१
लोक - फ़ोक और बुंदेलखंड का स्वांग
-विनोद मिश्र ‘सुरमणि’
व्यवहारिक रूप से देखें तो शास्त्र की उत्पत्ति लोक से
ही मानी जायेगी। लोक में व्याप्त सुर और शब्द ही
शास्त्र के मूलाधार बने हैं विद्वानों ने अपनी बौद्धिक
क्षमताओं से भले ही परिभाषाओं को अलग-अलग रूपों में
प्रस्तुत किया है परन्तु आदिकाल से लोक से प्राप्त
मान्यताओं को झुठलाया नहीं जा सकता। सृष्टि की रचना
में जब मनुष्य की उत्पत्ति हुई होगी तभी से लोक शब्द
का भी प्रदुर्भाव हुआ होगा। स्वर्गलोक, परलोक,
पाताललोक शब्दों का होना यह तय करता है कि लोक शब्द की
प्राचीनता क्या हो सकती है।
आज के दौर में लोक को ‘फोक’ कहकर आधुनिक होने को हम
ज्ञानी समझने लगे हैं। वास्तव में लोक का ‘फोक’ से
किसी प्रकार का नाता नहीं है। अमेरिकी विद्वान जार्ज
हरजोग ने अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक और सामाजिक
स्थितियों का सर्वेक्षण किया था इस सर्वेक्षण के साथ
उन्हें उस क्षेत्र के लोगों की आर्थिक स्थितियाँ
पारिवारिक और दिनचर्या की भौतिक भौगोलिक एवं मानवीय
मूल्यों की स्थ्तिियों का पता चला। जार्ज हरजोग का
मानना था कि जो लोग सांस्कृतिक तो हैं परन्तु
अव्यवस्थित उपेक्षित अस्वच्छित प्रवृत्ति से रहने वाले
हैं उनकी इस प्रकार की गतिविधियाँ फोक के रूप में कही
जा सकती हैं और इन्हीं आधारों पर उन्हें फोक कहा गया।
भारत के दृष्टिकोण से देखें तो यहाँ की जनजाति की भी
अपनी मौलिक परम्परायें हैं उनकी अपनी संस्कृति है,
उनके संस्कार। आज हम अपनी संस्कृति और संस्कारों
पारंपरिक रीति रिवाजों को फोक कहकर उनके प्रति श्रद्धा
रख रहे हैं या उन्हें अपमानित कर रहे हैं कॉन्वेन्ट
पद्धति से पढ़ने वाले छात्र-छात्राएँ जब वार्षिकोत्सव
में भाग लेते हैं तो फोक संगीत, फोक डांस में रुचि
दिखाते हैं। परन्तु जब लोक संस्कारों के साथ जीवन जीने
की बात आती है तो वह ग्रामीणता का उपेक्षित भाव रखकर
उससे कन्नी काटते नजर आते हैं।
दरअसल यह उनकी गलती नहीं है। यह गलती हम सभी की है। हम
अपने बच्चों को आधुनिक बनने की इच्छा शक्ति बढाते हैं।
प्रगति और विकास की आवश्यकता है परन्तु संस्कार विहीन
विकास जल्दी ही पतन का मार्ग दिखाता है।
बुन्देलखण्ड क्षेत्र कला संस्कृति का धनाढ्य क्षेत्र
है। अन्य प्रान्तों की क्षेत्रीय संस्कृति की तरह यहाँ
की भी अपनी मौलिक परम्पराएं हैं, सांस्कृतिक धरोहर है।
यहाँ पर लोक परम्पराओं में लोक गायन, लोकगीत आदि का
भण्डार सदैव रहा है। यहाँ की प्रवत्ति में सुरताल लय
का समावेश उसी तरह से है जैसे कि फूलों में खुशबू,
झरनों में नाद, हवाओं में खुशबू और निनाद को विस्तार
करने की क्षमता। परन्तु कुछ लोक विधाएं अपना अस्तित्व
खोती जा रही हैं। आने वाले दिनों में या तो वह
पुस्तकों में प्रकाशित होकर पुस्तकालयों की शोभा
बढायेंगी या फिर संग्रहालयों में शोधार्थियों तथा
दर्शनार्थियों के लिए प्रेरक बनेगी।
फाल्गुन माह में बुन्देलखण्ड क्षेत्र में ‘स्वांग’ की
अपनी मौलिक परम्परा रही है जो होली की परमा (प्रथम
तिथि) से लेकर पंचमी यानि रंग पंचमी तक चलती थी। पांच
दिवसों तक स्वााभाविक रूप से आयोजित एवं प्रस्तुत किये
जाने वाला स्वांग बिना संसाधनों एवं सहयोग के प्रभावी
रूप से किये जाते रहे हैं। स्वांग से सीधा अर्थ अपने
में किसी अन्य स्वरूप को धारण करना है। मूलतः स्वांग
लोक नाट्य का एक वह रूप है जिससे यह कहने में संकोच
नहीं होगा कि लोकनाट्य का प्रादुर्भाव स्वांग से ही
हुआ है।
देशों के अनेक हिस्सों में लोकनाट्य की जो भी
परम्परायें हैं उनका मूलाधार पुराणिक कथानक या पुराणिक
पात्रों का प्रस्तुतिकरण ही होता है और ऐसे प्रसंग ही
प्राचीनता को दर्शाते हैं क्योंकि समय के साथ ही
विचाारों में परिवर्तन आता हैं समाज में विस्तार से ही
स्वरूप बदलते हैं। हम जब पुराणों वेदों एवं धर्म
ग्रंथों के प्रति ही आश्वस्त थे, उन्हीं के मार्गदर्शन
में हमारा मार्ग प्रशस्त होता था तो स्वाभाविक है
हमारे मनोरंजन के साधनों के विषय भी यही रहे होंगे। आज
भी हमारी मान्यतायें हमारे वेद पुराण ही हैं परन्तु
समय के दौर में आये परिवर्तन ने हमारे ज्ञान और
मनोरंजन में समसामयिकता भी रखी है।
बुन्देलखण्ड के स्वांग को स्वांग सवारी कहते हैं। ये
इन्हीं दोनों शब्दों से मिलकर बना है। स्वांग में
गायन, वादन, नृत्य एवं अभिनव का समावेश होता है।
स्वांग से आशय किसी अन्य स्वरूप को धारण करना है। गायन
द्वारा प्रस्तुतिकरण करना है स्वांग में गायन को
प्राथमिकता होती है। सवारी में अभिनव का प्रयोग होता
है। सवारी से तात्पर्य उसी पात्र का स्वाभाविक स्वरूप
आ जाना है। जैसे कि शिव का स्वांग रचने वाला
अभिनयकर्ता ताण्डव नृत्य करते हुये राक्षसों का वध
करता है। बुन्देलखण्ड के स्वांग की तरह ही राजस्थान
में मांड कलाड़ी, बृज में भगत नाच, मालवा में माच,
पूर्वांचल में नाच आदि भी गायन के साथ अभिनय करने की
विधायें प्रचलित है। आज इन लोक विधाओं से अभिनय
विलुप्त होने लगा और गायन मात्र रह गया है जैसे
राजस्थान में मांड कलाड़ी से गायन माड़ रह गया, स्वांग
सवारी से गायन स्वांग रह गया।
प्रारंभ से स्वांग को पुरुष वर्ग ही करता आ रहा है।
महिलाओं में यह विधा शादी विवाह में लड़के की बारात चली
जाने के बाद किये जाने वाला अभिनयात्मक नृत्य, गायन,
‘जुगिया’ है। जिसमें महिलायें स्वतंत्र एवं स्वच्छंद
होकर पुरुष एवं स्त्री के संबंधों को लेकर नृत्य गायन
अभिनय के साथ प्रस्तुत करती हैं। जो नाट्य का स्रोत
माना जा सकता है। डाकू, पण्डित, पति, ससुर नेता पुलिस
वाला आदि स्वरूप धारण कर वह फुर्सत के क्षणों में आनंद
लेती है और आपस में मनोरंजन करती है। यहाँ यह टिप्पणी
करनी आवश्यक होगी कि नव युवतियों में महिला-पुरुष के
आन्तरिक संबंध लिये सरकारें भागी-भागी फिरती हैं और
यौन शिक्षा लागू करने पर लाखों का बजट लाने को तैयार
रहती है। हमें सहजता में ‘नकल’ की प्राचीन विधा
प्राप्त रही है। हो सकता है भारत के कई क्षेत्रों में
यह आज भी हो परन्तु हमारे क्षेत्र में देखने-सुनने को
कम ही मिलती है। घर-परिवार के मांगलिक उत्सवों,
आयोजनों कार्यों के बाद फुर्सत के क्षणों का उपयोग नकल
के द्वारा किया जाता था जिसका मूल भाव मनोरंजन करना
एवं समाज को दिशा देना ही हुआ करता था। समाज के किसी
भी पात्र को, घटनाक्रम को, संवाद और अभिनव की कुशलता
से वे प्रभावी प्रस्तुत करते जिससे मनोरंजन के साथ जन
जागृति भी आती थी।
स्वांग और नकल दोनों के आयोजनों एवं प्रस्तुति करण के
आधार पर यह कहना उचित भी हो सकता है कि वर्तमान में
नुक्कड़ नाटक जो समाज को जागृत करने का एक सशक्त माध्यम
बन गया है उसकी परिकल्पना इन दो विधाओं से की गई हो
इनसे ही इसका आधार लिया गया हो। बहरहाल तीन-चार दशक से
अतिसक्रिय नुक्कड़ नाटक का अपना प्रभाव है परन्तु हमें
यह कहने में भी संकोच नहीं होगा कि हमारे यहाँ पूर्व
से इस प्रकार के माध्यम जनजागृति के लिये रहे हैं।
प्रस्तुतिकरण की टोलियों में भले ही अंतर हो।
स्वांग का प्रारम्भ एक टोली के रूप में होता है जिसमें
एक समूल गायन एवं वादन करने वाले का होता है तो दूसरा
समूह अभिनय करने वालों का जो विभिन्न स्वरूपों को धारण
करते हैं। गायन की शुरुआत ‘साकी’ दोहा या उड़ान से होती
है। पूर्व में मृदंग, कसावरी, कींगड़ी, ढप वाद्ययंत्रों
का उपयोग होता था फिर हारमोनियम, ढोलक व नागड़ियां आदि
से भी प्रस्तुतिकरण किये जाने लगा। रमतूला वादक
पीछे-पीछे अपना वादन करना हुआ नृत्य करता है। स्वांग
में दतिया की पारंपरिक लेद गायन फाग गायन चौकड़िया
नगड़ियाऊ फाग का प्रयोग होने लगा। यहाँ का लांगी नृत्य
स्वांग के साथ प्रयोग किये जाने लगा। स्वांग के प्रमुख
पात्रों में गणेश नादीया (डूढावैल) इन्द्रदेव, भगवान
शंकर व भवानी अनिवार्य रूप से रखे जाते थे। फिर
समसामियिक कथानकों के आधार पर डाकू, नेता, सेठ, पागल
पात्रों का प्रवेश होता था। लांगी नृत्य के माध्यम से
मदारी द्वारा बंदर या भालू का नाच और घोड़ा को नचाने का
दृश्य आदि बच्चों को लुभाते थे। ज्ञातव्य है कि
राजस्थान एवं बुन्देलखण्ड क्षेत्र में लिल्ली घोड़ी
(दिलदिल घोड़ी) नृत्य एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश भोजपुरी
क्षेत्र का कठघुड़वा नाच भी इसी प्रकार के लोकनृत्य हैं
जो मनोरंजन के सशक्त साधन थे। कुछ दशक पूर्व यह लोक
परम्परा आर्थिक बोझ के कारण शादी-विवाहों में भी की
जाने लगी थी परन्तु आज यह समाप्ति की ओर है।
स्वांग की मण्डली एक विशेष स्थान पर एकत्र होकर गाँव
के मुहल्ले में प्रत्येक घर जाती थी, वहीं अपना
प्रदर्शन किया करती थी। घर के मुखिया इन्हें बराबर
सम्मान देते थे। धनराशि, स्वल्पाहार आदि से इनहें
पुरस्कृत एवं सम्मानित किया जाता था। विदूषक की भूमिका
करने वाला व्यक्ति (कलाकार) आगे-आगे चलता था।
आज स्वांग हमारे बीच नहीं है। यदाकदा कुछ स्थलों पर
इसके आयोजन हो भी रहे होंगे तो दर्शकों की अरुचि का
शिकार भी हो रहे होंगे क्योंकि इलेक्ट्रोनिक संसाधनों
एवं पाश्चात्य संस्कृति ने हमारी परम्पराओं को सिर्फ
नुकसान ही पहुंचाया है। हमारी इन विधाओं के प्रति
अरुचि का कारण हमारा आधुनिक बनते ही इसके प्रति
भ्रूणात्मक सोच रखना है। मुझे यह कहने में बिल्कुल भी
संकोच नहीं होगा कि भोपाल के कला जगत के लोगों ने
विशेषकर रंगकर्म से जुड़े लोगों ने इस प्रकार की विधाओं
को प्राथमिकता दी है। आज कई नाटकों में लोक तत्वों को
स्थान मिला है। भारत ज्ञान विज्ञान द्वारा १९९० में
निकाले गये साक्षरता जत्थों में आंचलित दलों ने भी ऐसे
प्रयास किये थे। हमें स्वांग, नकल, नौटंकी आदि
लोकनाट्य परम्पराओं को संरक्षित करने के प्रयास करने
चाहिए। मंचीय प्रस्तुतियों के साथ जमीनी स्तर पर भी
प्रयास करने होगें तब कहीं हम इन्हें बचा सकेंगे।
४ अगस्त
२०१४ |