नवगीत परिसंवाद-२०१३ में
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नवगीत और भारतीय संस्कृति
-गुलाब सिंह
'सभ्यता और
संस्कृति' दो पदों के इस युग्म का प्रयोग प्रायः
साथ-साथ किया जाता है। वास्तव में संस्कृति मूल है और
सभ्यता शाखा प्रशाखाओं से सम्बद्ध है। आदि युग का मानव
जब सभ्यता के मानदण्डों से दूर था तब भी उसकी अपनी
संस्कृति थी। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने
अपने ग्रन्थ
'बोल्जा से गंगा' में आदिम समाज के विकास का जो रूप
प्रस्तुत किया है, उसमें उसकी संस्कृति की झलक भी
उपस्थित है।
आज का दौर पूरे विश्व में सभ्यता के शिखर पर पहुँचा
हुआ है। भारतीय समाज में भी प्रगति और सभ्यता का
चरमोत्कर्ष दिखाई पड़ता है। तब फिर सांस्कृतिक पतन की
बातें क्यों उठाई जा रही हैं। शायद इसीलिए कि संस्कृति
ही किसी समाज, देश और राष्ट्र की पहचान है और यह भी कि
सभ्य होने से संस्कारवान होना और भी महत्वपूर्ण है।
सभ्यता का चोंगा भी पहना जा सकता है, पर संस्कृति
नित्य जीवन की धड़कन से जुड़ी होती है। नवगीत क्योंकि
भारतीय किस्म की आधुनिकता का ही पक्षधर है, इसलिए आज
संस्कृतियों की विकृतियों के प्रभावों का विरोधी है।
भारतीय संस्कृति अपने आप में ही बहुलतावादी है और
सामुदायिकता इसका आधार है। परस्परता प्रेम सौहार्द
इसके स्वत्व हैं। सामूहिक परिवार का जो दीर्घकालीन
ढाँचा कायम रहा है, आज यह टूट चला है। हमारी
पारिवारिकता वसुधैव कुटुम्बकम् तक प्रसरित थी। परिवार
में सदभाव निश्छलता और संबंधों की जो ऊष्मा थी, जो
कर्तव्य बोध था, उसके पीछे हमारी सांस्कृतिक विरासत की
शक्ति थी। डॉ. ओम प्रभाकर का यह गीत दृष्टव्य है-
"जैसे-जैसे घर नियराया
बाहर बापू
बैठे दीखे/ लिए उमर की बोझिल घड़ियाँ/ भीतर अम्मा करें
रसोई/ लेकिन जलती नहीं लकड़ियाँ/ कैसा है यह दृश्य
कटखना/ मैं तन से मन तक घबराया/दिखा तुम्हारा चेहरा
ऐसे/ जैसे छाया कलम कोश की/ आँगन की देहली पर बैठी/
लिए बुनाई थालपोश की/ मेरी आँखे जड़ी रह गईं/ बोलों में
सावन घहराया/ जैसे-जैसे घर नियराया।"
अभाव के बीच भी माता-पिता के प्रति समादर, प्रिया के
प्रति स्नेह भाव परिवारिकता का एक प्रभावी चित्र
प्रस्तुत करता है। गीली लकड़ियों से रसोई करती माँ,
उम्र की बोझिल घड़ियों से घिरे पिता के प्रति पीड़ा और
सावन की शीतल बूदों जैसे प्रिया के बोल सब कुछ आपस में
घुल मिलकर जो आत्मीयता जगाते हैं, वह हमारी सांस्कृतिक
धरोहर का सुफल है। आज इसका क्षरण 'अम्मा बापू ईख की
छोई/गुड़ जैसे साले बहनोई' के रूप में नवगीत की इन
पंक्तियों में दिखाई पड़ रहा है, जो तुलसीदास के कथन की
याद दिला रहा है-
'ससुरारि पियायरि भई जब ते/ रिपु रूप कुटुम्ब भये तब
ते।'
आज की आपाधापी में अपरिचय का और असंपृक्ति का जो मंजर
सामने दिखाई पड़ रहा है वह 'अजनबीपन' और 'बेगानेपन' की
वही तस्वीर प्रदर्शित कर रहा है, जिसके लिए निराला ने
आधी सदी पहले लिखा था- ‘देखते हैं लोग लोगों को सही
परिचय न पाकर' अपरिचय और दूरी का यह रंग और गाढ़ा ही
होता गया है। अब गाँवों के गिर्द का घेरा टूट गया है।
जिसका घर उसी का अलाव, उसी के सिंकते हाथ और उसी का
अकेला चेहरा। ग्राम्य जीवन पर नवगीतों में बहुत लिखा
गया है। शायद इसलिए भी कि वह जीवन हमारी संस्कृति और
हमारी पहचान का आधार रहा है।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी की 'कुछ बात' की
ताकत क्षीण हो चली है। उस पर चमकीले आरोपित रंगो का
मुलम्मा चढ़ गया है और हमारी हस्ती आच्छादित हो गई है।
भारतीयता को पिछड़ेपन से जोड़कर अगड़ेपन के आपातित मेकअप
के साथ हम तेज रफ्तारी का हास्यास्पद नमूना पेश कर रहे
हैं। लेकिन इस प्रभाव से बचे हुए लोग भी हैं। सत्तर
पार करने पर डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया ने लिखा-
'सत्तर सीढ़ी उमर चढ़ गई/ बचपन नहीं भुलाये भूला/ झुकी
कमर पर मुझे बिठाना/ बाबा का घोड़ा बन जाना/ अजिया का
आशीष, पिता का-गंड़े ताबीजें पहनाना/ अम्मा के हाथों/
माथे का/ अनखन नहीं भुलाये भूला।'
वही डॉ. भदौरिया आगे लिख गए- 'अब किसको/ किससे
नापेंगे/ तोड़ चुके पैमाने लोग/ नाकाबिल/के भी/ बैठे
हैं सिरहाने लोग।'
जिन सभ्यताओं ने कभी हमें चौपाये के रूप में देखा और
पूँछ काटकर मानव जमात में गिना, उन्हें जब हमारी
संस्कृति की नाक ऊँची दिखने लगी तो पूँछ कटे इतिहास का
करिश्मा याद कर नाक की ओर हाथ बढ़ाने लगे हैं और हम
हालीवुड, वालीवुड, कव्वालीवुड पर ताली बजा रहे हैं।
देवेन्द्र शर्मा इन्द्र पीछे बहुत दूर झाँककर कहते
हैं- 'मैं तुम्हारी लेखनी हूँ/ मोरपंखों से बनी हूँ।'
वह मोरपंखो वाली लेखनी को इसलिए याद करते दिखाई पड़ते
हैं कि उन्हें दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रन्थ पर गर्व
है। ऋग्वेद की प्रार्थनायें विश्व कल्याण के लिए हैं।
सामवेद का गायन सर्व समत्व के लिए है। निराला की- 'वह
हँसी बहुत कुछ कहती थी। फिर भी अपने में पूछती थी'
प्रेमाभिव्यक्ति की यह मुस्कान हमारी लोक मर्यादा और
संस्कृति की परिधि का सम्मान करती है। और यही नवगीत
रचना की पृष्ठभूमि है।
'मुँह बिचकाती शोक सभायें/ नये किस्म की शव यात्रायें/
शव के पीछे-पीछे चलतीं/ आगामी चुनाव चर्चायें' (डॉ.
भदौरिया) यह नक्शा हमारी विकसित सभ्यता का है, जो
हमारी ही संस्कृति का उपहास कर रही है।‘अब भी मुझसे
रोज एक नालन्दा जलता है' माहेश्वर तिवारी की यह पीड़ा
अपनी सांस्कृतिक विरासत की ध्वस्त होती दशा का ही शब्द
चित्र है। इस तरह के नवाचार की विरूपता को देखकर
अमरनाथ श्रीवास्तव ने लिखा है- 'शब्द हुए होते, अनुवाद
हुए होते/ प्रचलन के आगे प्रतिवाद हुए होते।' कहना
होगा कि नवगीत ने अपनी मूल्यवान और सारी दुनिया के
सामने आदर्श प्रस्तुत करने वाली संस्कृति का पुरजोर
रचनात्मक समर्थन किया है। उमाकांत मालवीय ने
सांस्कृतिक परम्परा से जुड़े तीज त्योहारों पर्वों पर
अनेक महत्वपूर्ण नवगीत लिखे हैं। मानवीय सौंदर्य को भी
नवगीत ने जिस सलीके से प्रस्तुत किया है वह संवेदना और
भाव स्पन्दन का आदर्श है- 'खिली थी झर गई बेला।'
अँधेरे का लौटकर चौखट चले आना/ रोशनी का फफकना औ बिला
जाना/ बताता है कि किन मजबूरियों में मर गई बेला/ खिली
थी झर गई बेला/ तुम्हारे प्यार के पाँवों पड़ी अब तर गई
बेला।‘अथवा-’एक पेड़ चाँदनी लगाया है आँगने/फूलों तो आ
जाना/ एक फूल माँगने।' (देवेन्द्र कुमार) सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि ताजे टटके बिम्बों के साथ सहज सरल रचनाओं का
नवगीत में विपुल भण्डार है।
'मन का आकाश उड़ा जा रहा, पुरवइया धीरे बहो। (शम्भुनाथ
सिंह) पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी/ पाँच जोड़
बाँसुरी (ठाकुर प्रसाद सिंह) आसपास जंगली हवाएँ हैं
मैं हूँ/ पोर-पोर जलती समिधाएँ हैं मैं हूँ। (माहेश्वर
तिवारी) चंदा रे! कल मड़वे बेल चढ़ेगी दूज की अटारी से
देखना (दिनेश सिंह), झउवे की गंध मेरा गाँव/ पान का
प्रबन्ध मेरा गाँव (अनूप शेष), ये शहर होते हुए से
गाँव पहचाने नहीं जाते। (उमाशंकर तिवारी) रोज जहर पीना
है/ सर्पदंश सहना है/ मुझको तो जीवन भर चंद ही रहना
है। (श्रीकृष्ण तिवारी)।
बुद्धिनाथ मिश्र, नचिकेता, प्रेमशंकर रघुवंशी, शांति
सुमन, कुमार रवीन्द्र, राजेन्द्र गौतम, राधेश्याम
शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, निर्मल शुक्ल, शैलेन्द्र शर्मा,
बृजनाथ श्रीवास्तव, देवेन्द्र सफल, श्याम श्रीवास्तव
के नवगीतों में सांस्कृतिक वैशिष्ट्य देखा जा सकता है।
अलग और नई जमीन तथा रंग से जुड़े नवगीतों में
सांस्कृतिक परिदृश्य प्रस्तुत करने वाले वीरेन्द्र
आस्तिक, महेश अनघ, राम सेंगर, विनोद निगम, यश मालवीय,
जयकृष्णराय 'तुषार', अवनीश सिंह चौहान, यशोदरा राठौर
उल्लेखनीय है। अपनी मिट्टी से जुड़े शताधिक नवगीतकार
रचना रत हैं।
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शोध का विषय है। इस पर विस्तृत आलेख अभीष्ट है। अभी बस
इतना ही। |