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९. ९. २०१३

इस सप्ताह-

अनुभूति में-
हिन्दी दिवस के अवसर पर मातृभाषा को समर्पित अनेक कवियों की विभिन्न विधाओं में रचित ढेर सी रचनाएँ।

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत ब्रेड के व्यंजनों की विशेष शृंखला में इस बार प्रस्तुत है- ब्रेड उत्तपम

रूप-पुराना-रंग नया- शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर फिर से सहेजें रूप बदलकर- किचेन टॉवल होल्डर में सहेजें आभूषण

सुनो कहानी- छोटे बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में इस बार प्रस्तुत है कहानी- बगीचे में चाय

- रचना और मनोरंजन में

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला-२९ विषय- मेरा देश के लिये भेजे गए नवगीतों का प्रकाशन पूरा हो गया है। जल्दी ही नई कार्यशाला की घोषणा होगी।

साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये यहाँ देखें।

लोकप्रिय रचनाओं के अंतर्गत- इस सप्ताह प्रस्तुत है २४ फरवरी २००६ को प्रकाशित वीणा विज उदित की कहानी- मोहभंग

वर्ग पहेली-१५०
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि आशीष के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-  हिंदी दिवस के अवसर पर

समकालीन कहानियों में भारत से जवाहर चौधरी
की व्यंग्य कथा- राजा विक्रम और हिन्दी का पिशाच

राजा विक्रमादित्य सुबह की सैर के लिए वन से होकर गुजर रहे थे कि अचानक पेड़ से एक पिशाच ठीक उनके सामने टपक पड़ा और उछलकर उनके कंधे पर लटक गया। राजा पहले चौंके लेकिन दूसरे ही क्षण झिड़कते हुए उन्होंने पिशाच को नीचे पटक दिया। चीखते हुए बोले- ये क्या बदतमीजी है, पेड़ पर लटककर सोते नहीं बनता तो नीचे जमीन पर क्यों नहीं सोते हो? इस तरह किसी राहगीर पर गिरते तुम्हें शरम नहीं आती है? पिशाच कहीं के! मार्निंग वाक पर हूँ, तलवार नहीं है वरना तुम्हारी गर्दन उड़ा देता। ईडियट!
नाराज न हों राजन, हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है...। पिशाच ने मुस्कराते हुए राजा को याद दिलाया।
तो? राजा ने बेरुखी से पूछा।
मैं हिंदी का पिशाच हूँ... ग्लैड टू मीट यू सर। पिशाच ने शेक हैंड के लिए हाथ बढ़ाया।
तुम!! तुम हिंदी के पिशाच कैसे हो? राजा ने हाथ मिलाए बगैर पूछा!
हिंदी के पेड़ पर लटका हूँ इसलिए हिंदी का पिशाच हूँ... हिस्ट्री के पेड़ पर होता तो हिस्ट्री का पिशाच होता हें- हें हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है... ग्लैड टू मीट यू सर...आगे-

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सुशील उपाध्याय का व्यंग्य
हिंदी के विकास में लिफाफे का योगदान
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ऋषभदेव शर्मा का आलेख
हिंदी भाषा विकास के विविध आयाम
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डॉ. गेनादी श्लोम्पेर से जानें
इजराइल में हिन्दी क्यों 
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पुनर्पाठ में- आज सिरहाने
आचार्य भगवत दुबे का कविता संग्रह- हिंदी तुझे प्रणाम

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पिछले सप्ताह-


शशि पाधा का
प्रेरक प्रसंग- बोझ
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डॉ. अशोक जेरथ से जानें
जम्मू रंगमंच का इतिहास
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डॉ. दिनेशचंद्र अग्रवाल का आलेख
सहारनपुर की सांस्कृतिक विरासत 
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पुनर्पाठ में- डॉ. इंद्रजित सिंह
का संस्मरण- गीतों का जादूगर शैलेन्द्र
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समकालीन कहानियों में भारत से शरद पगारे
की कहानी इक्कीसवीं सदी और शंकर दादा

शंकर दादा ! ऊँचे पूरे कसरती बदन की ऊभरी मछलियाँ ढलान पर थीं। मगर गोरे-गुलाबी चेहरे, सतर्क आँखों, फूले गाल और ऐंठी मूँछें तथा रुवाबदार आवाज का रुतबा कायम था। खण्डवा के कलेक्टरेट के टाइपिस्ट के पद से सेवानिवृत्त थे। दिनचर्या में उमर को बाधक नहीं बनने दिया। भोर में उठ, रात में भर कर रखे ताँबे के लोटे से पहले आँखों को अच्छी तरह छींटें मार धोकर बासी मुख गड़गड़ाहट के साथ लोटा खाली करते। उनकी हलचल घर को दिन निकलने का आभास करा देती। पत्नी गौरा टोकती, ‘इतने सबेरे-सबेरे क्यों सबकी नींद खराब करते हो। कौन नौकरी पर जाना है। सारी जिन्दगी भाग-दौड़ में बिताई। अब तो आराम करो?
‘जानती तो हो! आदतें मरते दमतक साथ नहीं छोड़ती। नींद खुलने के बाद बिस्तर पर फालतू पड़ा नहीं जाता।’ बतियाते कपड़े बदल बड़ाबम के अवध भैय्या के अखाड़े हल्की वर्जिश करने जा पहुँचते। लौट कर ओटले की कुर्सी पर बैठ एक गिलास दूध के साथ पेपर पढ़ते।  ...आगे-

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"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी
 

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