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१७. ३. २०१४

इस सप्ताह-

1
अनुभूति में-
होली के रंगों से रंगा-रंग विविध विधाओं में अनेक रचनाकारों की मनमोहिनी रचनाएँ।

कलम गही नहिं हाथ-

होली का हुलास प्रवासियों को हर जगह होली के रंग में डुबो देता है। देखिए यकीन होता है कि यह फोटो दुबई में खींचा गया है? नहीं होता न? ...आगे पढ़ें

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- होली की तैयारी में चटपटी चाट के लिये विशेष रुप से बनाई गई छोले चाट

आज के दिन (१७ मार्च को) १९२३ में नाटककार मनोरंजन दास, १९३२ में अंतरिक्ष वैज्ञानिक और 'इसरो' के भूतपूर्व अध्यक्ष उडुपी रामचन्द्र राव...

हास परिहास के अंतर्गत- कुछ नये और कुछ पुराने चुटकुलों की मजेदार जुगलबंदी का आनंद...

पुनर्पाठ के अंतर्गत- ोली के पर्व से संबंधित कहानियों, लेखों, ललित निबंधों, संस्मरणों तथा अन्य विधाओं में रचनाओं का संग्रह- होली विशेषांक समग्र

नगरनामा में- प्रहलाद और होलिका का शहर हरदोई, होली के संदर्भ में, अशोक शुक्ला की कलम से- हिरण्याकश्यप की नगरी हरदोई

वर्ग पहेली-१७७
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि-आशीष के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-

वरिष्ठ कथाकारों की प्रसिद्ध कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में जयशंकर प्रसाद की कहानी- अमिट स्मृति

फाल्गुनी पूर्णिमा का चन्द्र गंगा के शुभ्र वक्ष पर आलोक-धारा का सृजन कर रहा था। एक छोटा-सा बजरा वसन्त-पवन में आन्दोलित होता हुआ धीरे-धीरे बह रहा था। नगर का आनन्द-कोलाहल सैकड़ों गलियों को पार करके गंगा के मुक्त वातावरण में सुनाई पड़ रहा था। मनोहरदास हाथ-मुँह धोकर तकिये के सहारे बैठ चुके थे। गोपाल ने ब्यालू करके उठते हुए पूछा- बाबूजी, सितार ले आऊँ?
आज और कल, दो दिन नहीं। -मनोहरदास ने कहा।
वाह! बाबूजी, आज सितार न बजा तो फिर बात क्या रही!
नहीं गोपाल, मैं होली के इन दो दिनों में न तो सितार ही बजाता हूँ और न तो नगर में ही जाता हूँ।
तो क्या आप चलेंगे भी नहीं, त्योहार के दिन नाव पर ही बीतेंगे, यह तो बड़ी बुरी बात है।
यद्यपि गोपाल बरस-बरस का त्योहार मनाने के लिए साधारणत: युवकों की तरह उत्कण्ठित था, परन्तु सत्तर बरस के बूढ़े मनोहरदास को स्वयं बूढ़ा कहने का साहस नहीं रखता। आगे-

*

सरस्वती माथुर की लघुकथा
सपनों का गुलाल
*

ज्योतिर्मयी पंत से प्रकृति में
वसंत का फल काफल
*

राहुल देव का आलेख
समकालीन कहानियों में होली
*

भावना सक्सैना का संस्मरण
सूरीनाम में होली

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पिछले सप्ताह- शिवरात्रि के अवसर पर


श्रीप्रकाश का व्यंग्य
भीड़तंत्र की महिमा
*

डॉ. रामलखन सिंह सिकरवार से प्रकृति
के अंतर्गत आम्र मंजरी और धनुषधारी कामदेव
*

गुलाब सिंह का आलेख-
नवगीत और भारतीय संस्कृति
*

पुनर्पाठ में- पूजा श्रीवास्तव की दृष्टि से
कृष्ण बिहारी का कहानी संग्रह- दो औरतें

*

समकालीन कहानियों में भारत से
पावन की कहानी- खूबसूरत व्यवधान

‘क्या हमारी फिर मुलाकात होगी?
‘देखते हैं, मेरे जाने के बाद अगर आप जिन्दा रहे तो?', उसने मुस्कराते हुए कहा। यही वो क्षण था जिसे वो रोकना चाहता था, ठहरा देना चाहता था, इस मुस्कराहट को और मुस्कराने वाली को। उसने कामना तो की लेकिन जल्द ही सिर झटक दिया। लैपटॉप पर आशिक़ी-२ का गाना बज रहा था और मोबाइल फोन पर बातचीत हो रहा थी।
सुन रहा है न तू....रो रहा हूँ मैं...
‘तो ठीक है, तू खुश रह अपनी दुनिया में। मैं जा रहा हूँ हमेशा के लिए।', लड़के के चेहरे पर करुणा, क्रोध और असहायता के मिले जुले भाव थे।
‘तुम जहाँ मर्जी हो जाओ, पर मेरा पीछा छोड़ो। मैं दुखी होने की सीमा भी क्रास कर चुकी हूँ।', दूसरी ओर से कहा गया।
‘मैं मरने की बात कर रहा हूँ, मरने की, समझी? अगर तुझे लगता है तू उस हरामजादे चौहान के साथ खुश रहेगी तो ठीक है मैं तेरे रास्ते से... आगे-

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी -|- मीनाक्षी धन्वंतरि
 

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