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फुलवारी


ह और म की लड़ाई (नाटक)
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धमयंत्र चौहान

पात्र- आनंद, बसंत, तीसरा व्यक्ति ह तथा म
(सभी बच्चे)

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(मंच पर एक ओर से आनन्द कुछ सोचता हुआ आता है। मंच पर विचारमग्न मुद्र में घूमता हुआ सोचता रहता है। दूसरी ओर से बसंत आता है।)

बसंत- आनन्द बाबू नमस्ते।
आनन्द - नमस्ते।
बसंत - अरे आनन्द! क्या हुआ? बड़े चिंतातुर लग रहे हो। सब कुछ ठीक तो है ना?
आनन्द - हाँ! सब कुछ ठीक है, पर .... ?
बसंत - पर क्या? लगता है कोई खास चिन्ता है।
आनन्द - यार, आजकल ये क्या हो रहा है?
बसंत - क्या हो रहा है? क्या देखकर आ रहे हो?
आनन्द - यार मैं समाचार सुन रहा था। देखा कि एक नेता दूसरे की, एक पार्टी दूसरी की आलोचना ही आलोचना कर रहे हैं।
बसंत - इसमें सारा दोष इनका नहीं है।
आनन्द - फिर किसका दोष है?
बसंत - अरे भाई! जब से आदम ने शैतान का दिया हुआ फल खाया है तब से आज तक वह ऐसे ही लड़ता आ रहा है।
आनन्द - भारत में इतने प्रान्त हैं कोई न कोई लड़ता ही रहता है।
बसंत - अरे आनन्द! लड़ाई सब जगह है - भाई-भाई में, पति-पत्नी में, पड़ोसी-पड़ोसी में, और तो और वर्णमाला के अक्षरों में भी होती है।
आनन्द - वर्णमाला के अक्षरों में?
बसंत - अरे हाँ ! भाई, एक दिन क और ख लड़ रहे थे, तो एक दिन ह और म। दोनों अपने आप को श्रेष्ठ व दूसरे को हीन बता रहे थे।
आनन्द - देखो ! शायद ह और म इधर ही आ रहे हैं।
बसंत - इनका वाक्युद्ध देखना है तो चलकर छिप जाते हैं।

ह - मेरे मित्र महाशय! आजकल दिखाई नहीं देते। मिलना मुश्किल हो गया है।
म - मेरा मिलना, मेरा मिलना मुश्किल तो जरूर है भाई। बात यह है कि किसी ऐसे-वैसे आदमी से मिलने का मौका ही नहीं मिलता। सुना है तुमने तो हर-हर महादेव का नारा बुलन्द किया हुआ है। इतना समय मुझे कहाँ मेरे मित्र?

ह - हाँ जी! हिम्मत बढ़ गई है आपकी। मेरी हालत पर हँसते हैं आप। मैं हर्षपूर्वक कहता हूँ, मुझसे बड़ा कौन है? मैं देवों में हरि और हर, राजाओं में हरिश्चन्द्र, तीर्थों में हरिद्वार, फूलों में हरसिंगार, पशुओं में हाथी, पक्षियों में हंस, मेलों में हरिद्वार क्षेत्र का मेला, भोजनों में हलवा और सवारियों में हवाईजहाज हूँ।

म - मैं भी मस्ती में कहता हूँ कि मेरा मुकाबला कौन करेगा ? मैं देवों में महादेव, वीरों में महावीर, ऋषियों में महर्षि, मनुष्यों में मनु, फूलों में मदार, नदियों में मन्दाकिनी, भोजन में मलाई, मक्खन, मिश्री और मालपुआ हूँ, मालपुआ।

ह - (बिगड़कर)- क्यों डींग हाँक रहे हो? सारी दुनिया जानती है कि तुम जीवों में मच्छर, मकड़ी और मक्खी हो। पानी में मुँह छिपाने के लिए तुम मछली बन जाते हो और अगर आदमी बनते हो तो मजदूर, मदारी या मस्खरा। मेरे साथ तेरा मुकाबला ही क्या? मैं हाकिम हूँ हाकिम। लोग मुझे हुजूर कहते हैं। मैं सैनिकों में हवालदार, गिनती में हजार और बालकों में होनहार हूँ।

म - (मुस्कराकर) - अपने मुँह मियाँ मिठ्ठू बन रहे हो। कौन नहीं जानता? तुम हुल्लड़बाज, हुड़दंग, हिंसक और हठी हो। तुम दैत्यों में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप, मनुष्यों में हलवाई, कर्मों में हिंसा और हत्या, राजनीति में हड़ताल और रोगों में हैजा हो हैजा।
और मैं, इन्द्रियों में उनका स्वामी मन, पुस्तकों में मंगलाचरण, वस्त्रों में मखमल, मकानों में मन्दिर और महल, पुरुषों में महापुरुष, साधुओं में महात्मा, व्यापारियों में महाजन और आभूषणों में मोती हूँ मोती।

ह - (हँसकर) - जाओ, वहाँ जाकर गाल बजाओ, जहाँ तुम्हें कोई न पहचाने। मैं तो अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम मूर्ख हो, मक्कार हो तथा मतलबी हो। तुम मुकदमे बाज हो, मांसाहारी और मलेच्छ हो। तुम फलों में महुआ, अन्नों में मोठ, रोगों में मलेरिया, महामारी, जानवरों में मर्कट, जलचरों में मगरमच्छ और भूमि में मरुभूमि। मैं पर्वतों में हिमालय, मनोभावों में हर्ष और अंगों में हृदय हूँ हृदय। (स्वयं हँसता है।)

म - (आँखे मटकाकर)- क्यों अपनी हाँक रहे हो? तुम्हें कौन नहीं जानता? तुम थोड़ी सी विपत्ति में ही हताश होकर हल्ला और हंगामा करते हो। व्यवसायों में हज्जाम हलवाहे हो। गरीब के सामने तुम हेंकड़ी दिखाते हो और रईस के साथ हेरा-फेरी करते हो। तुमसे तंग आकर लोग हलाहल पी जाते हैं, होश की बातें करो।
और मैं, अरे मैं तो मतिमान् हूँ। मोहन के मुख की वह मंद मुस्कान हूँ, जिसे देखकर मृगलोचनी राधा ही नहीं मैना और मोर भी मुग्ध हो जाते थे। मैं लताओं में मालती, पौधों में महकती मेंहदी, वृक्षों में महोगिनी, पशुओं में मृगेन्द्र और मिठाइयों में मोदक हूँ। मैं ही वाद्यों में मृदंग हूँ, द्वीपों में महाद्वीप और सरोवरों में तो मोती चुगते मरालोंवाला मानसरोवर हूँ, जहाँ जाकर मोक्ष मिलता है।

ह - (गर्दन नचाकर) - अरे मनचले ! मोक्ष की बात दूर रही, तुम लोगों के बीच मनमुटाव करा दो। तुम मक्खीचूस मनुष्य को माया की मरीचिका में भटकाकर या मुंडेर से गिराकर मरघट के मार्ग से मौत तक ले जाते हो। अरे मूढ़! मुँहफट कुछ पता है कि मार्केट में मँहगाई के कारण लोग मन मसोस कर रह जाते हैं। तुम तो मन का मैल हो, मुँह का मुँहासा हो। तुम वह मोह हो, जिसमें लोग मदिरा पीना शुरु कर देते हैं व अंत में माहुर खा लेते हैं। मनुष्यों में मोची और मुस्टंडे तुम किसी भी बात से मुकरने वाले हो।

और मैं धरती की हरियाली हूँ, त्योहारों में होली हूँ, हट्टा-कट्टा और हँसमुख हूँ। मैं अक्षरों में हस्ताक्षर, धातुओं में हेम, पत्थरों में हीरा व पक्षियों में हीरामन हूँ। मैं ही हितोपदेश करके हरिपुर की रहा बताता हूँ। मैं भाषाओं में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी, देशों में सबसे सुन्दर देश हिन्दुस्तान और समाजों में श्रेष्ठ हिन्दू समाज हूँ, जो सबका हितैषी है। रेडियो स्टेशन में हम रेडियोस्टेशन हूँ जो सबका चहेता है।

(तीसरा व्यक्ति) -
अरे भाई ! तुम दोनों व्यर्थ में क्यों लड़ रहे हो? तुम दोनों तो एक दूसरे के अंग हो। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता। ह यदि हृदय है तो म मन है। ह हलुआ है तो म मक्खन व मिश्री। तुम दोनों में कोई कम नहीं है। अगर तुम यह झगड़ा छोड़ कर आपस में मिल जाओ तो कितना अच्छा होगा।

- देखो मिलकर रहने से ही परिवार बनता है। एक-एक मोती मिलकर ही माला बनती है। एक-एक च्यक्ति मिलकर समाज बनता है। एक-एक जवान मिलकर शक्तिशाली सेना बनती है। एक-एक वर्ण मिलकर ही भाषा बनती है। एकता में बड़ी शक्ति होती है यह शक्ति यदि सृजन में लग जाए तो सुखी संसार की रचना होती है।

ह और म - जी हाँ ! बात आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। दोनों पास आते हैं।
अरे! हम दोनों तो मिलकर ‘हम’ बन गए।
- सब मिलकर गीत गाते हैं -
एक आँगन के दिए हम एक सूरज की किरन हैं।
वर्ण कितने हों भले हम, एक माला के सुमन हैं।

समाप्त
२८ जुलाई २०१४

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