हास्य व्यंग्य

हिंदी के विकास में लिफाफे का योगदान
सुशील उपाध्याय



पत्नी को सुबह ही ताकीद कर दिया है कि कुर्ता-धोती निकाल कर रख दे। कलफ ले आया हूँ। कड़क कलफ लगाकर मुहल्ले के मशहूर अंगारा-धोबी से प्रेस कराऊँगा। पत्नी मुस्कुराई और समझ गई कि फिर कोई सालाना उत्सव आने वाला है। मैंने, बिना देर किए सस्पैंस खत्म किया। अरे भई, हिंदी दिवस के कार्यक्रम शुरू हो गए हैं। कई जगह से बुलावा आने की उम्मीद है। आचार्य जी के घर से भी कार्यक्रम की तैयारी के लिए बुलावा आ चुका है। ऐन वक्त पर भगदड़ मचती है कि हिंदी के लायक कपड़े नहीं हैं। इस बार पहले से तैयारी करके रखूँगा। हिंदी धोती-कुर्ते के साथ ज्यादा शोभती है।

घर से निकलते वक्त बीवी को निर्देश दिये-बिना देर किए अखबार वाले को सूचित कर देना कि चौदह सितंबर को अंग्रेजी के अखबार न डाले, उनकी जगह केवल हिंदी के अखबार ही भेजे। कहीं मुहल्ले में यह न लगे कि हम लोग हिंदी के कम हिमायती हैं। लेकिन, बच्चे ? बीवी के “लेकिन बच्चे” वाले सवाल को मैं समझ नहीं पाया। उसने विस्तार दिया, आप तो कहते हैं कि बच्चों को हिंदी के अखबारों की लत नहीं लगनी चाहिए।

ओह, याद आया, तुम ठीक कहती हो। अरे, पढ़ने थोड़े ही हैं, बस इस तरह सजाकर रख देना कि जो लोग घर में आएँ, उन्हें लगे कि हम हिंदी कि धुरंधर पक्षधर हैं। याद रखना, उस दिन बच्चों का ट्यूटर या तो छुट्टी रख ले या फिर केवल हिंदी में बात करने का अभ्यास करके आए। आखिर हिंदी हमारी माँ है और ये माँ की अस्मिता का सवाल है। ठीक समझो तो उस दिन शाम को मुहल्ले के बच्चों को बुला लेना। मैं, केक लेता आऊँगा। बच्चों के बहाने उनके माँ-बाप को भी पता चलना चाहिए कि हम हिंदी के कितने बड़े हितचिंतक है। हम उनकी तरह नहीं है जो एक दिन हिंदी को याद करने की जहमत नहीं उठाते।

दफ्तर आ गया हूँ, लेकिन हिंदी की चिंता बनी हुई है। आते ही हिंदी के अपने पुराने आचार्य को फोन घुमाया। हिंदी दिवस पर उनसे बड़ी उम्मीद रहती हैं। वे हिंदी के परमसेवक हैं और हिंदी-सेवियों के संकटमोचक हैं। हम जैसे अपने चेले-चपाटों का भी पूरा ख्याल रखते हैं। किसी की मजाल है कि शहर का कोई सरकारी संस्थान उनके मशविरे के बिना हिंदी दिवस का आयोजन करा सके। उनकी पूरी जिंदगी हिंदी की सेवा में बीती है और उनका संकल्प है कि जब तक साँस रहेगी हिंदी समारोहों में मौजूद रहेंगे। हम सरीखे तमाम हिंदी-सेवी हिंदी माह, पखवाड़े और दिवस के मौके पर उनके संपर्क में रहते हैं। आचार्य जी बड़े उदार हैं। वे खुद लिफाफा लेते हैं और साथ चलने वाले चेलों-चमचों को भी दिलवाते हैं। मुझे भी लिफाफा लेते एक दशक से ज्यादा वक्त हो गया है।

पिछले साल, एक केंद्रीय संस्थान में चोर किस्म का डायरेक्टर आ गया था। उसने बड़े खूबसूरत लिफाफे बनवाए और उसमें रखी जाने वाली राशि को आधा कर दिया। आचार्य जी उसी संस्थान में हिंदी के मंच पर बोल रहे थे। तभी मुखबिर ने खबर दी कि राशि आधी हो गई है। आचार्य जी को पता चला तो मंच पर डायरेक्टर की ऐसी की तैसी कर दी और यह साबित करके ही मंच से नीचे उतरे कि यह डायरेक्टर हिंदी विरोधी है। इसके बाद तो दिल्ली तक फोन खड़क गए। डायरेक्टर की जान पर बन आई।

आचार्य जी की टोली में कुछ पत्रकार भी हैं। वे भी लिफाफे के मुरीद हैं। ऐसी खबरें छपीं कि डायरेक्टर को नए लिफाफों में दोगुनी राशि रखकर आचार्य जी के घर पर दस्तक देनी पड़ीं। इसके बाद सबको परिपूर्ण लिफाफे मिले और हिंदी का सम्मान बच पाया।

दफ्तर से निकलकर सीधे आचार्य जी के घर का रास्ता पकड़ा। हिंदी दिवस के सिलसिले में आचार्य जी के घर पर बैठक हुई। तय हुआ कि श्रीफल, अंग-वस्त्रम, शॉल और स्मृति-चिह्न इस बार नहीं लिए जाएँगे। हर साल इतने मिल जाते हैं कि घर में रखने की जगह नहीं बचती। इस प्रस्ताव के बाद एक मौन-प्रश्न सबके चेहरों पर तैर गया। इसके बदले क्या मिलेगा ?

आचार्य जी चेलों-चमचों की अभिलाषा को समझ गए। चिंता की कोई बात नहीं है। सभी सरकारी हिंदी अफसरों को सूचना भिजवा दी गई है। पत्र-पुष्पम में जो राशि खर्च होती है, इस बार वह भी लिफाफे में ही रखी जाएगी और महँगाई के हिसाब से राशि भी बढ़ानी होगी। अन्यथा की स्थिति में आप विद्वानों और हिंदी चिंतकों में से कोई हिंदी समारोहों में नहीं जाएगा। करतल-ध्वनि से प्रस्ताव पारित हुआ।

पिछली बार हिंदी की कुछ बेचैन आत्माएँ आचार्य जी से परामर्श किए बिना समारोहों में चली गई थी, उन्हें लिफाफे में काफी धोखा हुआ। इस बार सभी एकजुट हैं। आचार्य ने जी ने मुझे कार्यक्रम का जिम्मा सौंपा है ताकि एक भी समारोह (इसे लिफाफा भी पढ़ सकते हैं) न छूटे। आचार्य जी के निर्देश पर सरकारी हिंदी अफसरों को फोन करके पूरा कार्यक्रम समझा दिया है और सभी की सहमति भी प्राप्त हो गई है। आचार्य जी ने कुछ पुराने भाषण भी निकालकर सभी को दे दिए हैं ताकि शेष बचे दो-चार दिनों में इनका ठीक से अभ्यास कर सकें।

इन दिनों सभी हिंदी-सेवी दिन-रात एक किए हुए हैं। बस, एक काम बचा है। अपने दोनों बच्चों को एक वाक्य रटवाना है-हिंदी हमारी माँ है और हिन्दी हमारी शान है। मैं, हिंदी-रूपी मंच की शान को लिफाफे के तौर पर देखता हूँ। हे हिंदी मां तेरी जय हो, लिफाफे के तौर पर तेरा आसीस सदा बरसता रहे।

९ सितंबर २०१३