फिल्मी
गीतों के माध्यम से साहित्य की अमृतमयी गंगा बहानेवाले
यशस्वी गीतकारों में शीर्षस्थ स्थान शैलेंद्र का है। उनके
गीत स्तरीयता एवं लोकप्रियता के अदभुत दस्तावेज़ हैं। भाव
एवं शिल्प की दृष्टि से कालजयी गीतों की रचना के कारण ही
'काव्य रसिकों' ने उन्हें 'गीतों का राजकुमार' कहा है।
शैलेंद्र मूलतः संवेदनशील कवि थे और कवि धर्म का सफल
निर्वाह करने के कारण ही आंचलिक उपन्यासों के पुरोधा
फणीश्वर नाथ रेणु ने उन्हें 'कविराज' की उपाधि से अलंकृत
किया। आज फिल्मी गीतों का स्तर दिन–प्रतिदिन गिरता जा रहा
है। 'टन टना टन टन टन टारा' तथा 'आती क्या खंडाला' – जैसे
अमर्यादित अर्थहीन एवं गरिमाविहीन गीतों को सुनकर जन
सामान्य से लेकर साहित्यिक अभिरुचिवाले लोगों के मन में
वितृष्णा का भाव जगने लगा है। इन परिस्थितियों में 'सजन रे
झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है
वहाँ पैदल ही जाना है-'तीसरी कसम’ हो अथवा 'वहाँ कौन है
तेरा ओ माझी जाएगा कहाँ, दम ले ले घड़ी भर ये छइयाँ पाएगा
कहाँ- ‘फिल्म गाइड’ हो या 'मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी,
भेद ये गहरा, बात ज़रा–सी'- मधुमती। जैसे कालजयी गीतों के
प्रणेता अमर गीतकार शैलेंद्र का स्मरण हो आना स्वाभाविक ही
है। भाव की गुंफित भंगिमाओं को सरल, सरस एवं सहज शब्दों
में प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति देना शैलेंद्र की
अप्रतिम विशेषता थी।
३० अगस्त १९२३ को जन्मे 'यथानामः तथा गुण' को चरितार्थ
करने वाले संवेदनशील कवि एवं लोकप्रिय गीतकार शैलेंद्र ने
सन १९४९ में फिल्म जगत के अद्वितीय अभिनेता राजकपूर के
आग्रह पर गीतकार के रूप में फिल्मी दुनिया में कदम रखा।
उन्होंने अपनी पहली फिल्म 'बरसात' में दो गीत लिखे और वहीं
से इस सहज गीतकार की गीत यात्रा शब्दों की रिमझिम के साथ
ऐसी आरंभ हुई कि आज तक लय, ताल और स्वरों के संगम से
'काव्य रसिकों' को विभोर करती आ रही है। कौन भूल सकता है
'बरसात' फिल्म का वह अमर गीत – बरसात में हमसे मिले तुम
सजन तुमसे मिले हम, बरसात में'।
यश और वैभव की बरसात
'बरसात' के गीतों ने उनके जीवन में यश और वैभव की बरसात कर
दी। सन १९५१ में उनकी अगली फिल्म आई 'आवारा', जो कलात्मकता
एवं व्यवसायिकता की दृष्टि से फिल्म इतिहास में मील का
पत्थर साबित हुई। इस फिल्म के गीतों ने देश और विदेश में
नया इतिहास रचा। इस फिल्म का शीर्षक गीत – 'आवारा
हूँ, गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ, ऐ दुनिया मैं तेरे
तीर का या तकदीर का मारा हूँ।' में शैलेंद्र का प्रगतिवादी
एवं जनवादी स्वर मुखरित हुआ है। यह गीत सर्वहारा–शोषित
वर्ग के जीवन की करुण कहानी एवं दर्द का दस्तावेज़ बन गया
है। सन १९५५ में प्रदर्शित फिल्म 'श्री ४२०' का यह गीत–
'ग़म से अभी आज़ाद नहीं हूँ, खुश हूँ मगर आबाद नहीं हूँ
मंज़िल मेरे पास खड़ी है, पाँव में लेकिन बेड़ी पड़ी है
टाँग अड़ाता है दौलतवाला... दिल का हाल सुने दिलवाला
शोषण और अत्याचार का प्रतिकार-
शैलेंद्र ने शोषण एवं अत्याचार का ओजपूर्ण शब्दों में
प्रतिकार किया है। उन्होंने जीवन एवं जागृति के अनेक गीत
लिखकर राष्ट्रीयता एवं 'कवि–धर्म' का पालन किया है।
प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार ने
१९८५ में प्रकाशित 'देशभक्ति की कविताएँ' काव्य संकलन में
भारतेंदु हरिश्चंद्र, हरिऔधजी, जयशंकर प्रसाद,
सुमित्रानंदन पंत, राष्ट्रकवि दिनकर – जैसे महान कवियों की
रचनाओं के साथ शैलेंद्र की भी एक कविता –
'तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर'
प्रकाशित कर शैलेंद्र के देश प्रेम एवं उदात्त कवि रूप को
उदघाटित किया है –
'होठों पे सच्चाई रहती है, जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है
हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है।'
'जिस देश में गंगा बहती है' फिल्म के इस शीर्षक गीत में
उन्होंने भारतीय संस्कृति के शाश्वत युगधर्म को रूपायित कर
राष्ट्रीयता एवं देशभक्ति का परिचय दिया है।
'तू प्यार का सागर है, तेरी इक बूँद के प्यासे हम
लौटा जो दिया तूने चले जाएँगे जहाँ से हम'
फिल्म 'सीमा' के मन को छू लेनेवाले इस कालजयी गीत में
दर्शन की असीम गहराइयों की इतने सहज, सरल शब्दों में
अभिव्यक्ति शैलेंद्र की असाधारण 'काव्य प्रतिभा' को उज़ागर
करती है –
'किसी की मुस्कराहटों में हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है।'
अमर शब्द – शिल्पी
ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित एवं राजकपूर अभिनीत फिल्म
'अनाड़ी' में शैलेंद्र ने उपर्युक्त गीत में जीवन का सारा
मर्म इतनी सरलता से उदघाटित कर दिया है कि लगता है कि उनकी
इन चार पंक्तियों की व्याख्या में कई ग्रंथ लिखे जा सकते
हैं। अमर शब्द–शिल्पी एवं संवेदनाओं के चितेरे महान गीतकार
शैलेंद्र की इन पंक्तियों में शाश्वत भारतीय संस्कृति एवं
जीवन दर्शन साकार हो उठा है।
जीवन को सच्चे मायनों में दर्द से जोड़ते हुए 'कविराज'
शैलेंद्र ने अपने गीतों में भाग्य, कर्म और नियति – जैसे
दुरूह और गंभीर पक्षों को अनायास ही सरल, सहज और सजीव
शब्दों में मुखर अभिव्यक्ति देकर अपने जनकवि होने का
प्रमाण दिया है। फिल्म 'बूट पालिश' के प्रश्नोत्तर शैली
में लिखे गए निम्नलिखित गीत में शैलेंद्र की संवेदनशीलता
अपने चरमोत्कर्ष पर है –
प्रश्न– नन्हे–मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है?
उत्तर – मुठ्ठी में है तक़दीर हमारी, हमने किस्मत को वश में
किया है।
प्रश्न – भीख में जो मोती मिले क्या तुम वह ना लोगे?
उत्तर – भीख में जो मोती मिले वह भी हम ना लेंगे।
इन पंक्तियों के माध्यम से शैलेंद्र ने आत्मविश्वास,
स्वाभिमान, स्वावलंबन एवं कर्मवाद का संदेश देकर इस गीत को
कालजयी बना दिया है।
भारतीय काव्य मनीषियों ने शृंगार को 'रस राज' की संज्ञा दी
है। शैलेंद्र ने भी शृंगार के दोनों पक्ष – संयोग तथा विरह
के अदभुत गीत रचे हैं–
'तेरे मेरे सपने अब एक रंग है
तू जहाँ ले जाए साथी हम संग हैं
मेरे सुख अब तेरे, तेरे दुःख अब मेरे
तेरे ये दो नैना, चाँद और सूरज मेरे'
'गाइड' फिल्म के संयोग शृंगार परक इस गीत में उन्होंने
मर्यादित एवं 'दिव्य प्रेम' का जो रूप चित्रित किया है ऐसा
शालीन शृंगार आज के गीतों में कहाँ है? विरह प्रेम की
कसौटी है। वियोग की कसक एवं तड़पन को 'मेरी सूरत तेरी
आँखें' फिल्म के इस गीत में उन्होंने इतनी सहज अभिव्यक्ति
दी है वह अन्यत्र दुर्लभ है –
'पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई
इक पल ऐसे इक युग बीता
युग बीते मोहे नींद ना आई।'
अदभुत काव्य कौशल
अपने गीतों में 'सत्यं शिवं सुंदरम' की त्रिवेणी प्रवाहित
करने वाले 'कविराज' शैलेंद्र ने लगभग १७० हिंदी फिल्मों
में ८०० से भी अधिक भावप्रवण गीतों की रचना की है। 'दाग',
'पतिता', 'सूरत और सीरत', 'कठपुतली', 'सीमा', 'दो बीघा
ज़मीन', 'गाइड', 'जंगली', 'बंदिनी', 'बूटपालिश', 'तीसरी
कसम', 'चोरी चोरी', 'दूर गगन की छाँव में', 'जागते रहो',
'मधुमती', 'बसंत' बहार', 'संगम' तथा 'मेरा नाम जोकर' आदि
फिल्मों में शैलेंद्र ने शृंगार, ज्ञान, दर्शन, भक्ति,
कर्म, मर्म तथा देशभक्ति के अनेक अदभुत गीतों की रचना कर
अपने काव्य कौशल का लोहा मनवाया है।
कव्वाली उर्दू शायरी का एक विशिष्ट रूप है। हिंदी में
कव्वाली गीत लिखने का शुभारंभ शैलेंद्र ने किया। याद
कीजिए, 'जिस देश में गंगा बहती है' का दृश्य जिसमें हिंसा
के प्रतीक अभिनेता प्राण और दूसरी ओर अहिंसा और प्रेम की
प्रतिमूर्ति अभिनेता राजकपूर दोनों में दर्शन एवं मूल्यपरक
काव्यात्मक वाद–विवाद हिंदी कव्वाली में होता है। यह हिंदी
कव्वाली फिल्म की आत्मा बन गई है। काल प्रवाह के इतने वर्ष
बीत जाने के बाद भी इस गीत की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं
आई। गीत देखिए –
प्राण – हम गाते गरजते सागर हैं कोई हमको बाँध नहीं पाया
हम मौज में जब भी लहराए सारा जग डर से थर्राया।
राजकपूर – हम नन्हीं सी इक बूँद सही, है सीप ने जिसको
अपनाया।
सारा पानी कोई पी न सका इक प्यार का मोती काम आया।
समूह –हम भी हैं, तुम भी हो, दोनों हैं आमने सामने।
देख लो, क्या असर कर दिया प्यार के नाम ने।
फिल्मों के माध्यम से साहित्यिक कृतियों को जन–जन तक
पहुँचाने का संकल्प करनेवाले भावुक कवि शैलेंद्र ने
फणीश्वर नाथ रेणु को उनकी कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर
आधारित 'तीसरी कसम' फिल्म बनाने के लिए २३ अक्तूबर १९६० को
एक पत्र लिखा। रेणुजी शैलेंद्र की साहित्यिक रुचि एवं
प्रतिभा से परिचित थे, इसलिए उन्होंने अपनी स्वीकृति दे
दी। फिल्म की मूल कथा का अंत दुःखात्मक था। नायिका
हीराबाई, नायक हीरामन का साथ छोड़कर पूँजीपति का हाथ थाम
लेती है। राजकपूर और फिल्म वितरक यह चाहते थे कि फिल्म
सुखांत हो और हीराबाई, हीरामन के हृदय का हार बने। रेणुजी
और शैलेंद्र मूल कथा में परविर्तन करने को तैयार नहीं हुए।
शैलेंद्र ने वितरकों की माँग को ठुकराते हुए मूल कथा के
अनुसार फिल्म का निर्माण किया। परिणामस्वरूप अधिकांश
वितरकों ने अपना हाथ खींच लिया और बिना प्रचार के सितंबर
१९६६ को इस फिल्म का 'प्रीमियर' दिल्ली में हुआ। उत्कृष्ट
कथा, जीवंत अभिनय, सुमधुर गीत, कर्णप्रिय संगीत, नयनाभिराम
निर्देशन की खूबियों के बावजूद फिल्म 'बॉक्स ऑफिस' पर औंधे
मुँह गिरी। फिल्म की आरंभिक असफलता से उनको गहरा सदमा
पहुँचा।
अंततः १४ दिसंबर १९६६ को काल के क्रूर हाथों ने कालजयी
गीतों के प्रणेता को हमसे छीन लिया। उनकी मृत्यु के पश्चात
'तीसरी कसम' को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रपति का
स्वर्णपदक प्राप्त हुआ। देश–विदेश की अनेक संस्थाओं ने
फिल्म को पुरस्कृत किया। आज ३३ वर्ष बीत जाने के बाद भी
उनके गीत जन–जन के होंठों के शृंगार बने हुए हैं। जनवादी
कविता के प्रतिनिधि कवि बाबा नागार्जुन ने अप्रैल १९७७ में
शैलेंद्र को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए एक कविता
'शैलेंद्र के प्रति' लिखी थी, जो शैलेंद्र के व्यक्तित्व
एवं कृतित्व का आइना है –
'गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूँ।
सच बतलाऊँ तुम प्रतिभा के ज्योतिपुंज थे, छाया क्या थी
भलीभाँति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी
जहाँ कहीं भी अंतर मन से, ऋतुओं की सरगम सुनते थे
ताजे, कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे
जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम
साथी थे, मजदूर पुत्र थे, झंडा लेकर बढ़ते थे तुम
युग की अनुगूँजित पीड़ा ही घोर घन घटा–सी गहराई
प्रिय भाई शैलेंद्र, तुम्हारी पंक्ति–पंक्ति नभ में लहराई
तिकड़म अलग रही मुसकाती, ओह, तुम्हारे पास न आई
फिल्म जगत की जटिल विषमता, आखिर तुमको रास न आई
ओ जन जन के सजग चितेरे, जब जब याद तुम्हारी आती
आँखें हो उठती हैं गीली, फटने–सी लगती है छाती'
शैलेंद्र ने अपनी गीत यात्रा सन १९४९ में प्रारंभ की थी।
गीत यात्रा की स्वर्ण जयंती पर गीतों के राजकुमार एवं
संवेदना के चितेरे 'कविराज' शैलेंद्र को शत–शत नमन। |