आम्र मंजरी और
धनुषधारी कामदेव
-डॉ.
रामलखन सिंह सिकरवार
यों तो भारत ऋतुओं का देश है और हर ऋतु की अपनी अलग पहचान होती
है परंतु संस्कृत कवियों ने जितना वर्णन बसंत की सुंदरता का
किया है उतना अन्य ऋतु का नहीं। इसे ऋतुओं का राजा भी कहा गया
है।
बसंत ऋतु में
पेड़-पौधे अपने पुराने परिधानों (पत्तियों व फूलों) को त्यागकर
नये परिधानों (रंग-बिरंगे फूलों एवं नयी पत्तियों) को धारण
करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो साक्षात कामदेव बसंत का
रूप धारण करके रंग-बिरंगे फूलों का हार लिये खड़ा हो! वसंत ऋतु
में रंग-बिरंगे फूलों से आव्रत ‘अरविंद, अशोक, आम की मंजरी,
नवमल्लिका और नीलोत्पल’ कामदेव के पाँच बाण माने जाते हैं।
महाकवि कालिदास ने अपने काव्यों में बसंत ऋतु में बौरे हुए आम
की मदमाती मादकता की जितनी उपमाएँ दी हैं उतनी अन्य वृक्ष की
नहीं। मंजरियों से लदे हुए आम की मदमाती सुगंध वातावरण को
तरोताजा कर देती है।
आम एक -
नाम अनेक
इसे हिंदी में आम, अंब, मराठी में अंक, गुजराती में अम्रि,
तेलुगू में मामिड़ी मावी, तमिल में मंगा, माऊ, कन्नड़ में माबू
मलयालम में आम्रम, कूतम, संस्कृत में आम्र, चूत तथा लैटिन में
मैंजीफेरा इंडिका कहते हैं। यह संपूर्ण भारत में पाया जाता है।
यह भारी गुंबदाकार छत्र और सीधे सुदृढ़ तने वाला विशाल वृक्ष
है। इसकी छाल मोटी खुरदरी तथा गहरी धूसर होती है। पत्तियाँ २-१
से.मी. चौड़ी तथा १०-३० से.मी. लंबी एवं भालाकार होती हैं।
पुष्पकृम, पुष्प गुच्छ के रूप में पुष्प छोटे, लालभ-श्वेत या
पीताभ-हरित, तीव्र गंध वाले व मधुकारी होते हैं।
ऋतु संहार में-
बसंत ऋतु में
बौर से लदे हुए आम के वृक्षों का वर्णन करते हुए ऋतु संहार में
महाकवि कालिदास लिखते हैं, ‘‘लो प्रिये! फूले हुए आम की
मंजरियों के पैने वाण लेकर और अपने धनुष पर भौरों की पाँतों की
डोरी चढ़ाकर वीर बसंत शृंगार करने वाले रसिकों को बेधने आ
पहुँचा है।’’
बसंत के आने से बावड़ियों का जल, मणियों से जड़ी करधनियाँ,
चाँदनी, स्त्रियाँ और मंजरी से लदी आम की डालें, सब और भी
सुहावने लगने लगे हैं। लाल-लाल कोंपलों के गुच्छों से झुके हुए
और सुंदर मंजरियों से लदी हुई शाखाओं वाले आम के पेड़ जब पवन के
झोंकों से हिलने लगते हैं तो उन्हें देख-देख कर स्त्रियों के
मन उछलने लगते हैं। अपनी स्त्रियों से दूर रहने के कारण जिनका
जी बेचैन हो रहा है, वे यात्री जब मंजरियों से लदे हुए आम के
पेड़ को देखते हैं, तब अपनी आँखें बंद करके रोते हैं, पछताते
हैं, अपनी नाक बंद कर लेते हैं कि कहीं मंजरियों की भीनी-भीनी
महक नाक में पहुँचकर स्त्री की याद न दिला दे और फूट-फूट कर
रोने लगते हैं।
परदेश में पड़ा हुआ यात्री एक तो योंही विछोह से दुबला-पतला हुआ
रहता है, उस पर जब वह मंद-मंद बहने वाले पवन के झोंकों से
हिलते हुए और सुंदर सुनहले बौर गिराने वाले बौरे हुए आम के
वृक्षों को अपने मार्ग में देखता है तो वह कामदेव के वाणों की
चोट खाकर मूर्छित होकर गिर पड़ता है। और तभी महाकवि कालिदास की
अमरवाणी गूँजती है- ‘‘जिसके आम के बौर ही वाण हैं, टेसू ही
धनुष हैं, भौंरों की पाँत डोरी है, मलयाचल से आया हुआ पवन ही
मतवाला हाथी है, कोयल ही गायक है और शरीर न रहते हुए भी जिसने
संसार को जीत लिया है, वह कामदेव बसंत के साथ आपका कल्याण
करे।’’
अभिज्ञान शाकुंतलम में-
अभिज्ञान शाकुंतलम में पहली परिचारिका बौर से लदे हुए आम के
पेड़ को संबोधित करती हुई कहती है- ‘‘हे बसंत ऋतु के जीवन
सर्वस्व ! बसंत के मंगल स्वरूप ! हे लाल हरे पीले रंग वाले
बौर! आज पहले पहल तुम्हारा दर्शन हो रहा है। तुम हम पर प्रसन्न
हो जाओ जिससे हम लोगों का बसंत सुख से बीते।’’
दूसरी परिचारिका आम का बौर अंजली में लेकर कहती है-
‘‘अरी आम की मंजरी! मैं तुझे धनुषधारी कामदेव के लिए
भेंट करती हूँ। परदेश में गये हुए लोगों की युवती स्त्रियों को
काम पीड़ा देने के लिए तुम कामदेव के पाँचों वाणों में सबसे
अधिक पैनी बन जाओ।’’
एक स्थान पर राजा विदूषक से कहता है-
‘‘देखो! अभी मेरे मन से शकुंतला को भुला देने वाला मोह उतरा ही
नहीं था कि मुझे मारने के लिए अपने धनुष पर आम के बौर का यह
नया वाण चढ़ाकर कामदेव भी आ धमका है।’’
मेघदूत
में-
मेघदूत में कालिदास का यक्ष मेघ से कहता है- ‘‘देखो! पके हुए
फलों से लदे हुए आम के वृक्षों से घिरा हुआ आम्रकूट पर्वत
पीला-सा हो गया होगा। उसकी चोटी पर जब तुम कोमल बालों के जूड़ों
के समान साँवला रंग लेकर चढ़ोगे तब वह पर्वत, देवताओं के
दंपत्तियों को दूर से ऐसा दिखायी देगा मानो वह पृथ्वी का उठा
हुआ स्तन हो, जो बीच में काला हो और चारों ओर पीला हो।’’
रघुवंश में-
रघुवंश में
अग्निवर्ण की काम क्रीड़ा का बसंत ऋतु में वर्णन करते हुए
कालिदास लिखते हैं-
‘‘मलय पर्वत से आये हुए दक्षिण पवन से आमों में बौर छा गये।
जिन्हें देखकर प्रेमिकाओं ने कामोन्मत्त होकर राजा से रूठना
छोड़ दिया और उनके विरह में व्याकुल होकर स्वयं उन्हें ढूँढने
लगीं।’’
कुमारसंभव में-
कुमारसंभव
में अलग अलग स्थानों पर आम्र मंजरी का उल्लेख वे इस प्रकार
करते हैं- जैसे भौंरों की पाँतें
बसंत के ढेरों फूलों को छोड़कर आम की मंजरियों पर ही मँडराती
रहती हैं, वैसे ही अनेक संतानों के होते हुए भी हिमवान की
आँखें पार्वती पर ही अटकी रहती थीं।...
सुंदर बसंत ने नयी कोंपलों के पंख लगाकर आम की मंजरियों
के वाण तैयार कर दिये। उन पर उसने जो भौंरें बैठाये वे ऐसे
लगते थे मानो उन वाणों पर कामदेव के नाम के अक्षर लिखे हुए
हों।... आम की मंजरियाँ खा लेने से
जिस कोकिला का कंठ मीठा हो गया था वह जब मीठे स्वर से कूक उठता
था, तब उसे सुन-सुनकर रूठी हुई स्त्रियाँ अपना रूठना भी भूल
जाती थीं।
रति विलाप करते हुए बसंत से कहती है- ‘‘हे बसंत ! जब तुम
कामदेव का श्राद्ध करना, तब उनके लिए पत्तों वाली आम की मंजरी
अवश्य देना क्योंकि तुम्हारे मित्र को आम की मंजरी बहुत प्यारी
थी।’’
प्रेम में पगी हुई पार्वतीजी अपनी सखी के मुँह से महादेवजी को
यह संदेश कहलाती हुई वैसी ही सुशोभित हुई जैसे कोयल की बोली
में बसंत के पास अपना संदेश भेजती हुई आम की डाली शोभा देती
है।
१० मार्च २०१४ |