ज्यों ही
पता चला कि बाजार में आज गोभी सौ की पंद्रह और आलू पचास के
दस किलो मिल रहे हैं तो मैं नंगे पाँव ही बाजार जा पहुँचा।
मैंने बाजार पहुँच आव देखा न ताव, पंद्रह किलो गोभी और दस
किलो आलू एक बड़े से बोरे में डाल गधे की तरह लदा घर की ओर
लचपचाती टाँगों पर चल पड़ा। अभी बाजार से दो ही मोड़ घर की
ओर हाँफता चढ़ा था कि सामने सड़क पर कूड़े के ढेर के पास एक
गधा मस्ती में बीड़ी फूँकता खड़ा दिखाई दिया तो मुझे अपने पर
बहुत दया आई! यार! मुझसे अच्छा तो ये गधा है, जो गधा होने
के बाद बिलकुल मजे में है और, एक मैं आदमी होने के बाद
भी... अभी मैं उसकी मौज के बारे में सोच ही रहा था कि
सामने कूड़े के ढेर पर मुँह मारता गधा मुझे देखकर हँसने लगा
तो मुझे बहुत गुस्सा आया, मोहल्ले वाले मुझ पर हँसे यह तो
जायज है, पर अब ये गधा भी? जाना पहचाना हो फिर तो चलो उसे
आप जैसे कैसे सहन कर लो! पर अब ये गधा भी? आखिर इसको कैसे
पता चला होगा कि मैं सबके हँसने का आधार हूँ?
जब मुझसे रहा न गया तो मैंने अपने कंधे से आलू गोभी की
बोरी गृहस्थ को कोसते हुए वहीं पटकी और उस पर आग बबूला
होते उससे पूछा, ‘जान पहचान के होते तो तो बात कुछ और
होती, पर अपरिचित और वह भी गधे होकर तुम एक आदमी पर हँस
रहे हो? इस बाबत पुलिस को सूचित करूँ क्या?’ पर वह मजे से
बीड़ी फेंक वैसे ही हँसता रहा तो मुझे उसके गधेपन पर गुस्सा
होने के बदले दया अधिक आई! छोड़ यार गधा है! गधे के आगे बीन
बजाने से क्या फायदा! तू गुस्से हो भी रहा है तो किस पर
गुस्से हो रहा है? यार, तू तो इससे भी अधिक गधा लग रहा
है,’ अपने से कह मैं फिर नीचे उतारी आलू गोभी की बोरी
उठाने को हुआ तो गधे ने मुझे रोकते कहा, ‘यार, गृहस्थी लग
रहे हो?’ जब मैंने इधर उधर देखा, आसपास कोई न दिखा तो मैं
हैरान! तभी गधे ने फिर कहा, ‘चौंको नहीं! मैं ही बोल रहा
हूँ। शादी शुदा लगते हो?’
‘तुम्हें कैसे पता ? क्या तुम मेरी बारात में गए थे?’
मैंने चकित हो पूछा तो वह बोला, ‘नहीं! हम गधे हैं,
आदमियों की बारात में नहीं जाते। आत्मग्लानि होती है।’
‘तो फिर कैसे जान गए कि मैं शादी शुदा हूँ?’
‘वैरी सिंपल! यह तो गधे से गधा भी बता सकता है कि तुम शादी
शुदा हो! गधे की तरह जो लदे हो मेरे बड़े भाई! अगर कुँवारे
होते तो मेरी तरह....’ कह गधे न ठहाका लगाया तो मन किया कि
उसकी ठहाका लगाने वाली ज़बान खींच लूँ, पर आलू गोभी का बोरा
उठाने के बाद मेरी तो अपनी ही जबान खीची जा रही थी, सो मन
मार गया। पता नहीं तब क्यों गधा होने के बाद भी उस वक्त
मुझे उसमें बीवी से अधिक आकर्षण लगा और मैं न चाहते हुए भी
उससे बातें करने के लिए वहीं बैठ गया! बातों ही बातों में
मैंने उससे पूछा, ‘बाराबंकी के तो नहीं हो?’ तो अबके
चौंकने की बारी उसकी थी सो वह चौंकता बोला, ‘हाँ, हूँ तो
बाराबंकी का ही, पर कैसे पहचान लिया तुमने!’
तो मैंने आधी पौनी मूंछों पर ताव देते कहा, ‘तुम क्या
समझते हो कि केवल तुम ही उस्ताद हो, अरे मैं आदमी हूँ
आदमी! गधों को उनकी चाल से ही पहचाान लेता हूँ कि कौन गधा
कहाँ का है। हूँ तो मैं आदमी पर चौबीसों घंटे रहता तो गधों
के बीच में हूँ। पढ़े लिखे कितने हो?’ मैंने आगे पूछा तो वह
नाक भों सिकोड़ता बोला, ‘बीए पास हूँ!’
‘हद है यार! फिर भी गधे ही रहे? बीए करके तो तुम्हें कम से
कम पूरा नहीं तो आधा पौना आदमी हो जाना चाहिए था!’
‘पर नहीं हो सका। हम मिडल क्लासों के साथ बस यही एक दिक्कत
है कि हम चाहे कितने ही पढ़ लिख क्यों न जाएँ, पता नहीं
क्यों फिर भी रहते गधे ही हैं?’
‘अच्छा तो, एक बात और बताओ? उनसे तुम्हारा कोई रिश्ता तो
नहीं ?’ कह मैं उसकी आँखों में झाँकने लगा।
‘क्यों??’ गधे ने अबके हैरान होते पूछा तो मैंने कहा, ‘वह
इसलिए कि तुम बहुत कुछ उनके पोते- नाती जैसे पता नहीं मुझे
क्यों लग रहे हो,’ तो वह ठहाका लगाता बोला, ‘हद है यार!
गजब की स्मरण शक्ति है तुम्हारी! लगता है, गृहस्थी का भार
ढोते ढोते अभी भी कुछ दिमाग तुममें शेष बचा है,’ तो मुझे
लगा कि यार, ये गधा तो मेरे से भी अधिक दुनियादारी का
ज्ञान रखे है। राम जाने, फिर पता नहीं कैसे ये बेचारा गधा
योनि में चला गया? शायद भगवान से इंडिया में भेजते हुए गलत
रजिस्ट्रेशन हो गई होगी इसकी! तभी उसे लगा कि मैं अपने आप
से कुछ कहने में व्यस्त हूँ तो उसने पूछा, ‘अपने से कह रहे
हो कुछ क्या?’
‘तुम्हें कैसे मालूम?’
‘मैं सब जानता हूँ! भले ही गधा हूँ।’
‘तो तुम अन्तर्यामी भी हो?’
‘नहीं पता!’
‘क्यों, अपने बारे तुम्हें कुछ नहीं पता?’
‘नहीं, गधा जो हूँ। इस देश में गधे गधे इसलिए हैं कि
उन्हें अपने बारे में मालूम नहीं कि वे क्या हैं! उन्हें
जिस दिन ये पता लग जाएगा कि वे क्या हैं, उस दिन देश में
एक भी गधा गधा नहीं रहेगा,’ उसने बुद्धिजीवी वाली बात की
तो मेरे दाँतों तले उँगली खुद ही चली गई!
‘अच्छा तो एक बात बता, तुम कहीं उन वाले गधे के पोते नाती
तो नहीं ? उनके गधे का विवाह किसके साथ हुआ था?’
‘क्यों? आदमी को तो आदमी पर विश्वास नहीं पर यार गधे पर तो
तुम्हें विश्वास होना चाहिए, क्योंकि आदमी और गधे में एक
यही बेसिक फर्क है कि आदमी आदमी होकर भी झूठ बोलता है जबकि
गधा गधा होकर भी झूठ नहीं बोलता।’
‘ऐसा क्यों?’ मैंने सिमटते पूछा तो वह बोला, ‘गधों के
शब्दकोष में झूठ, फरेब नाम के शब्द अभी तक शामिल नहीं हुए
हैं। रही बात उनके विवाह की! तो उनका विवाह दिल्ली में एक
सेठ की रूपवती नामक रूपसी से हुआ था।’
‘फिर!!’
‘फिर क्या! वहाँ भी मेरे दादा के साथ धोखा सा हुआ। वे मेरे
दादा के दिमाग पर नहीं पंडित जी से उनकी मुलाकात के बाद
दूसरे चक्करों में पड़े थे !’
‘फिर!!’
‘फिर उन्होंने पता नहीं कहाँ विवाह कर लिया। उससे उनके चार
संतानें पैदा हुईं। दो मामे, एक मासी और....’
‘फिर!!’
‘फिर क्या! नाना दिल्ली में ही कहीं सैटल हो गए। अच्छा
धंधा था वहाँ उनका! पर बाद में जब अंतिम दिन आए तो
बाराबंकी जाने की रट लगाने लगे!’
‘क्यों?’
‘रिश्तेदार बताते हैं कि वे बोलते थे, मैं चाहे लाख गधा
हूँ, पर मेरी अंतिम इच्छा है कि मैं मरने के बाद अपनी
मिट्टी में ही मिलूँ!’
‘फिर!’
‘मेरी मां ने बागी हो एक सेठ से इंटर रेस मैरिज कर ली।’
‘गधे बाप ने रोका नहीं?’
‘रोका तो बहुत, पर माँ नहीं मानी तो नहीं मानी! अपने को
माडर्न जो कहती थी। नाना ने माँ को बहुत समझाया कि हम गधे
हैं गधे! हम कितने ही पढ़ लिख, पैसों वाले क्यों न जाएँ पर
अपना समाज बिरादरी अपने ही होते हैं। अपनी सभ्यता संस्कृति
अपनी ही होती है।’
‘फिर!’
‘फिर क्या! नाना से विद्रोह कर मैरिज तो कर ली, पर बाद में
पता चला कि जिससे मेरी माँ ने मैरिज की थी वह पहले ही
मैरिड था।’
‘बड़ा दुख हुआ सुनकर! फिर!!’
‘फिर क्या! वे इस सदमे को सहन नहीं कर पाए और उन्हें दिल
का दौरा पड़ा!’
‘वैरी सैड! फिर!’
‘फिर क्या! सरकारी अस्पताल गए और वहाँ वही हुआ जो लगभग
हरेक के साथ होता है।’
‘भगवान उनकी आत्मा को शांति दें! फिर!’
‘फिर क्या! माँ गर्भ से थी! उसे सेठ पर बहुत गुस्सा आया और
एक रात वह उसके घर से चुपचाप मुझे पेट में ले बाराबंकी आ
गई!’
‘आह! फिर!’
‘फिर क्या! बाराबंकी में कुछ था तो नहीं। बड़े लोगों के घर
झाड़ू पोंछा कर पेट पालती रही। जैसे कैसे उसके मैं पैदा
हुआ। दूसरे गधों के साथ गिरता पड़ता बड़ा हुआ तो अपने गाँव
के लड़कों के साथ मजदूरी करने तुम्हारे शहर आ गया।’
‘फिर तुमने बीए कहाँ से की? मैंने सोचा कि मैंने गधे का
झूठ आन द स्पााट पकड़ लिया तो वह मजे से बोला, ‘पत्राचार
से!’
‘तो अब क्या इरादा है?’
‘गधा हूँ! भार ढोने के अतिरिक्त और क्या करूँगा? जनता और
गधे को इस देश में बस भार ही ढोना है। वह चाहे कितनी ही पढ़
लिख क्यों न जाए,’ कि तभी मेरे मोबाइल पर घर से बीवी की
घंटी बजने लगी, मैं परेशान सा हुआ तो उसने पूछा, ‘किसका
फोन है?? घरवाली का ही होगा! यार, ये मोबाइल भी न एक पंगा
हो गया है। दो घड़ी अगर एक दूसरे से अपने सुख दुख बाँटना भी
चाहें तो भी नहीं बाँट पाते, तंग कर देता है, ’ उसने
सिसकते हुए मेरे कंधे पर आलू गोभी की बोरी रखवाई और मैं
उससे फिर मिलने का वादा कर घर आ गया। |