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संस्मरण

 

सूरीनाम में होली
-भावना सक्सैना


अनंत प्राकृतिक वैभव से सम्पन्न सूरीनाम की प्रदूषणमुक्त धरती पर बारह महीने फूलों व फलों की बहार रहती है। इस चिर बसंत वाले देश में पाँच वर्ष पूर्व मार्च २००९ में समयानुसार जब बसंत हुआ तो मन उदास हो उठा। कारण स्वाभाविक था- सात समंदर पार भारत से दूर होली की कल्पना नहीं कर पा रही थी। जिन आँखों को सप्ताह भर पहले से बाजारों में पिचकारी रंग गुलाल की सजी दुकानें देखने की आदत थी उन्हें होली की तैयारी जैसा कुछ दिखाई ही नहीं पड़ रहा था। राजदूतावास में कार्यरत स्थानीय स्टाफ से इस संबंध में चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि कुछ इंडियन स्टोर्स हैं जहाँ हमे गुलाल, रंग आदि मिल जाएगा किंतु परिवार की कमी बहुत खल रही थी। बचपन से होलिका दहन देखने की आदत और विवाहोपरांत ससुराल में घर में ही किए जाने वाले होलिका दहन, की याद आ रही थी। बताया गया कि कईं मंदिरों में सम्पूर्ण विधि विधान के साथ होलिका दहन किया जाता है, इसका आरंभ कई दिन पहले से चौताल मिलन के साथ हो जाता है। स्थान स्थान पर गाँव गाँव में लोग एकत्र हो कर खूब उल्लास के साथ चौताल मिलन करते हैं, किंतु नए स्थान पर यों ही जाने में संकोच था। राजदूतावास की ओर से भारत भवन में होली-मिलन कार्यक्रम का आयोजन था जो एक स्वर्णिम रेखा थी। उल्लेखनीय है कि सूरीनाम में फगवा नाम से प्रचलित इस त्योहार को राष्ट्रीय अवकाश होता है।

दो दिन पहले से निरंतर वर्षा हो रही थी, मौसम भीगा भीगा था, लगा प्रकृति होली का आनंद लेना चाह रही है। यद्यपि वर्षा सूरीनाम में कोई अचरज की बात नहीं है, प्रतिदिन एक बार तो बादल बरस ही जाते हैं, पर उस बार कुछ ज्यादा ही थी और पूर्णिमा के दिन तो सुबह से इतना बरसा कि सड़कों का पानी घर में और फिर अहाते में और अंततः घर के भीतर भर आया। दोपहर होते होते घर के भीतर एक फुट पानी भर गया था। मन में रह रहकर यही आ रहा था कि विधाता ने हम देश से बाहर रहने वालों के साथ होली खेलने के लिए यह नया तरीका अपनाया है। घर के सामान को पानी से बचाने में दिन भर बीत गया, होली के पकवान बनाने का तो स्मरण भी न रहा।

ऐसी स्थिति में हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि कहीं पर होलिका दहन भी हुआ होगा, किंतु सूरीनाम के हिंदुस्तानी वंशजों को जिजीविषा का गुण विरासत में मिला है। परिस्थितियाँ कितनी भी विषम हों वह उससे उबरने के तरीके ढूँढ लेते हैं। बाद में पता चला कि हर ओर पानी होने पर भी जहाँ-जहाँ तय था होलिका दहन हुआ था। यही दृढ़ इच्छाशक्ति ही तो संस्कृति की आग को हर पवन झकोरे से बचाकर रखती है।

शाम होते होते वर्षा धीमी हुई और घर के अंदर भरा पानी धीरे धीरे उतरने लगा। दूतावास के कुछ अन्य अधिकारियों के घर में भी पानी भरा था, सभी समय समय पर एक दूसरे का हाल ले रहे थे। राजदूत महोदय व्यक्तिगत रूप से सबसे संपर्क बनाए हुए थे जिससे हम सब का हौसला बना हुआ था। अगली सुबह अर्थात दुलहंडी के दिन भारत-भवन (भारत के राजदूत का आवास) पर विशेष कार्यक्रम का आयोजन था जिसमें अन्य देशों के राजनयिक व सूरीनाम के राजनेताओं के साथ साथ सामान्य जनता भी आमंत्रित थी सो सभी अधिकारियों का सपरिवार पहुँचना आवश्यक था किंतु सड़क पर पानी भरा था जिसमें अपनी कार निकालना असंभव प्रतीत हो रहा था। तभी गेट पर हॉर्न की आवाज़ सुनाई दी और दूतावास की वैन देखकर आँखों में आँसू आ गए, सदा मुस्कुराते वैन चालक श्री धरमपाल हमें लेने आए थे, महामहिम की ओर से उन्हें दूतावास के सभी कर्मियों को भारत भवन पहुँचाने का आदेश मिला था। तत्कालीन राजदूत श्री कंवलजीत सिंह सोढी के इस संरक्षणात्मक व पूरे स्टाफ का ध्यान रखने की भावना ने अहसास कराया कि अपनापन रिश्तों का मोहताज़ नहीं होता। कुछ ही समय में सब भारत भवन पर थे। वर्षा भी थम गई थी, मानो भारतवंशियों के धैर्य की परीक्षा पूरी हुई हो और वे एकजुट हो सफल हुए हों।

अब उत्सव की बारी थी। भारत भवन में अतिथियों का आगमन आरंभ हुआ, सफेद चमकती टी-शर्ट जिनके सामने लिखा था शुभ होली और पारंपरिक परिधानों से सजे, हाथ में गुलाल, सफेद पाउडर और इत्र लिए लोग टोलियों में आ रहे थे। सभी बहुत शिष्टता के साथ एक दूसरे पर गुलाल छिड़क अथवा गालों पर लगा कर होली की शुभकामनाएँ दे रहे थे और उनके शब्द भी थे-शुभ होली। हैप्पी होली सुनने के अभ्यस्त कानों को थोड़ा अलग किंतु बहुत मधुर लगा। कुछ महिलाएँ तो पूर्ण साज-सज्जा के साथ पारंपरिक साड़ी में उपस्थित थीं। कौतूहलवश एक से प्रश्न कर ही लिया-आपने होली खेलने के लिए इतनी सुंदर साड़ी पहनी? उनका उत्तर सुनकर मन गदगद हो गया, उनका कहना था-“एक परिधान हमारे त्योहार से महत्वपूर्ण तो नहीं”।

अन्य देशों के राजनयिकों की उपस्थिति कार्यक्रम को गरिमा प्रदान कर रही थी। विशेष रूप से अमरीका, चीन और ब्राज़ील के राजनयिक कार्यक्रम में बहुत उत्साह से भाग ले रहे थे। होली पर्व की शुभकामनाओं के बाद भारतीय सांस्कृतिक केंद्र की छात्राओं ने मोहक नृत्य प्रस्तुत किया; इसके पश्चात होली के विभिन्न गीतों से सभी झूम उठे। रंगारंग कार्यक्रम व रंगों से सराबोर होने के पश्चात सभी अतिथियों ने हिन्दुस्तानी भोजन, गुजिया इत्यादि पकवानों का भरपूर स्वाद लिया। यह उल्लेख करना भी आवश्यक है, क्योंकि सूरीनाम में पारंपरिक भारतीय भोजन बाज़ार में उपलब्ध नहीं होता तो भोजन की सभी तैयारी भारत भवन में श्रीमती सोढी की देखरेख में हुई थी और इसमें दूतावास के सभी कर्मियों की अर्धांगिनियों का सहयोग था। कार्यरत अधिकारी होने के कारण उस वर्ष मुझे पकाने की तैयारियों का सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ था किंतु अगले वर्ष से मैंने भी पकवान तैयार कराने का आनंद लिया।

लगभग चार घंटे चले इस आयोजन का भरपूर आनंद उठाने के बाद हम लछमनस्त्रात स्थित कृष्ण मंदिर गए जहाँ आने के लिए पहले से वहाँ के पंडित कृष्णदत्त मथुराप्रसाद जी ने आमंत्रण दिया था। रास्ते में लोग टोलियों में शहर का चक्कर लगाते दिखे, तो कुछ लोग शहर के बीचोंबीच स्थित इंडिपेंडेंस स्कवेयर पर एकत्र हो मित्रों, परिचितों व अपरिचितों के साथ त्योहार का आनंद उठा रहे थे जिसमें काफी गैर-हिंदुस्तानी व्यक्ति भी शामिल थे। लगभग तीन बज रहे थे और हम सोच रहे थे कि कार्यक्रम तो समाप्त हो चुका होगा किंतु बाहर तक आती चौताल की ध्वनि ने उत्साह बढ़ा दिया। चौताल व खजड़ी पर होली के गीत और कबीर खूब उत्साह के साथ गाए जा रहे थे।– "सुन लो मोर कबीर, भैया सुन लो मोर कबीर" की ध्वनि से वातावरण गूँज रहा था। रंगों की बरसात हो रही थी। बाहर एक बड़ा सा टब (वास्तव में बच्चों का इन्फ्लेटेबल स्विमिंग पूल) चटख गुलाबी रंग से भरा हुआ था और उसमें बच्चों के साथ साथ बहुत से बड़े भी बच्चे बने हुए थे। सफेद फर्श सारा गुलाबी हो चुका था। स्वागत हुआ पिचकारी की एक मोटी सी धार से, और इस तरह हम रंग गए सूरीनाम की होली में।

 

१७ मार्च २०१४

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