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जम्मू रंगमंच का इतिहास
- डॉ. अशोक जेरथ
जम्मू की रंगमंच की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है।
शुरू-शुरू में लोकमंच द्वारा ही विशेष अनुष्ठानों,
पर्वों और मेलों में स्वाँग आदि का समाँ बाँधा जाता
था। जम्मू में इन स्वाँग कर्मियों की भाषा ठेठ डोगरी
और कश्मीर में कश्मीरी रही है। लद्दाख में यह
प्रक्रिया धार्मिक स्थानों, बौद्ध मठों और गोम्पाओं से
जुड़ी रही है। अतः जो भी धार्मिक अनुष्ठान होता, उसमें
मुखौटा नृत्य की भूमिका प्रमुख रूप से उभरकर सामने आती
है।
जम्मू में लोक रंगमंच के तीन प्रमुख रूप हमें मिलते
हैं- ये हैं ‘‘टड्ड’’, ‘‘जागरणा’’ और ‘‘भगताँ’’।
‘‘टड्ड’’ में अक्सर किसी वृद्ध की मृत्यु हो जाने पर
उसके ससुराल वाले आकर उक्त मृत व्यक्ति का स्वाँग रचते
हैं। इसमें ससुराल की स्त्रियाँ बढ़चढ़ कर भाग लेती हैं
और गीत आदि के साथ नृत्य भी किया जाता है। कई बार
पुरुष भी इस स्वाँग में भाग लेते हैं। इस स्वाँग का
उद्देश्य शोक में डूबे परिवार को उस स्थिति से उबारना
होता था। यह प्रचलन अब लगभग समाप्त प्राय है। कहीं दूर
दराज गाँवों में होत हो तो कहा नहीं जा सकता।
जागरणा:- यह एक लोक नाटक है जिसकी कलाकार/निर्देशक सभी
स्त्रियाँ होती हैं। लड़के की शादी में जब बारात चली
जाती है तो घर में स्त्रियाँ रह जाती हैं जो अनेक
मुद्राएँ बनाकर नाचती हैं, गाती हैं और अनेक बार बूढ़े,
बूढ़ियों, समधिन के प्रेमी, जोकर आदि का स्वाँग रचती
हैं। अक्सर दूल्हे के नानके की स्त्रियाँ दूल्हे के
दादके की स्त्रियों से छेड़खानी करती हैं और बदले में
वैसा ही व्यवहार पाती हैं। चूँकि यह कार्यक्रम गई रात
तक चलता रहता है, अतः इसे ‘‘जागरणा’’ की संज्ञा दी
जाती है। इस लोकनाट्य की नाट्यकर्मी महिलाएँ ही होती
हैं और देखने वाली भी महिलाएँ ही होती हैं। पुरुषों को
देखने की मनाही होती है। यह लोकनाटक आज भी गाँवों और
कस्बों में प्रचलित है, पर कभी-कभी नगरों में भी देखने
को मिल जाता है।
भगताँ:- तीसरा लोकनाटक जो जम्मू के कण्डी इलाकों में
खेला जाता रहा है उसे ‘‘भगताँ’’ की संज्ञा दी जाती है।
भगताँ के किरदार, जिन्हें ‘‘भगतिए’’ कहा जाता है, अनेक
तरह के स्वाँग रचते हैं। कुटिल नेता, सूदखोर, कपटी
सामाजिक घटक, कथित समाजसुधारक तथा पाखंडी धर्म नेताओं
आदि पर इन भगतियों द्वारा किए जाने वाले व्यंग्य एवं
कटाक्ष नाटक का केंद्रबिंदु होते हैं। भगताँ का एक रूप
हिमाचल प्रदेश में भी प्रचलित है। इसके लिए कोई मंच की
आवश्यकता नहीं होती अपितु किसी भी पठार, मैदान में
ऊँचे स्थान पर इसका मंचन होता हैं मेकअप भी साधारण
होता है। ये साधारण कपड़े, जटा-जूट, टोपी, रस्सियों की
बनी चप्पलें आदि पहनते हैं। इन्हें किसी
निदेशक/निश्चित संवाद की आवश्यकता भी नहीं होती, अपितु
वार्तालाप में ये स्वयं ही संवाद गढ़ लेते हैं। कई बार
इतने हाजिर जवाब होते हैं ये लोग, कि दर्शकों को भी एक
पात्र की तरह मिलाकर उन्हें उकसाते हैं कि वे कुछ कहें
और बदले में ये उनका उपहास उड़ायें। अक्सर दो भगतिए एक
समय मंच पर आते हैं। ‘‘भगताँ’’ का लोक नाटक रात्रि के
समय अलाव की रोशनी में खेला जाता है। अक्सर गाँव का
मुखिया अथवा स्वयं ‘‘भगतिए’’ ही अपनी ओर से प्रचार कर
प्रदर्शन का कार्यक्रम बनाते हैं। कई बार गाँव अथवा
कस्बे के अमीर लोग अथवा जिसके घर में कोई अनुष्ठान हो,
इन भगतियों को न्योता देते हैं, पर अब इसका प्रचलन
खत्म होता जा रहा है।
उपर्युक्त स्थानीय लोकनाट्यों के अतिरिक्त प्रदेश से
बाहर की अनेक रास मंडलियाँ यहाँ आती रहती हैं। हमें
याद है कि ब्रज से श्री कृष्ण लीला को मंचित करने
अक्सर रास मंडलियाँ यहाँ आती थीं और इसी प्रकार
रामलीला दर्शाने के लिए कई मंडलियाँ यहाँ आती रही हैं।
लेकिन इन मंडलियों का मुख्य उद्देश्य पैसा बटोरना होता
था। श्री गणेश पूजा और इष्ट देवताओं की पूजा के समय
पूजा की थाली दर्शकों में फेरी जाती थी जिसमें वे
यथाशक्ति कुछ न कुछ डाल देते थे। बाद में नाम ले लेकर
दर्शकों को उकसाया जाता था कि वे दस बीस रूपये किसी
विशेष दृश्य पर दें अथवा किसी विशेष पात्र का कार्य
देख कर अर्पित करें। इन मंडलियों में स्त्री पात्रों
का रोल भी पुरुष ही करते थे। बाद में इस प्रदेश में
स्थान-स्थान पर रामलीला क्लब बने और अनेक स्थानों पर
रामलीला मंचित होने लगी। बसोहली, गढ़ी, ऊधमपुर तथा
जम्मू दीवान मंदिर द्वारा मंचित राम लीलाएँ इनके
प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इन क्लबों द्वारा समय-समय पर
अनेक नाटक भी खेले गए।
जम्मू में १८६० के आस पास ‘‘रघुनाथ कम्पनी’’ नामक एक
संस्था स्थापित हो चुकी थी जिसे स्थानीय व्यवस्था की
ओर से प्रोत्साहन था। कम्पनी की आर्थिक सहायता धमार्थ
ट्रस्ट के खातों से की जाती थी। बाद में इसे ही
‘‘रघुनाथ थिएट्रिकल कम्पनी’’ में परिवर्तित कर दिया
गया।
१८९८ ई. में महाराज हरिसिंह के मुंडन संस्कार के समय
बंबई से विक्टोरिया कम्पनी का जम्मू मे आगमन हुआ। यह
पारसी थिएटर की सुप्रसिद्ध कम्पनी थी। इस कम्पनी को
सरकारी खर्च पर जम्मू बुलाया गया था। इस कम्पनी ने
जम्मू में ग्रीन हाल में अनेक नाटकों का प्रदर्शन
किया। यह कम्पनी श्रीनगर भी भेजी गई और वहाँ पर भी
इसने अनेक नाटकों का मंचन किया। यहीं से पारसी थिएटर
का आगाज जम्मू-कश्मीर में हुआ। परिणामस्वरूप कश्मीर
में आगा हश्र कश्मीरी द्वारा लिखित तथा निर्देशित अनेक
नाटकों का मंचन किया गया। जम्मू में भी इसका प्रभाव
पड़ा और श्री दीवान ज्वाला सहाय मंदिर के प्रांगण में
मंच की स्थापना हुई और साथ ही ‘‘एमेच्योर क्लब’’ की
स्थापना भी हुई।
इस क्लब ने ‘‘दीवान मंदिर रंगमंच’’ पर अपने प्रथम नाटक
‘‘चंद्रावली’’ का प्रदर्शन किया। इस क्लब के अतिरिक्त
बाद में जम्मू में फ्रेंड्स क्लब, कृष्ण ड्रामेटिक
क्लब आदि सामने आए पर एमेच्योर क्लब का स्थान कोई क्लब
नहीं ले सका। कालांतर में इसी क्लब का ‘‘सनातन धर्म
नाटक समाज’’ के नाम से पुनर्जन्म हुआ जो अपना मंचन
‘‘दीवान-मंदिर’’ के मंच से ही करता रहा। आज भी यह मंचन
सफलतापूर्वक चल रहा है। आजादी के बाद अनेक परिवर्तन
हुए जिनसे रंगमंच की तकनीक पर भी प्रभाव पड़ा। पारसी
थिएटर धीरे-धीरे लुप्त होने लगा तथा उसके स्थान पर
आधुनिक रंगमंच उभरकर सामने आया। जम्मू में ‘‘पृथ्वी
थिएटर’’ के कलाकारों ने उत्तर टॉकीज में नवीन भावबोध
के नाटक ‘‘पठान’’, ‘‘दीवार’’ नई तकनीक के साथ प्रस्तुत
किए। धीरे-धीरे जनता ने अपने प्रांत की भाषा की उन्नति
की ओर ध्यान देना आरंभ कर दिया।
कल्चरल अकादमी के वजूद में आने के साथ-साथ लगभग १९६५
से लेकर १९७७ तक नाटक समारोहों में अनेक स्थानीय
लेखकों द्वारा हिंदी में नाटक लिखे गए और मंचित भी किए
गए। इन नाटकों में दीनू भाई पंत द्वारा रचित ‘‘स्वर्ग
की खोज’’ को कल्चरल फोरम ने अभिनीत किया एवं नरेंद्र
खजूरिया कृत ‘‘रास्ता, काँटे और हाथ’’ भारत कला मंदिर
ने तथा रामकुमार अबरोल कृत नाटक ‘‘धरती और हम’’ जम्मू
आर्ट्स क्लब ने अभिनीत किया।
१९६९ में श्री कवि रत्न, अकादमी में ड्रामा
इन्स्ट्रक्टर के पद पर नियुक्त हुए तो अकादमी की
रंगमंचीय गतिविधियों में जान आई। इन्होंने स्थानीय
कलाकारों को लेकर राष्ट्रीय स्तर के अनेक नाटककारों के
नाटकों को सीधे या अनुवाद कर, नाटक मंचित किए, पर खेद
की बात यह है कि किसी भी स्थानीय नाटककार का नाटक
इनमें नहीं था।
रंगमंचीय संस्थाएँ, जो इस ओर कार्यरत रहीं हैं और अभी
भी इनमें कुछ कार्य कर रही हैं, में बहुरंगी नटरंग,
अमेच्योर थिएटर ग्रुप, रंगयुम, डुग्गर मंच आदि चर्चित
हैं।
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सितंबर २०१३ |