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प्रेरक-प्रसंग


बोझ
-शशि पाधा
 


मेरे ९८ वर्षीय श्वसुर को अपने बीते कल की बातें सुनाने में जो आनन्द आता है उतना ही हमें सुनने में आता है। मुझे याद है कि जब भी मैं उनसे पूछती “ पिता जी, आपको क्या चाहिए? उत्तर में वो हँसते हुए कहते, “आपका थोड़ा समय बेटा। ” हम सब यह प्रयत्न करते हैं कि उनके पास बैठ कर उनसे उनकी बातें सुनें। भूतपूर्व सैनिक होने के कारण द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत के पूर्व में स्थित वर्मा देश में घटित ब्रिटिश सेना और जापानी सेना के बीच हुए युद्ध से सम्बंधित उनके पास अनेकों संस्मरण थे। कभी कभी अपने बहादुर सैनिक मित्रों के बलिदान की गाथाएँ सुनाते हुए वो अत्यंत भावुक हो जाते और उनकी आँखें नम हो जातीं।

एक दिन संध्या समय घर के लाँन में बैठे वे मुझे अपने विद्यार्थी जीवन में घटी रोचक घटनाओं के विषय में बता रहे थे। उस दिन उन्होंने जो घटना सुनाई उसे मैं आपने पाठकों के समक्ष उनके ही शब्दों में प्रस्तुत कर रही हूँ।

“जब मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था तो अपने गाँव ‘डगोड़’ के पास बसे दूसरे गाँव “गुड़ा सलाथिया” के स्कूल में पढ़ने के लिए जाया करता था। एक बार हमारे स्कूल में गर्मियों की छुट्टियाँ हो रहीं थी। हम सब लड़कों ने छुट्टी के पहले दिन शाम को गाँव के पास बहती “देवक” नदी के किनारे शीतल रेत पर फ़ुटबाल खेलने की योजना बनाई। हम सब मित्र इस खेल के लिए बहुत उत्साहित थे।

उस दिन जैसे ही मैं छुट्टी के बाद अपने घर आया, मेरी दादी ने मुझे देखते ही कहा,” कृष्णा, आटा समाप्त हो गया है। लो यह गेहूँ की बोरी उठाओ और “साम्बा” ( एक गाँव ) के घर्राट पर जा कर आटा पिसा लाओ।”

गेहूँ की बोरी देख कर मैं घबरा गया क्यूँकि उसका आकार मेरे शरीर से थोड़ा ज़्यादा ही था। साथ ही फुटबाल के खेल की योजना पूरी ना होने का भी अफसोस था। किन्तु करता तो क्या करता। दादी को “ना” कहना अपने कुल मर्यादा के नियमों में नहीं था। मैंने चुपचाप बोरी लादी और घर्राट की ओर चल पड़ा। दादी ने साथ में पोटली में रोटी, आम का आचार और कुछ सब्जी आदि भी बाँध दी और नसीहत देते हुए कहा,” घर्राट वालों के साथ मिल बैठ के खाना।”

अपने गाँव से कुछ मील दूर “गुढ़ा सलाथिया” के कच्चे रास्ते से मैं गुज़र रहा था तब तक शाम हो गयी थी। तभी किसी ने मेरा नाम लेकर पुकारा। मैंने देखा कि मेरे स्कूल के हैड मास्टर भी स्कूल का काम काज निपटा कर पैदल अपने गाँव की ओर जा रहे थे।
उनहोंने पूछा,” तुम कहाँ जा रहे हो?”

मैंने नमस्कार करते हुए कहा,” आटा पिसाने के लिए साम्बा गाँव के घर्राट की ओर जा रहा हूँ।”
वो कुछ देर मेरे साथ चलते रहे। कुछ ही दूरी पर अचानक उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझसे रुकने को कहा। जैसे ही मैं रुका, उन्होंने मेरी पीठ पर से गेहूँ की बोरी उतारी और अपनी पीठ पर लाद ली। और कहा,” चलो, मैं भी उधर ही जा रहा हूँ।”

मैं बच्चा था इसलिए, या वो हैडमास्टर थे शायद इसलिए, मैं उनकी बात टाल नहीं सका और ना ही उन्हें रोक सका। हम दोनों साथ-साथ चलते रहे। वो रास्ते में मुझसे स्कूल, घर, गाँव और दोस्तों की बातें करते रहे। स्कूल में तो उनका इतना सम्मान और दबदबा था कि उन्हें देख कर ही हम दुबक जाते थे। किन्तु आज उन्हें अपने साथ चलते देख कर मुझे कुछ अजीब सा लग रहा था। लग रहा था जैसे अचानक मैं भी बड़ा हो गया हूँ।

“अपने शिष्यों के प्रति निस्वार्थ प्रेम एवं सेवा भावना रखने वाले शिक्षक क्या आज के युग में भी हैं? अगर हैं तो उन्हें मेरा कोटि-कोटि प्रणाम।”

२ सितंबर २०१३

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