शंकर
दादा ! ऊँचे पूरे कसरती बदन की ऊभरी मछलियाँ ढलान पर थीं। मगर
गोरे-गुलाबी चेहरे, सतर्क आँखों, फूले गाल और ऐंठी मूँछें तथा
रुवाबदार आवाज का रुतबा कायम था। खण्डवा के कलेक्टरेट के
टाइपिस्ट के पद से सेवानिवृत्त थे। दिनचर्या में उमर को बाधक
नहीं बनने दिया। भोर में उठ, रात में भर कर रखे ताँबे के लोटे
से पहले आँखों को अच्छी तरह छींटें मार धोकर बासी मुख गड़गड़ाहट
के साथ लोटा खाली करते। उनकी हलचल घर को दिन निकलने का आभास
करा देती। पत्नी गौरा टोकती, ‘इतने सबेरे-सबेरे क्यों सबकी
नींद खराब करते हो। कौन नौकरी पर जाना है। सारी जिन्दगी
भाग-दौड़ में बिताई। अब तो आराम करो?
‘जानती तो हो! आदतें मरते
दमतक साथ नहीं छोड़ती। नींद ,खुलने के बाद बिस्तर पर फालतू पड़ा
नहीं जाता।’ बतियाते कपड़े बदल बड़ाबम के अवध भैय्या के अखाड़े
हल्की वर्जिश करने जा पहुँचते। लौट कर ओटले की कुर्सी पर बैठ
एक गिलास दूध के साथ पेपर पढ़ते। बीच-बीच में चलती सड़क का जायजा
भी लेते। कहा करते, ‘राम ओटले बैठ के सभी का मुजरा लेता हूँ।
सभी से प्यार-दोस्ती ना काहू से बैर।’ सब के सुख, खास कर दुःख
के पक्के साथी। शंकर नाम के अनुरूप, भोले-भाले, सरल-निष्कपट मन
के मालिक। मान-अपमान से परे।
उस दिन बाहर जाने हेतु तैयार होने लेगे। गौरा ने टोका, ‘कहा जा
रहे हो?’
‘दीनू के यहाँ कथा है ना वहीं जा रहा हूँ’
‘न्योते बिना जाना ठीक रहेगा क्या?’
‘अरे भई। इतनी छोटी बात पर क्या ध्यान देती हो। काम की धुन में
भूल गया होगा। हमेशा तो बुलाता है, फिर कथा के लिए बुलावा
क्यों? मैं तो जाता हूँ।’
गौरा जानती थी। मन में
ठान लेने के बाद किसी की सुनेंगे नहीं। मनमार चुप बैठ जाती।
इक्कीसवीं सदी का तेजी से भागता वक्त बीसवीं सदी के शंकरदादा
के दिल की नहीं चलने दे रहा था। मोबाइल, लेपटॉप, कम्प्यूटर,
आईपाड, आईफोन मजबूती से जमे उनके पाँव उखाड़ने में लगे थे।
बेटे-बहू जयेन्द्र-सोनाली, पोता नयन मोबाइल, आईपाड, कम्प्यूटर
लेपटाप से चिपके रहते। एक मोबाइल उन्हें भी मिला। कई दिन चलाना
सीखने में लगे। लेकिन उनका तो लेण्डलाइन भला। विरोध के बाद भी
पौत्री तनया आई.टी. में बी.ई. करने के बाद अमेरिका चली गई।
सारे समय किसी अमरीकी गोरे से उसके शादी करने का डर सताता रहा।
लेकिन लाचार थे। इक्कीसवीं सदी हिटलर की चलने नहीं दे रही थी।
‘दादू तनया दीदी का लेटर आया है।’ नयन ने सूचना दी।
‘ला दे।’
‘लेटर और फोटो ई-मेल से भेजा है।’
‘भला ये भी कोई बात हुई। चिट्ठी नहीं भेज सकती थी?’
‘डाक से लेटर भेजने का जमाना लद गया दादू ! लेटर दस-पंद्रह दिन
लेता है। ई-मेल तत्काल पहुँचता है। चलकर पढ़ लीजिए।’
नयन कहता तो ठीक है। मगर पत्र की बात अलग है। प्यार भरे स्पर्श
का अहसास होता है। चाहे जितनी बार पढ़ो। स्थायी ऐतिहासिक
दस्तावेज। मेल पढ़ने पहुँचे।
देह उघाड़ू कपड़ों में बाब
कट बाल वाली लड़की, कमर में हाथ डाले अपने से सटाए गोरे अमेरिकन
लड़के के साथ खड़ी थी। सहसा पहचान नहीं पाये। पहचानने पर उखड़ गए।
सामने होते तो ऐसा सबक सिखाता...! नपुंसक क्रोध से भर गए।
लाचार ई-मेल पढ़ने लगे।
‘हाय दादू। कैसे हो यार? बड़ी याद आती है आपकी।’
न चरण स्पर्श प्रणाम। न आदर सूचक संबोधन। सारे संस्कार भूल गई।
डर सामने खड़ा था। झकमार अमेरिका का गुणगान पढ़ा।
‘दादू ! जवाब देना है क्या?’
‘हाँ!’ मरे स्वर में मंजूरी दी।
उनकी डाँट-फटकार, सुझावों, प्यार-दुलार, मनुहार नयन ने टाइप
सेटिंग कर मेल भेज दिया।
‘दादू! आपका पत्र पहुँच गया।’
‘इतनी जल्दी।’ हैरान थे।
‘हाँ दादू। आप भी कम्प्यूटर आपरेट करना सीख लीजिए। सरलता से
आपरेट कर लेंगे। कलेक्टरेट में टाइपिस्ट थे ना आप। सो तकलीफ
नहीं आएगी। चाहे जिससे बतियाना। वक्त अच्छे से कट जाएगा।
दादीजी की कमी भी नहीं खलेगी।’
कम्प्यूटर दुनिया से
जोड़ने वाली खिड़की बन गया। उसकी सोशल नेटवर्किंग की फ्रेंड्स ऑफ
फेसबुक की साइट उन्हें भा गई। पुराने मित्रों से जुड़ने लगे।
चेटिंग के इसी दौर में दशकों पहले जिसे भूल चुके थे। संसार की
भीड़ में जो खो गई थे। विस्मृति के अँधेरे से कम्प्यूटर ने उसे
यादों की रोशनी के बीच ला खड़ा किया।
‘आप शंकर पहलवान हो ना?’
‘हाँ मेरे इस शौक के बारे में आपको किसने बताया?’
‘कोई क्यों बताएगा। हमें मालूम है।’
शंकर हैरान, ‘आपको मालूम है? कैसे ? हम तो कभी मिले नहीं ?
‘अरे शंकर जी आप ने हमें पहचाना नहीं। हम सुरभि देशपाण्डे।
एस.एन. कालेज के आपके सहपाठी।’
यादों को खँगालने के बाद भी सुरभि देशपाण्डे मिली नहीं। ‘इस
नाम की तो कोई लड़की साथ नहीं थी?’
‘आप ठीक बोले। हम भी
कितने भुलक्कड़ हैं। सुरभि को कैसे पहचानोगे ? ये तो लगन के बाद
का नाम है। मराठी परिवारों में शादी के बाद नाम बदलने की प्रथा
जो है। शंकर जी हम हैं कुसुम घाटे।’
‘कु...कुसुम...कुसुम घाटे। आप मुझे आसमान से धरती पर ले आई।
ईश्वर का कैसे धन्यवाद करूँ, जिसने दशकों ना सदियों बाद आपसे
मिलाया।’ भावनात्मक उद्वेलन से मुख की लाली दुगनी हो आई। उधर
कुसुम मंद-मंद मुस्काने लगी। फ्रेंड्स आफ फेसबुक ने इसे संभव
बनाया।
‘भगवान नहीं कम्प्यूटर को धन्यवाद दो।’ मुस्कान मीठी हँसी बन
गई।
‘आप ठीक बोलीं कुसुम जी।’ यादों के आरोह-अवरोह से कुसुम निकली।
संतुलित, आकर्षक, छरहरी, गोरी-गुलाबी, खूबसूरत, कमनीय काया।
बड़े-बड़े रतनारे नयन। नागिन-सी दो चोटियों की सुन्दरता बढ़ाते
लाल रिबन। रसीले पतले लाल अधर। सोने के लोंग से सजी सुतुवाँ
नासिका। तड़क-भड़क से दूर। शालीन सादगी की मूर्ति कुसुम नीची
निगाह कॉलेज आती। अनुशासन प्रिय हेड मास्टर पिता सदाशिवराव
घाटे ने उसके दिल और निगाहों पर अनुशासन का कठोर
पहरा जो बिठा रखा था। उसकी
खूबसूरती का अपना आकर्षण था। पुरुष की आँखों-स्पर्श की आसक्ति
को भाँपने की अद्भुत क्षमता नारी में है। नीची निगाह के बाद भी
कुसुम जानती थी कि उसके चाहने वालों की लाइन शंकर के बाद शुरू
होती है।
शंकर जानते थे कुसुम जिस परिवार की बेटी है खण्डवा में उसकी
बड़ी प्रतिष्ठा है। प्यार-दोस्ती तो दूर बतियाना-देखना भी
गुनाह। फिर कुश्ती प्रेमी ब्रह्मचारी शंकर के इष्टदेव हनुमान
जी ताबीज बन उसकी भुजाओं दिल के पहरेदार। लेकिन दिल के हाथों
मजबूर पहलवान दिल ही दिल में कुसुम को पसंद करते थे। जितनी देर
कालेज में रहती मन उसके आसपास मँडराता।
‘क्या सोचने लगे ?’
‘आपने कालेज के दिन ताजा कर दिए। अरे हाँ। आपने कम्प्यूटर
किससे सीखा?’
’किससे सीखती?’ बेटा मंदार पूरी तैयारी से अमरीका जाना चाहता
था। कम्प्यूटर ले आया। बोला, ‘आई!’ आप भी सीख लो। रोज ई-मेल पर
पत्र व्यवहार कर लेंगे। आपने किससे सीखा?’
‘एम.सी.ए. कर रहा पोता
नयन है ना मेरा गुरू। अमरीका में है लाड़ली पौत्री तनया उससे
चेटिंग करने के लिए सीखना पड़ा। वो शैतान ई-मेल में हाय-बाय
करती है। आज कल की लड़कियों को क्या हो गया है। देह उघाडू
बरमूडा बिन बाँह का लो कट स्कर्ट...छी...छी। फैशन के नाम पर ये
पीढ़ी किधर जा रही है। भगवान जाने। इनका क्या होगा?’
‘आप ठीक बोले। सब दूर यही हाल है। टोको तो दकियानूस! न जाने
क्या-क्या बोलते हैं। तेजी से बदलते जमाने के साथ बदल रही पीढ़ी
से समझौता करना मजबूरी है। हमने तो अपने माता-पिता ही नहीं
बेटे-बहू और अब नाती-पोती के साथ रहने के लिए समझौता करना पड़
रहा है।’
‘सही है। हमारी यही नियति है। ये लोग मान-मर्यादा, संस्कार सभी
से विद्रोह कर रहे हैं। अनुशासन में तो रहना ही नहीं चाहते।
बुरा न माने तो कुछ कहूँ। अग्रिम माफी माँग लेता हूँ।’
‘जरूर कहिए।’
‘हम लड़के आपकी शालीन सादगी भरे रूप लावण्य पर फिदा थे। आपके घर
के कई चक्कर लगाते थे। मास्टर साहब के डर के मारे
बोलने-बतियाने की हिम्मत नहीं हुई।’ रोमांटिक मूड़ बन जाने से
शब्द रसीले हो गए।
फेसबुक मौन। कुसुम के मुख की लाली दुगुनी।’
‘हम भी कुछ बताना चाहते
हैं।’
‘कहिए।’
‘धोती में कालेज आने वाले आप अकेले थे। हम लडकियाँ खूब हँसतीं।
लो वो शंकर पंडित धोती प्रसाद आ गया।’
‘बहुत खूब।’ कुसुम का गोरा गुलाबी मुस्कराता मुख कल्पना को
आलोकित कर गया। ‘आप ठीक कहती हैं। उन दिनों लंगोट-धोती मेरी
कमजोरी थी। उन्हें छोड़े अरसा बीत गया।’
‘ऐसी क्या बात हुई?’
‘अक्सर धोती का पल्ला खिसक जाने पर जाँघ उघड़ जाती थी। नाराज
गौरा डाँटती, ‘धोती खिसकने का तो तुमको भान रहता नहीं। पड़ोसनें
हँसतीं-शर्माती हैं। कल को बहू आयेगी। क्या कहेगी? पाजामा-पेंट
पहनिए।’ मैं टालता रहा।’
‘गौरा कौन? घरवाली।’
‘हाँ।’
‘किसके कहने पर धोती छोड़ी?’
‘वीना के।’
‘अब ये वीना कौन?’
‘ऑफिस की सहकर्मी। उसके
अवध भैय्या से शिकायत करने पर पाजामा पहनने लगा। अवध भैय्या
मेरे सरपरस्त थे।’
‘आप मर्दों का ऐसा ही है। घरवाली के बजाय बाहरवाली को अधिक
महत्व देते हो।’
‘न...नहीं...नहीं...वो...बात ये है।’
‘बात मत बनाइए।’
‘आपके देशपाण्डे जी क्या करते हैं?’ तत्काल बात बदली।
फेसबुक खामोश। गहरी पीड़ा, अवसाद के भँवर में कुसुम
डूबने-उतराने लगी।
‘उत्तर की जरूरत नहीं। समझ गया। ईश्वरी इच्छा बलीयसी। उसकी
इच्छा सर्वोपरि है। बड़ी से बड़ी त्रासदी झेलने के बाद
भी जीने के लिए मनुष्य अभिशप्त
है कुसुम जी। धैर्य से सामना करने के अलावा दूसरा चारा नहीं।’
‘आपने सही कहा। हाँ। आपकी गौराजी के क्या हाल हैं। अब भी उनका
कहना मानते हो या नहीं? इस उमर में पत्नी और पैसा ही काम आते
हैं। आपके सुख-दुःख का जो ध्यान गौरा रखेगी बहू नहीं। अपने
पति-बच्चों में वो मगन रहेगी।’
‘आप सही हैं। गौरा अनाथ कर गई।’ धोती प्रसाद भावविह्वलित हो
आए। फेस बुक पुनः चुप।’
‘बंद कर रही हूँ। नातिन नोनिका कालेज से लौटने वाली है। जवाब
तलब करेगी?’
गूँगी गुड़िया खुलकर बतियाने लगी। कुसुम-शंकर के बीच कम्प्यूटर
भावनात्मक संवेदनाओं और सहानुभूति का संबल बन गया। सुख-दुःख
बाँटने, दिलों का गुबार निकालने लगे।
‘आपका मीठा मोहक स्वर सुनने को बैचेन हूँ। मोबाइल तो होगा?’
‘हाँ। शालिनी बिटिया ने ला दिया।’ मीठी हँसी हँसते कहा।
‘बढ़िया चीज है। चाहे जब, जहाँ जितनी देर बतिया सकते हैं।’
‘ये तो है। जमाना तेजी से बदल रहा है। नाती-पोते बेकबर्ड कह
खिल्ली उड़ाते हैं।’
‘आप ठीक कहती है।’ एक
दूसरे को अपने-अपने नंबर लिए-दिये।
घर के लोगों से नजर बचा बाथरूम, बाहर के बरामदे, छत पर बतियाने
लगे। ‘बेटा मंदार बीस लाख के पैकेज पर अमेरिका में है। लेस्ली
से शादी कर ग्रीन कार्ड ले वही स्थायी रूप से बस गया है। खुद
का बच्चों का भविष्य वहीं सुरक्षित है। दो-एक बार अमरीका गई
थी। लेकिन मन नहीं लगा। अकेली देखकर शालिनी अपने घर ले आई।
मकान बेच मंदार ने बैंक में मेरे नाम पर रकम जमा करा दी। ब्याज
और देशपाण्डे जी की पेंशन से आराम से जिन्दगी कट रही है।
दामादजी के मना करने पर भी अपने खर्चे से अधिक रकम हर माह
शालिनी को दे देती हूँ।’ कुछ देर चुप रहकर पुनः बोली, ‘फिर भी
परेशान करने वाला एक तनाव तो है।’ कुसुम के परेशानी से भरे
स्वर ने शंकर को अकुला दिया।
‘क्या तकलीफ है?’
’समधन सावित्री को शिकायत है। शालिनी-नोनिका उनके बजाय मेरा
अधिक ध्यान रखती है। बेटे से हमेशा शिकायत। सारा घर तनाव में
है। वृद्धाश्रम जाने का कई बार सोचा। लेकिन वे भी तो अनाथालय
ही हैं?’ मोबाइल मौन हो आया, ‘आपके क्या हाल है?’
‘क्या बताऊँ। जिन्दगी मजे
में कट रही थी। अचानक ब्रेन हेमरेज से पिताजी ने चिर विदाई ले
ली।’ माँ से जा मिले। तीन छोटी बहनें सिर पर और छुटका भाई
कंधों पर। भूल गए पहलवान राव रंग/भूल गए अखाड़ा/तीन बात याद रही
नून, तेल, लकड़ी। चिंता-परेशानी के उन दिनों में गौरा, अवध
भैय्या ने पूरा साथ निभाया। गौरा ने घर-परिवार का मोर्चा
सँभाला। अवध भैय्या ने जी.पी.एफ. और अनाज अग्रिम के नाम पर
सराकरी लोन बिन ब्याज के दिलाया। तीनों बहनों के अच्छी तरह से
हाथ पीले किए। लेकिन उन्हें आज भी कम दहेज की शिकायत है। छुटके
को पाल-पोस, पढ़ा-लिखा नायब तहसीलदार बनवाया। अच्छे घर में शादी
कर दी। आज पहचानता भी नहीं।’ एक गहरी साँ स कुसुम ने सुनी।
मोबाइल कुछ पल मौन रहा।
‘बेटे-बहू तो ठीक से रखते हैं ना?’ कुसुम चिंतित थी।
‘पूरा ध्यान रखते हैं। लेकिन...?’
‘अब लेकिन क्यों?’
जयेन्द्र की रेडीमेड गारमेंट्स की फेक्ट्री है । हाथ बटाने बहू
भी साथ चली जाती है । नयन कालेज-दोस्तों में व्यस्त है। मैं
नौकर के भरोसे। किसी को बोलने-बतियाने की फुर्सत नहीं। किसी
काम का जयेन्द्र को दस बार कहो तब एक बार करते ताना मारता है,
आपका काम करते रहूँगा तो अपना कब करूँगा? एक हम थे पिताजी के
एक बार कहने पर अपने दस काम छोड़ पहले उनका काम करते थे।
सब दूर यही चल रहा है।
बुजुगों के लिए नई पीढ़ी के पास समय, संवेदना, प्यार, श्रद्धा,
आदर छोड़ सबकुछ है।
इतना होने पर भी ध्यान रखते हैं। कुछ पल रुका। कहे ना कहे।
कहना ठीक लगा, कुसुमजी! नाराज न हों तो निवेदन करूँ?
कहिए।
मिलने की बड़ी इच्छा है। देखे-मिले बिना सदियाँ बीत गईं। मिलने
आ जाऊँ?
मोबाइल सोच विचार करने लगा।
मुझे पहले ही शक था। कहीं आप बुरा न मान लें।
बुरा मानने जैसा कुछ नहीं है। आप मत आइए। मैं ही आती हूँ।
खण्डवा देखे बिना कई साल बीत गए। कुछ रिश्तेदार, जाति। बंधु,
मित्र-परिचित होंगे। उनसे मिले कई साल हो गए। इसी बहाने आती।
लेकिन...?
लेकिन क्या?
ठहरूँगी कहाँ?
हमारे साथ।
आपके बेटे-बहू-पोता बुरा तो नहीं मानेंगे?
क्यों मानेंगे? घर मेरा है। मेरे घर में वो रह रहे हैं। चाहे
जिसे बुला-ठहरा सकता हूँ। आपत्ति लेने वाले वे कौन? वैसे आपके
बारे में सब बता रखा है।
तो फिर आती हूँ । आने से पहले फोन करूँगी।
अव्यक्त प्रेम ने ढ़लती उमर में नई ऊर्जा, ताजगी, स्फूर्ति,
उत्साह भर दिया । इंतजार का हर पल भारी लगने लगा। दिल, ध्यान,
मोबाइल ने अपने पास रख लिए। उसका मौन बेचैनी बढ़ा रहा था। इस
बीच सबको तैयार कर लिया। सदाशिव राव हेडमास्तर की कीर्ति से
जयेन्द्र-सोनाली परिचित थे। अचानक मोबाइल ने बुलाया। दौड़ कर
उठाया।
कब आ रही हैं?
थ्री टायर ए.सी. में रिजर्वेशन हो गया है। नौ तारीख को अमृतसर
ए:सप्रेस से पहुँच रही हूँ। मगर पहचानोगे कैसे?
आपकी मोहक छवि दिल-दिमाग में गहरे तक अंकित है । जरूर पहचान
लूँगा।
उन दिनों की और आज की छवि में दिनरात का अंतर आ गया है। वक्त
छबि-काया से इतने खिलवाड़ करता है कि खुद को ही पहचान नहीं
पाते।
ये तो आप ठीक कहती हैं। समय बड़ा बलवान है।
वक्त को छोड़ो, वो तो
अपना काम करता रहता है। पहचान हेतु कम्प्यूटर पर फोटो डाल रही
हूँ।
फोटो की ढ़ली सुंदरता भी मोहक लगी । लंबी बैचेनी के बाद नौ
तारीख ने दस्तक दी। नयन के साथ स्टेशन पहुँचे। थ्री टायर ए.सी.
के दरवाजे पर मुस्कराती कुसुम मिली। घर ला तनया के कमरे में
ठहरा दिया। उम्मीद के विपरीत खुले दिल से स्वागत-सत्कार हुआ ।
अतिथि नारी बडी जल्दी परिवार की महिलाओं में घुलमिल किचन तक
पैठ बना लेती है । कुसुम ने यही किया । सोनाली के मना करने पर
भी मदद करने लगी। दिन में तो नहीं रात में सभी हँसी-खुशी मजाक
के साथ डिनर लेते। बड़े मनुहार के साथ कुसुम को खिलाया जाता।
हर दिन नई चीजें, नए पकवान। कुसुम मराठी डिशेज बना खिलाती।
बचपन, स्कूल, कालेज की यादें ताजा हुईं। रिश्तेदारों,
जाति-बंधुओं खण्डवा में बची सहेलियों, मित्रों, परिचितों से
मिलने-जुलने, बतियाने में समय भाग जाता । दादाजी धूनी वाले की
समाधि, भवानीमाता, हिंगलाज माता के दर्शन में रात के जल्दी आ
जाने पर ताजुब होता। ड्राइवर उन्हें ओंकारेश्वर, उज्जैन ,
महाकालेश्वर के दर्शन करा लाया। माण्डू-असीरगढ़, बुरहानपुर की
सैर हुई। शिर्डी के साईं बाबा और शेगाँव के गजानन महाराज की
समाधियों की पूजा की। पिताजी सदाशिव राव हेड मास्तर के घर के
बदले हुए चोले में कुसुम के बचपन, किशोरावस्था तथा यौवन के
पहले पायदान की मधुर यादों के खो जाने का गम अवश्य हुआ । बड़ी
हसरत के साथ कुछ देर घर को निहारती रही। गहरी साँस ले लौटी।
समधन के तनाव से मुक्त
जिन्दगी आनंद से गुजर रही थी। समय के पंछी ने आकाश में कितना
फासला तय कर लिया पता ही नहीं चला। कैलेण्डर की जाने कितनी
तारीखें बदल गईं। पता चलने पर लज्जा से संकुचित हो उठी।
चलूँ अब।
शंकर मुरझा गया।
ऑटी! हमसे कोई गलती हो गई जो आप जाना चाहती हैं?
भोजन परोसती सोनाली ने जानना चाहा।
ना बेटू। कोई शिकायत नहीं। तुम तो मेरी शालू बन गई हो।
फिर क्या बात है । दादी माँ। आपको हमारे साथ ही रहना होगा।
आपने स्नेह, ममता, वात्सल्य का जो माहौल बनाया है, उसे हम खोना
नहीं चाहते। नयन ने मनुहारा।
हां आंटी! हमारे साथ रहने की कृपा करें। आपके डर से पिताजी का
सूनापन-अकेलापन भाग गए हैं। वर्ना हर दिन उदास रहते हैं।
जयेन्द्र के आग्रह में मजबूती थी।
कुसुम सोच में पड़ी।
क्या सोच रही है?
सावित्रीजी , दामाद जी ,
शालू, नोनिका लोग क्या कहेंगे?
सारी
जिन्दगी दूसरों के सोच के डर में बिताए। बची जिन्दगी तो अपनी
खुशी के लिए अपने हिसाब से गुजारिए। कभी-कभी अपनों से ज्यादा
पराए अपने बन जाते हैं। हाथ आया मौका क्यों गँवाती हो?
स्वीकृति की मौन आभा कुसुम के मुख पर चमकने लगी।
प्रसन्नता बाँटने शंकर ने तनया को ई-मेल भेजा, गुड़िया! खुश
खबर ! नाराज मत होना?
यार दादू ! बताने के पहले गिल्टी कांशस क्यों कर रहे हो?
व...वो...कुसुम जी साथ रहने को...! शर्म के मारे बात पूरी नहीं
कर पाए।
व्वा...व...व...ब्रेवो...कांग्रेट्स दादू। ये हुई ना मरदों
वाली बात। दादू...यार...
इसक्कीसवीं सदी अपनाने के लिए पुन: कांग्रेट्स!
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