इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
रमेशचंद्र पंत, कपिल
कुमार, सरोज उपरेती, गोप कुमार मिश्र और कैलाश भटनागर की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- हमारी रसोई संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत गर्मी के मौसम में लौकी के व्यंजनों की विशेष शृंखला
के क्रम में अंतिम व्यंजन है-
लौकी का जूस। |
रूप-पुराना-रंग
नया-
शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर फिर से सहेजें
रूप बदलकर-
पुराने कोलैंडर का नया रूप। |
सुनो कहानी- छोटे
बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में
इस बार प्रस्तुत है कहानी-
गर्म हवा का
गुब्बारा। |
- रचना और मनोरंजन में |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला- २८ में विषय है चंपा का फूल। रचना भेजने की अंतिम
तिथि है- २६ जून। विस्तृत जानकारी के लिये
यहाँ
देखें। |
साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक
समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें। |
लोकप्रिय
कहानियों
के
अंतर्गत- चुनी हुई
श्रेष्ठ पुरानी कहानियों में से प्रस्तुत है २४ मार्च २००६ को
प्रकाशित मथुरा कलौनी की कहानी
एक दो तीन।
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वर्ग पहेली-१३९
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
|
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य
एवं
संस्कृति
में-
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समकालीन कहानियों
में यू.के. से
महेन्द्र दवेसर की कहानी
पुष्प
दहन
अपने
फ्लैट की खुली खिड़की से उसने सामने पहाड़ी की तरफ इशारा किया --
“वह देखो सामने वाली पहाड़ी पर पतझड़ का मारा रुंडमुंड-सा एक
अकेला पेड़! मैं भी बस वही हूँ, वैसा ही हूँ! वह भी अकेला, मैं
भी अकेला। हम दोनों में बातें होती रहती हैं।”
एक पेड़, एक पुरुष! कहाँ दूर का वह वृक्ष, कहाँ मेरी बगल में
बैठा वह पूरा इंसान। यह था जिम, मेरा टैक्सी ड्राइवर कम गाइड।
पूरा नाम -- जेम्स हिल। पूरा पागल? शायद नहीं! पर वह नीमपागल
तो है ही। खोया-खोया, उदास-सा रहता है ...जैसे अपने को ही ढूँढ
रहा हो। कभी-कभी मैं भी सोचा करता हूं कि ऐसा खोया -खोया-सा
इंसान मेरा गाइड कैसे बन गया? ...लेकिन बन गया!
उस दिन उसका जन्मदिन था। अपने जन्मदिन पर उसका यह कैसा पगला
सवाल था? “उस पेड़ के इर्दगिर्द जमीन पर बिखरे कितने सूखे पत्ते
होंगे?”
“होंगे सैंकड़ों ...हजारों। हमें क्या?”
“वे पत्ते नहीं, सपने हैं मरे हुए!”
...आगे-
*
शरद तैलंग का व्यंग्य
विवाह का अलबम
*
डॉ. राजेन्द्र परदेसी का आलेख
अमर कथा
शिल्पी चंद्रधर शर्मा गुलेरी
*
विनीता माथुर से प्रौद्योगिकी
में
इंटरनेट सुरक्षा के बीस सुझाव
*
पुनर्पाठ में जसदेव सिंह
का संस्मरण- कालजयी कवि का अवसान |
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पिछले
सप्ताह- |
१
मुक्ता की पुराण कथा
गंगा का विवाह
*
डॉ. सुरेश अवस्थी की कलम से
जी हाँ मैं गंगा बोल रही
हूँ
*
शंभुनाथ शुक्ल का यात्रा प्रसंग
गंगोत्री की ओर
*
पुनर्पाठ में डॉ. रामप्रकाश सक्सेना
का संस्मरण- पुण्य का काम
*
समकालीन कहानियों
में भारत से
विवेक मिश्र की कहानी
ऐ गंगा बहती
हो क्यों
गंगा पीछे रह
गई थी, वाराणसी का स्टेशन भी। एक यात्रा तो पूरी हुई, लेकिन
दूसरी...? अजीब-सा शोर है, अजीब-सी सनसनी। गंगा का नतोदर
प्रवाह जैसे एक प्रत्यंचा है और ट्रेन एक छूटा हुआ तीर। तब के
विसर्जित दृश्य एक-एक कर उतराने लगे, प्रतिभा के भीतर एक
नही-सी बह चली थी। वही पुल, वही घाट, वही सीढ़ियाँ, वही
मणिकर्णिकाएँ, वही जलती चिताएँ। एक चिता उसके भीतर भी जल रही
थी...
प्रतिभा को आज भी वह दिन याद हे जब रणवीर ने उसे बताया, ’’आज
मैंने उपने घरवालों को सूचित कर दिया कि मैं तुमसे शादी कर रहा
हूँ।’’ प्रतिभा की सारी इंद्रियाँ जैसे कान और आँख में
संकेंद्रित हो गई थीं, ’’क्या कहा उन्होंने ?’’
’’वही, जिसकी उम्मीद थी,’’ रणवीर ने सपाट-सा उत्तर दिया। ’’फिर
भी...? यह जानना मेरे लिए बहुत जरूरी है। सचसच बताओ, कुछ भी
छुपाना नहीं, तुम्हें...मेरी कसम,’’...आगे-
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