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कवि
आचार्य
भगवत दुबे
°
प्रकाशक
अनुभव प्रकाशन,
ई–२८, लाजपत नगर,
साहिबाबाद–५, गाजियाबाद
°
पृष्ठ १२०
°
मूल्य : १०० रूपये
|
हिन्दी तुझे प्रणाम
(कविता
संग्रह)
'हिन्दी
तुझे प्रणाम'
आचार्य भगवत दुबे का इक्कीसवाँ काव्य
संग्रह है। इसमें राष्ट्रभाषा हिन्दी की पैरवी बड़े पुरजोर
ढंग से गीत,
नवगीत,
गज़ल,
मुक्तक,
सवैया,
कुंड़लिया एवं दोहा,
छंद के माध्यम से की गई है। हिन्दी के
प्रचार–प्रसार
में सहायक बनने लायक रोचक,
लयात्मक एवं सूक्तिपरक कुछेक नारे भी लिखे
गए हैं जो कि राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति अटूट श्रद्धा–भक्ति
एवं निष्ठा को प्रकट करते हैं।
देखा जाए तो मूल रूप से हिन्दी का स्वभाव
एक संत की तरह है,
न कि दार्शनिक की तरह। दार्शनिक तो
तार्किकता से ऊपर उठता है,
जबकि संत लहरों की तरह फैलता है। आज हिन्दी
का वैश्विक फैलाव इसी तथ्य को प्रमाणित करता है।
देश के नियति–नियंताओं
ने इस सत्य को भी उपेक्षित कर रखा है कि हिन्दी का मन
फकीरी मन है,
शाही मन नहीं। हिन्दी का मन अपने टाट पर
सबके लिए स्नेहपूर्वक जगह बना लेता है। जिंदगी से जूझने
वाले साधारण–जनों
की भाषा हिन्दी है। बड़े अफसरों,
रईसों एवं सत्ता के पिट्ठुओं की भाषा वह
कतई नहीं है।
कवि इसलिए तो कहता है कि
– 'राष्ट्रगीत
की भाँति हो,
हिन्दी का जयगान,
दंडनीय घोषित करें,
हिन्दी का अपमान।'
हम हिन्दी भाषी अपनी भाषा के प्रति जितने
उदासीन हैं,
शायद विश्व में कोई और नहीं होगा। संविधान
निर्माताओं ने हिन्दी को कौन–सा
अधिकार नहीं दिया?
लेकिन क्या हिन्दीभाषियों ने अपने नेताओं
और नौकरशाहों से कभी पूछा कि वे हिन्दी की अवहेलना क्यों
करते हैं?
|
भारत सरकार के हर कामकाज में पहले हिन्दी
होना चाहिए। मजबूरी हो तो अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जा
सकता है,
लेकिन असलियत यह है कि सरकार का सारा
कामकाज मूल रूप से अंगरेजी में हो रहा है। हिन्दी में तो
सिर्फ अनुवाद होता है। अगर संवैधानिक विवशता न हो तो वह भी
गायब हो जाए,
जबकि बकौल कवि के
– 'हिन्दी
ने हर क्षेत्र में प्रकट किया सामर्थ्य,
अंगरेजी दाँ कह रहे,
उसको ही असमर्थ।'
अकेले भारत में ७० करोड़ से ज्यादा लोग
हिन्दी बोलते और समझते हैं। पूरे ब्रिटेन में जितने लोग
अंगरेजी बोलते हैं,
उससे ज्यादा तो अकेले उत्तरप्रदेश में
हिन्दी बोलते हैं।
जापान,
रूस,
जर्मनी,
फ्रांस,
चीन आदि देशों ने जितनी प्रगति की,
वह अपनी भाषा में ही की है। इन देशों को
विकास की पराकाष्ठा तक पहुँचने के लिए अंगरेजी भाषा की कतई
जरूरत महसूस नहीं हुई,
तो फिर इस दिशा में हम कब सचेत होंगे?
जबकि
'सहज–सरल–सम्प्रेष्य
है,
यह बहुविज्ञ जुबान,
हिन्दी में ही कर सके,
उन्नति हिन्दुस्तान।'
एक और उदाहरण लें
– 'बिना
राष्ट्रभाषा यहाँ,
बीते वर्ष पचास,
भारतीय दिनमान को,
लगा अमंगल खग्रास।'
बकलम डॉ•रामप्रसाद
मिश्र के इस संग्रह में यदि पं•मदनमोहन
मालवीय,
पुरूषोत्तमदास टंडन,
गोविन्ददास,
पं•बालकृष्ण
शर्मा
'नवीन',
डॉ•राममनोहर
लोहिया जैसे हिन्दी अनुरागियों,
सृष्टाओं पर भी लेखनी चलाई गई होती तो
संग्रह निःसंदेह समग्रतः पूर्ण एवं अप्रतिम कहलाने का
अधिकारी हो सकता था।
डॉ•
इसाक
'अश्क' |