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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
डॉ. सरस्वती माथुर की लघुकथा- सपनों का गुलाल


आज घर में चहल पहल थी, शेखर विदेश से लौट जो रहा था। कुछ दिन बाद ही होली भी आ रही है। माँ बसंती देवी ने बेटे की पसंद की केसरिया खीर, दही बड़े, गुझिया और ठंडाई बनाई और बेचैनी से इंतज़ार करने लगीं, वह बहुत बड़ा आँखों का डॉक्टर बन कर जो आ रहा था ! उसके पिता बंसी लाल जी की भी बस एक ही आरजू थी कि बेटा डॉक्टर बन कर गरीबों की सेवा करे विशेष तौर पर दूर के उन गाँवों मे जहाँ डॉक्टर नहीं जा पाते हैं ! और आज वह दिन आ गया था !

बेटे के स्वागत में सारा परिवार एक ही बाहर लॉन में आ जुटा था ! पिता गर्व से फूले न समा रहे थे। घर के आँगन में महिलाएँ उत्साह से ढोलक पर फाग गा रहीं थीं --"-होलिया में उड़े रे गुलाल,  खेले रे मंगेतर से...!" पूरी कॉलोनी में हवा के साथ उस घर की खुशियों भरी बासन्ती बयार भी बह रही थी।

शेखर एयरपोर्ट से घर पहुँचा तो सभी ने उसे फूल मालाओं से लाद दिया था ! सभी बहन बेटियाँ नेक माँग कर छेड़ रहीं थीं, "अरे शेखर भैया अपना सूटकेस तो खोल कर दिखाओ कहीं इसमें गोरी बहुरिया मेम तो नहीं भर लाये हो विदेश से?"

घर के बच्चों के लिए तो मानो कोई उत्सव सा था, अपने ही रंग में डूबे पिचकारी में पानी भर भर कर एक दूसरे पर फेंक रहे थे। सारा वातावरण रंग रंगीला हो गया था! इसी रौनक में पूरा दिन भी हँसी खुशी से गुजर गया था। अगले दिन से ही शेखर को एक चैरिटी अस्पताल में नौकरी शुरू करनी थी। विदेश से ही सारी औपचारिकताएँ पूरी करके ही लौटा था !

अस्पताल का पहला दिन भी होली के त्यौहार सा मदमस्त था,  क्योंकि अस्पताल के परिसर में ही रोटरी क्लब की तरफ से एक चिकित्सा शिविर का आयोजन था! संस्थान की तरफ से ही गाँवों ढाणियों से बसों में बैठ कर मरीज आए थे, मोतियाबिंद आपरेशन व सलाह मशविरा के लिए डॉक्टर शेखर देख रहा था कि शिविर में आए लोग कितनी आशाएँ लेकर आते हैं, उसे अपने पिता के शब्द याद आए कि बेटा डॉक्टर बन कर लोगों के जीवन में रंग घोलेगा। सच में जिनकी आँखें नहीं हैं उनके लिए काला रंग ही उनका संसार है, उनकी पूरी दुनिया है। इस दुनिया को रंगीन बनाना ही अब उसका मकसद होगा।

शेखर ने घर लौट कर अपनी माँ बसन्ती देवी को पहले दिन का पूरा आँखों देखा हाल बताया तो वो भावुक हो गईं यह सुन कर कि दुनिया में कितने ही नेत्रहीन भी हैं जिनकी दुनिया में उजाला नहीं है,  बहुत देर तक वो कुछ सोचती रहीं, फिर संजीदा होकर बेटे से बोलीं- "बेटा एक न एक दिन हर किसी को जाना है। एक काम करना न, कल मेरे लिये नेत्र दान का फार्म ला देना ताकि मैं मृत्यु के बाद आँखें दान देकर किसी के जीवन में रोशनी भर सकूँ। "

शेखर अपनी माँ की इस परोपकारी भावना को देखकर गर्व से भर गया, सोचने लगा सच यदि हम अपने घर से ही ऐसी सेवाभावी योजना की पहल करें तो न जाने कितने लोगों को रंगों की दुनिया से जोड़ सकेंगे! इसी के साथ उसे एहसास हुआ कि इस बार की होली कुछ अनूठी है,  जिसमे चंग, मृदंग, टेसू रंग के साथ इस घर के आँगन में कुछ लोगों के सपनों का गुलाल भी उड़ कर वातावरण को आशाओं की खुशबू से महका रहा है !

१७ मार्च २०१४

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