबको लेकर
एम.एल.ए. साहब के पास जा पहुँची...उन्होंने सब ध्यान से सुना व
एस.पी. को फोन किया। नये एस. पी. मि. सिंह सरदार थे...तुरंत
मि. सिंह जीप लेकर सुशीला के घर आ गये। उन्होंने शर्माजी को
डपटा, ‘आप और डॉ. साहब मुआवजा आदि की बात में आपसी, जो चाहे
समझौता करें, परंतु इन्हें गाली-गलौज देकर यदि आपने आतंकित
किया, तो
मुझसे
बुरा कोई न होगा।’
सुशीला के परिवार ने मि. सिंह को दुआएँ दीं और राहत की साँस ले
कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। शर्माजी भी जानते थे कि सिविल
मुकदमा वर्षों चलेगा...और अब सरलता से घर खाली न होगा, इसलिए
कुछ माह बाद ही मकान-मालिक को उन्होंने दिल्ली से बुलवा लिया
ताकि, आमने-सामने समझदारी से बातें तय हों। और उन्होंने
मकान-मालिक से पचास हजार मुआवजा डॉ. साहब को दिलवाने की पहल की
तब सुशीला ने भी सुविधाजनक किराये के मकान को ढूँढना प्रारंभ
कर दिया। |