हिंदी
दिवस के अवसर पर
इज़रायल में
हिंदी क्यों
डॉ.
गेनादी श्लोम्पेर
क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से इज़रायल एक छोटा सा
देश है। इज़रायलवासी स्वयं इसे ‘मानचित्र पर बिंदु’ कहा
करते हैं। पर यदि इस छोटे से देश की सड़कों पर घूमें, तो
उतनी सारी भाषाएँ और बोलियाँ सुनने में आ जाएँगी, जितनी कि
अमरीका, रूस या भारत सरीख़े बहुजातीय और बहुभाषीय देशों
में ही गूँजती हैं। और ये भाषाएँ विदेशी यात्रियों की
नहीं, वरन् इज़रायल के उन नागरिकों की हैं जो यहाँ विश्व
के कोने कोने से आ बसे हैं।
यहाँ की ७० लाख वाली आबादी में भारत मूल के लगभग ७० हज़ार
लोग रहते हैं। उनमें से अधिकांश महाराष्ट्र से आये हुए
हैं, और मराठी उनकी मातृभाषा है। अश्दोद, दीमोना, राम्ला
जैसे नगरों में मराठी भाषियों की संख्या काफ़ी बड़ी है।
वहाँ जगह जगह पर हिंदुस्तानी ढंग के रेस्तराँ और दुकानें
हैं, जहाँ भारतीय खाना मिलता है, भारतीय फ़िल्मों और संगीत
के सी.डी. बिकते हैं। भारत मूल का एक छोटा सा समूह मलायलम
भी बोलता है क्योंकि वह यहाँ पर कोचीन (केरल) से
स्थानांतरित हुआ था। पर ऐसा हुआ है कि भारतीय समुदाय में
भारत की सब से बड़ी भाषा, हिंदी का प्रतिनिधित्व कोई भी
नहीं करता। ऐसी बात तो नहीं है कि भारत मूल के इज़रायल
वासियों में कोई भी हिंदी नहीं बोलता। वृद्ध और अधेड़ उम्र
के लोग गुज़ारे लायक हिंदी बोल लेते हैं और हिंदी फ़िल्में
आसानी से समझ पाते हैं। लेकिन भाषा का अध्यापन करने, उसका
प्रचार-प्रसार करने के लिये उनकी जानकारी स्पष्ट रूप से
पर्याप्त नहीं है।
यह स्वाभाविक बात है कि भारत के भूतपूर्व नागरिकों ने भारत
से अपने सांस्कृतिक संपर्क बनाये रखे हुए हैं। लेकिन
इज़रायली समाज में भारत के प्रति रुचि की जड़ें कहीं
ज़्यादा गहरी और पुरानी हैं। हमारे देश की स्थापना के बीस
से ज़्यादा वर्ष पहले, १९२६ में, यरुशलम के हिब्रू
विश्वविद्यालय में अफ़्रीकी-एशियाई अध्ययन के संस्थान का
उद्घाटन किया गया। शुरुआत में इसका शोध कार्य अरब देशों की
परिस्थितियों पर केंद्रित था, लेकिन समय के साथ साथ
विद्वानों का ध्यान दक्षिणी ऐशिया और पूर्वी ऐशिया के
देशों की ओर भी गया।
दुनिया में भारत को चमत्कारों का देश माना जाता है। इसी
विचार ने इज़रायल के नये विद्वानों को भी प्राचीन भारत की
समृद्ध संस्कृति को ढूँढने और समझने के लिये प्रेरित किया।
जिन विद्वानों ने इज़रायल में भारत-विद्या की नींव रखी थी
और इसको आगे बढ़ाया, उनमें प्रॉ.डेविड शुल्मन, प्रॉ.शऊल
मिग्रोन और प्रॉ.व्लादीमीर सिरकिन प्रमुख हैं। काफ़ी दिनों
तक उनकी खोज के विषय भारत के धर्म-दर्शन, प्राचीन साहित्य
और प्राचीन भाषाएँ ही रहे। मगर विद्यार्थियों की रुचियों
को देखकर और हमारे दोनों देशों के बीच राजनैतिक संबंधों की
स्थापना के पश्चात वे मान गये कि भारतीय संस्कृति का
अध्ययन करते हुए उसके इतिहास और आजकल लोगों की स्थिति की
उपेक्षा नहीं की जा सकती है। तब से भारतीय विभाग में भारत
से जुड़ी हुई नयी नयी बातों का पठन-पाठन प्रारंभ हुआ।
पाठ्यक्रम में संस्कृत के अतिरिक्त तामिल, तेलुगू, तिब्बती
जैसी भाषाओं को सम्मिलित किया गया। हिंदी की पढ़ाई
प्रशिक्षित अध्यापक के अभाव के कारण कुछ समय के लिये टाल
दी गयी। और उसकी बारी १९९४ में, मेरे इज़रायल में
देशांतरवास के बाद ही आयी। मैंने हिंदी-उर्दू भाषाओं के
अध्यापन का प्रशिक्षण ताशकंद विश्वविद्यालय में प्राप्त
किया था, और कोई बीस साल से हिंदी-उर्दू पढ़ाने में लगा
रहा। १९९६ में मुझे यरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय के
भारत-तत्व विभाग में हिंदी के अध्यापक के पद पर नियुक्त
किया गया। विद्यार्थियों में हिंदी की बढ़ती हुई माँग को
लेकर २००१ में तेल-अवीव विश्वविद्यालय में भी इस भाषा को
सिखाने का निर्णय लिया गया, और मुझे वहाँ भी पूर्वी ऐशिया
के विभाग में हिंदी पढ़ाने के लिये आमंत्रित किया गया।
हिंदी के कोर्स बहुत ही सफल रहे, जिसका अनुमान इस बात से
किया जा सकता है कि हर वर्ष दोनों विश्वविद्यालयों में कुल
मिलाकर करीब चालीस नये नये छात्र आ जाते हैं।
शुरू में हिंदी भाषा का पाठ्यक्रम यहाँ दो वर्षों का था।
प्रथम वर्ष में विद्यार्थियों को लिखने, पढ़ने और बोलने का
अभ्यास दिया जाता है। एक वर्ष के अंदर वे हिंदी व्याकरण के
आधारभूत नियमों को पढ़ लेते हैं। और प्रतिदिन की आवश्यकता
के विषयों पर बात-चीत करना सीख लेते हैं। एक साल की पढ़ाई
के बाद छुट्टियों के समय जो विद्यार्थी भारत की यात्रा पर
जाते हैं वे अपनी प्राथमिक जानकारी का प्रयोग कर के बहुत
ख़ुश होते हैं। हाँ, हिंदी जैसी भाषा गहराई से सीख लेने के
लिये दो वर्ष अवश्य पर्याप्त नहीं हैं। इस लिये दूसरे वर्ष
के पाठ्यक्रम को मैंने कुछ ऐसी सामग्री पर आधारित किया है
जिसके माध्यम से विद्यार्थी व्याकरण के सब से महत्त्वपूर्ण
नियमों को अपना कर शब्दकोश की सहायता से हिंदी में कोई भी
किताब पढ़ सकें। दूसरे वर्ष के अंत में विद्यार्थियों को
इस स्तर पर तैयार किया जाता है कि वे रामधारी सिंह दिनकर
जैसे लेखक की रचनाएँ पढ़ सकें। कोश और व्याकरण की सहायता
से वे अनुवाद करते हैं और जहाँ कठिनाई होती है, मैं उनकी
मदद करता हूँ।
आधारभूत स्तर की पाठ्य-पुस्तकों की कमी नहीं है। लेकिन
उनमें कोई न कोई अवगुण ज़रूर पाया जाता है। उनमें या तो
सामग्री के चयन और प्रस्तुतीकरण में सतहीपन है, या उलट,
व्याकरण के नियमों को ही भाषा समझ कर उनपर बल दिया जाता
है। तब मैंने अपने अनुभाव पर आधारित एक ऐसी पाठ्य-पुस्तक
लिखने की चेष्टा की जिसमें व्याकरण के संग जीवंत व सरल
भाषा प्रस्तुत की जाए और जो पढ़ने में रोचक हो और उसमें
भारत के बारे में विविध जानकारी भी मिले। फिर मेरा इरादा
था कि विद्यार्थी यह पुस्तक अपनी मात्रीभाषा, यानि कि
हिब्रू भाषा में पढ़ें। सन् २००० तक मैंने यह कार्य पूर्ण
किया, और अब मेरे पास दो साल की पढ़ाई के लिये पर्याप्त
सामग्री है।
भाषा को अपनाने में मौखिक अभ्यास कुछ कम आवश्यक नहीं हैं।
बोल-चाल की भाषा सीखने और हिंदी में बात करने की क्षमता
बढ़ाने के लिये मैं नाटकों, फ़िल्मों और गानों का भी
प्रयोग करता हूँ। हाँ, आजकल बहुत सी फ़िल्मों की भाषा
शुद्ध नहीं है और अंग्रेज़ी से प्रभावित है, मगर थोड़ा सा
प्रयत्न कर हमें कुछ नयी और कुछ पुरानी फ़िल्में मिलीं
जिनके पात्र अच्छी मानक हिंदी बोलते हैं। हिंदी गानों का
भी बड़ा लाभ होता है। मेरे विद्यार्थी लग-भग हर पाठ में
कोई न कोई नया गाना सीख लेते हैं।
जो विद्यार्थी हिंदी आगे सीखना चाहते हैं वे छात्रवृतियाँ
पा कर केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा या दिल्ली में अध्ययन
के लिए जाते हैं।
हिंदी के प्रति बढ़ते रुझान को देखते हुए तेल-अवीव
विश्वविद्यालय ने कई साल पहले हिंदी भाषा में तीन साल के
पाठ्यक्रम को शुरू किया है। और पिछले साल से लेकर एक सत्र
के दौरान हिंदी साहित्य का कोर्स भी चलाया गया। मैं
विद्यार्थियों को हिंदी साहित्य के इतिहास और कई
प्रतिष्ठित कहानीकारों की रचनाओं से परिचित कराता हूँ।
ख़ैफ़ा नगर के विश्वविद्यालय ने भी आधुनिक भारत का अध्ययन
करनेवालों के लिये दो साल का हिंदी कोर्स चलाया है।
इस सिलसिले में एक और बात उल्लेखनीय है। सन् २००० से ले कर
तेल-अवीव विश्वविद्यालय में पढ़ाई के हर वर्ष के अंत में
‘हिंदी समारोहों’ का आयोजन किया जाता रहा है, जिनमें भाग
लेने के लिये भारत के और हिंदी के सैंकड़ों प्रेमी आते
हैं। २००६ से लेकर यहाँ हर वर्ष १० जनवरी को
‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस’ बड़े धूम-धाम से मनाया जाता
है। विद्यार्थी हिंदी गाने गाते हैं, नाटकों का मंचन करते
हैं, हिंदी के बारे में विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग
लेते हैं, कविताएँ सुनाते हैं। बाद में भारतीय नाच-गाने का
कार्यक्रम प्रस्तूत किया जाता है और दर्शक ज़ोरदार तालियों
से कलाकारों का स्वागत करते हैं। भारत के राजदूतावास और
राजदूतों की सहायता से ऐसे समारोह एक शुभ परंपरा बन गये
हैं, जो भारत और उसकी राजभाषा के प्रति इज़रायल वासियों की
रुचि और प्रेम का प्रदर्शन करते हैं।
हिंदी सीखने की इच्छा उन बहुत से लोगों को भी होती है जो
विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ते। हाल ही में मैंने जिस
हिब्रू-हिंदी बात-चीत की किताब तैयार की है, वह हाथों हाथ
बिकने लगी है। यहाँ पर हिंदी में ज़ी०टी०वी और "बोलीवुड"
चेनल के प्रोग्राम प्रसारित किये जाते हैं जो बड़े
लोकप्रिय हैं। यहाँ के टेलीवीजन पर और सिनेमाघरों में
हिंदी फ़िल्मों का प्रदर्शन और रेडियो पर हिंदी गानों का
प्रसारण एक साधारण सी बात बन गया है।
अब मैं यह समझाने की कोशिश करूँगा कि विश्वविद्यालय में
विद्यार्थीगण हिंदी पढ़ने क्यों आते हैं, उनका क्या लक्ष्य
होता है?
तेल-अवीव विश्वविद्यालय के पूर्वी और दक्षिणी ऐशिया के
विभाग में विद्यार्थी एशियाई देशों की संस्कृति और इतिहास
का अध्ययन करते हैं। चीन, जापान और भारत को पाठ्यक्रम में
विशेष महत्व दिया गया है। पाठ्यक्रम के अनुसार इन तीनों
देशों की कोई एक भाषा सीखना अनिवार्य है। इस प्रकार
विद्यार्थी चीनी, जापानी, संस्कृत या हिंदी चुन सकते हैं।
हाँ, मैं यह छुपाने की कोशिश नहीं करूँगा, कि कुछ
युवक-युवतियाँ हिंदी को बस इस लिये चुन लेते हैं कि, उनके
विचार में, अन्य तीन भाषाओं की तुलना में हिंदी अपेक्षाकृत
सरल है। मेरे छात्रों में कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने चीनी
या जापानी सीखने का प्रयत्न किया भी था, मगर लिपि अपनाने
में हार मान कर छोड़ दिया और हिंदी की ओर मुँह किया। लेकिन
अधिकतर छात्रों को दाद देनी चाहिये। उन्होंने हिंदी को
समझ-बूझ कर ही चुन लिया, क्योंकि एशिया के देशों में से
भारत ही को अधिमान दिया गया था।
हर वर्ष हिंदी सीखने के लिये तेल-अवीव विश्वविद्यालय में
२०-२५ विद्यार्थी आते हैं और यरुशलम विश्वविद्यालय में
१०-१५ विद्यार्थी। उन के लिये हिंदी एक भाषा ही नहीं, वरन
भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को समझने का एक महत्वपूर्ण
माध्यम है। मेरे अधिकतर छात्र कई बार भारत होकर आये हैं।
बहुतों ने उत्तर और दक्षिण भारत को छान कर देखा। यात्रा के
समय विभिन्न लोगों से बात करने का अवसर मिलता है। भारत में
निजी संपर्क स्थापित करना कितना आसान है! भारत के लोग
मेल-जोल के लिये किस हद तक खुले हैं! भारतीय लोग बात करने
को हर समय तत्पर रहते हैं, लेकिन बहुतों को इतनी अंग्रेज़ी
नहीं आती कि वे हर भावना और विचार संपूर्ण रूप से प्रकट कर
सकें। तब तो हमारे इज़रायली पर्यटक हिंदी जानने की
आवश्यकता महसूस करने लगते हैं।
मेरी एक छात्रा येव्गेनिया किर्नोस ने मुझे बताया कि पहली
बार उसे हिंदी की जरूरत का अनुभव उस दिन हुआ जब वह अपने
हिंदुस्तानी दोस्तों के घर गयी। वहाँ सब लोग बैठ कर हिंदी
में बात कर रहे थे और वह उनकी बातें न समझते हुए परायी सी
बैठी रही। तब उसने निर्णय लिया कि ‘मैं हिंदी ज़रूर
जानूँगी ताकि उनके साथ बात करने और मजाक उड़ाने का आनंन्द
ले सकूँ। हमारे बीच सहानुभूति और पारस्परिकता की भावनाओं
को और प्रोत्साहन मिले।‘
मेरे एक और विद्यार्थी रवीव रोइमीशेर का कहना है कि
तेल-अवीव विश्वविद्यालय में दो साल हिंदी पढ़ने के बाद जब
वह फिर भारत गया, तो ख़ुशी से फूला न समाया। वह कहता है कि
‘मैं कई साल पहले हिंदी न जान कर भारत की यात्रा पर कैसे
निकला था? अब की बार मैं इर्द-गिर्द घटनेवाली घटनाओं का
अर्थ समझ पाया, लोगों से बात कर के उनके जीवन और समस्याओं
को बेहतर तौर पर समझ सका। अब मैं एक विदेशी पर्यटक की
नहीं, एक शोधक की नजरों से सब कुछ देखने लगा।‘
अब आइये देखें कि इज़रायल में लोग हिंदी जानने से क्या लाभ
उठा सकते हैं? यहाँ की सड़कों पर तो हिंदी नहीं गूँजती।
यहाँ तक कि भारत मूल के इज़रायल वासी आपस में हिंदी में
नहीं, मराठी में बात करना पसंद करते हैं। न तो यहाँ के
सरकारी कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग होता है और न ही
हिंदी सीख कर उन कार्यालयों में रोज़गार पाने की आशा है।
तो फिर किसी एक आदमी से या कई लोगों के समूह से निजी
संपर्क स्थापित करने के लिये ही विश्वविद्यालय में तीन साल
पढ़ने और ढेर सारे पैसे ख़र्च करने की क्या ज़रूरत है?
पाठ्य-पुस्तक और शब्दकोश ख़रीद कर हर एक व्यक्ति स्वयं
विदेशी भाषा सीख सकता है।
बात दरअसल यह है कि हमारे युवकों और युवतियों के लिये
हिंदी का अध्ययन एकमात्र लक्ष्य नहीं है। हिंदी उनके लिये
भारत की संस्कृति को ज़्यादा गहराई से समझने का माध्यम है।
विद्यार्थी व्याकरण के सब से महत्वपूर्ण नियमों को अपना
कर, दो साल वाले इस कोर्स के बाद शब्दकोश की सहायता से
हिंदी में किताबें पढ़ने की क्षमता रखते हैं। हाँ, यह भी
सच है कि बी०ए० की डिगरी पानेवाले बहुत से छात्रों के जीवन
में हिंदी का कोर्स बस एक मीठी याद बन कर रह जाएगा। हो
सकता है कि कभी भारत की यात्रा के दौरान हिंदी उनके काम
आए। लेकिन जो विद्यार्थी भारत से संबंधित शोधकार्य में
जुटना चाहें, उनके लिये कई रास्ते खुले हैं। वे अपनी पढ़ाई
इज़रायल में या भारत में जारी रख सकते हैं। शोधकार्य
परिपूर्ण करने पर उन्हें किसी विश्वविद्यालय में रोज़गार
मिलने की संभावना है, क्योंकि पिछले कुछ बरसों में भारत की
सभ्यता और आधुनिक परिस्थिति से जुड़े हुए विषयों की माँग
बड़ी हद तक बढ़ गयी है।
जब से हमारे दोनों देशों के बीच पारस्परिक संपर्कों को
प्रोत्साहन मिला, विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग और व्यापार
बढ़ा, तब से हिंदी की माँग भी लगातार बढ़ती चली आयी है।
इधर इज़रायल की कुछ कंपनियाँ, जो अपना उत्पादन निर्यात
करती हैं, हिंदी जाननेवालों को अपने यहाँ आमंत्रित करने
लगी हैं। मेरे विद्यार्थियों में व्यापारिक फ़र्मों के
एजेंट और पर्यटन संघों के मार्ग-दर्शक भी हैं। एक ऐसे
व्यावसायिक एजेंट रोनेन ने, जो अपने काम के सिलसिले में हर
साल कई बार भारत जाया करता था, सुनाया कि हिंदी की जानकारी
ने उनके काम को कहीं ज़्यादा सरल और सफल बना दिया। यही
नहीं कि विभिन्न लोगों से मिलने-जुलने में उन्हें सहायता
मिली, वरन रोनेन के प्रति भारतीय सौदागरों में विश्वास और
सम्मान का अनुभाव पैदा हुआ। इस प्रकार वर्तमान में आर्थिक
उदारीकरण के युग में हिंदी के कारण इज़रायल के कुछ
नागरिकों को रोज़गार भी मिलने लगा है।
लेकिन हिंदी के मुख्य उपभोक्ता इज़रायल के हज़ारों यात्री
और भारतीय सभ्यता के प्रेमी हैं। इज़रायल जैसे छोटे देश से
३०-४० हज़ार पर्यटक हर वर्ष भारत की यात्रा पर रवाना होते
हैं। आम विदेशी यात्री स्थानीय भाषाएँ जाने बिना अपना काम
चला लेते हैं। पर इज़रायल के यात्री बस घूमने-फिरने नहीं,
तरह तरह की बातें सीखने जाते हैं। बहुतों को भारतीय कला से
रुचि है। किसी को शास्त्रीय संगीत का, किसी को नृत्य का,
तो किसी को बाजे बजाने का शौक है। उनमें से बहुतों ने
मुझसे अनुरोध किया कि मैं उनको हिंदी सिखाऊँ। ताकि वे अपने
हिंदुस्तानी गुरुओं से उनकी भाषा में ही बात कर सकें और
भारत की कला का अर्थ बेहतर तौर पर समझ सकें। लेकिन सब की
प्रार्थनाएँ पूरी करना असंभव है। तो मैं हिंदी की
स्वयंशिक्षक किताब लिखने में जुट गया। आशा है कि इसके कारण
हिंदी बोलनेवालों की संख्या और बढ़ जाएगी। इज़रायल के बहुत
से लोग यह अच्छी तरह समझने लगे हैं कि हिंदी के माध्यम से
भारत की सभ्यता के द्वार खुल सकते हैं।
इस तरह हिंदी का प्रचार-प्रसार करने के लिये किसी पर दबाव
डालने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। प्राचीन संस्कृतिवाली
एक बड़ी ताकत की राष्ट्रीय भाषा होने के नाते हिंदी स्वयं
अपना महत्व साबित करती है।
०९ सितंबर
२०१३ |