| 
                    
					 अपने 
					फ्लैट की खुली खिड़की से उसने सामने पहाड़ी की तरफ इशारा किया -- 
					“वह देखो सामने वाली पहाड़ी पर पतझड़ का मारा रुंडमुंड-सा एक 
					अकेला पेड़! मैं भी बस वही हूँ, वैसा ही हूँ! वह भी अकेला, मैं 
					भी अकेला। हम दोनों में बातें होती रहती हैं।” 
 एक पेड़, एक पुरुष! कहाँ दूर का वह वृक्ष, कहाँ मेरी बगल में 
					बैठा वह पूरा इंसान। यह था जिम, मेरा टैक्सी ड्राइवर कम गाइड। 
					पूरा नाम -- जेम्स हिल। पूरा पागल? शायद नहीं! पर वह नीमपागल 
					तो है ही। खोया-खोया, उदास-सा रहता है ...जैसे अपने को ही ढूँढ 
					रहा हो। कभी-कभी मैं भी सोचा करता हूं कि ऐसा खोया -खोया-सा 
					इंसान मेरा गाइड कैसे बन गया? ...लेकिन बन गया!
 उस दिन उसका जन्मदिन था। अपने जन्मदिन पर उसका यह कैसा पगला 
					सवाल था? “उस पेड़ के इर्दगिर्द जमीन पर बिखरे कितने सूखे पत्ते 
					होंगे?”
 “होंगे सैंकड़ों ...हजारों। हमें क्या?”
 “वे पत्ते नहीं, सपने हैं मरे हुए!”
 
 जिम से मेरा परिचय कराया था पर्थ, दक्षिण-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया 
					में मेरे ममेरे भाई राजीव और नेहा भाभी ने। मैं उन दिनों 
					इंग्लैंड से एक रिसर्च प्रॉजेक्ट के सिलसिले में था वहाँ। 
					सिर्फ तीन महीने के लिये। दो चार दिन की बात होती तो कुछ और 
					बात थी। दोनों में से किसी एक की कार माँग लेता। लेकिन तीन 
					महीने की बेशर्मी कैसे कर लेता? राजीव ने जेम्स हिल की टैक्सी 
					का प्रबंध कर दिया।
 सुबह-शाम हम एक साथ रहते। लंच-डिनर एक साथ करते। पता ही न चला 
					कब मैं ‘सर’ से ‘मिस्टर दीपक’ हो गया। दोस्ती हो गई और फिर यह 
					औपचारिकता भी नहीं रही और मैं ‘दीपक’ से अंग्रेजी का एक 
					सर्वनाम, ‘यू’ बनकर रह गया। उसकी टैक्सी का भाड़ा हर शाम देना 
					बनता था मगर उसी ने सुझाया कि मेरी यात्रा के अन्तिम दिन पूरा 
					हिसाब हो जाएगा। मेरी सुविधा भी इसी में थी। उसकी बात मान ली। 
					लेकिन पेड़ और सूखे पत्तों वाली उसकी बात मैं कैसे मान लेता? 
					मैंने भी बेझिझक कह दिया--
 “न तुम सूखा पत्ता हो, न पेड़, न पहाड़ी! अपने जन्मदिन पर ये 
					कैसी बातें कर रहे हो? ...और अकेले क्यों हो? भले-चंगे इंसान 
					हो। खूबसूरत हो, अच्छा कमा लेते हो। कोई गर्ल फ्रेंड ढूँढो और 
					शादी कर लो।”
 “थी एक आदिवासी लड़की, अल्कीना! बिना ढूँढे ही मिल गयी थी।”
 “फिर क्या हुआ?”
 “छूट गयी!”
 झट भूल सुधार किया, “छूट नहीं गयी, छिन गयी। सभी कुछ छिनता रहा 
					है। झेलता रहा हूँ। अब तो आदत पड़ गयी है।”
 अपने अकेलेपन का सबूत भी जिम ने स्वयं दे दिया। अपने जन्मदिन 
					पर उसने किसी पार्टी, वार्टी का आयोजन नहीं किया। बस वह था और 
					मैं। दोपहर में ही पब में पीना-पिलाना शुरू हो गया और काफी देर 
					तक चलता रहा। फिर जिम ने जिद पकड़ ली कि मैं उसके घर चलूँ। बहुत 
					सी बातें करनी हैं।
 जिम का दो कमरों वाला फ्लैट! भीतर प्रवेश करते ही देखा 
					ड्राइंगरूम में सामने वाली दीवार के साथ जुड़ा हुआ उसका पलंग। 
					पलंग से कुछ ऊँचाई पर एक खिड़की ...जैसे पहाड़ी पर के उस पेड़ को 
					निशाने में रखकर वहाँ फिट की गयी हो। कमरे में घुसते ही जिम ने 
					उस पलंग के करीब से उस पेड़ को नमन किया मानो वह उसका कोई 
					देवता, कोई सम्राट हो।
 पागल हरकत, पगली सफाई!
 “तुम्हारा क्या तुम तो पन्द्रह-बीस दिनों में इंग्लैंड भाग 
					जाओगे। फिर वह भी अकेला, मैं भी अकेला। दूसरे कमरे की खिड़की से 
					वह पेड़ दिखाई नहीं देता। इस लिए पलंग यहाँ लगा दिया है। उस पेड़ 
					को देखता हूँ, फिर बातें करता हूँ। अजीब-सी अच्छी फीलिंग होती 
					है, सहारा मिलता है।”
 
 क्या पागलों की भी कोई ‘फीलिंग’ होती है? सड़कों पर अकेले में 
					बड़बड़ाते कितने पागल देखते हैं हम! क्या उनकी भी वैसी ही 
					‘फीलिंग’ होती है?
 जिम की उन ‘बहुत-सी’ बातों की यह उदास भूमिका थी। सोचा, उसका 
					मूड बदलूँ -- “कम से कम आज के दिन तो हँसो, खेलो खुशियाँ मनाओ। 
					क्या ऐसे मनाते हैं जन्मदिन? कहीं अच्छी जगह चलते हैं, डिनर 
					करते हैं। फिर तुम्हारा बर्थडे केक काटेंगे।”
 “मैं जन्मदिन का केक नहीं काटा करता। मेरा जन्मदिन, मदर्स डे 
					और क्रिसमस का दिन ...ये तीन मेरे सबसे उदास दिन हैं ।” “गजब 
					करते हो। यह भी कोई बात हुई?”
 लेकिन बात तो थी। उसने कहा, “तन्त्र कोई भी हो जब हुकूमतें 
					जुल्म पर आती हैं तो खुदा का लिखा भी बदल देती हैं, कयामत बरपा 
					कर देती हैं! मैं तो एक मिसाल भर हूँ, मेरे जैसे कोई दस हजार 
					शिकार और भी हैं।”
 “क्यों? क्या हुआ था?”
 “तुम सुनोगे? सुन सकोगे? तुम्हारे इंग्लैंड के नॉटिंघम में हैं 
					वे मातृदेवी, एक श्रद्धेय सोशल वर्कर, मार्ग्रेट हंफ्रीज। 
					उन्हींसे सुना था पूरा किस्सा।”
 पागलों वाली बात नहीं थी यह! सुननी पड़ी दस हजार कहानियों की 
					उसकी एक कहानी जो दो सभ्य और सुसंस्कृत देशों -- इंग्लैंड और 
					ऑस्ट्रेलिया -- की कहानी भी है!
 
 जेम्स हिल जैसे दस हजार बच्चों को जो कहने को ‘केयर’ में थे, 
					सरकारी परवरिश में थे, इंग्लैंड से निकालकर ऑस्ट्रेलिया में 
					फेंक दिया गया। दोनों देशों की सरकारों के बीच हुए एक अत्यंत 
					खतरनाक, गुप्त और घिनौने समझौते के तहत। कोई कागज पत्तर नहीं, 
					पासपोर्ट नहीं ...बस फेंक दिया! मकसद? नग्न नस्लवाद और 
					गरीब-मासूम बच्चों का निरंकुश शोषण! बदनामी के डर से इस नीच 
					षडयंत्र में कैथलिक ब्रदर्स, साल्वेशन आर्मी, बर्नार्डोज जैसी 
					लोक-सम्मानित धार्मिक और सामाजिक कल्याणकारी संस्थाएँ भी शामिल 
					कर ली गयीं। पैसा सरकारी लगता किन्तु सुविधानुसार इन संस्थाओं 
					को आगे कर दिया जाता।
 
 ब्रिटेन की ‘केयर’ में बच्चों का दैनिक खर्चा था पाँच पाउंड 
					जबकि ऑस्ट्रेलिया में यह था केवल दस शिलिंग (आजके पचास पेंस)। 
					ब्रिटेन को हुई प्रति बच्चा प्रतिदिन साढ़े चार पाउंड की बचत। 
					ऑस्ट्रेलिया की नस्लवादी सरकार को हुआ दोहरा फायदा। 
					ऑस्ट्रेलिया को मिले मुफ्त के नन्हें मजदूर और काले आदिवासियों 
					के मुकाबले गोरों की आबादी की वृद्धि। बाद में गोरे, गोरियों 
					की परस्पर शादियों के फलस्वरूप इस बढ़ोतरी का हुआ जबरदस्त 
					प्रभाव!
 
 बीस सालों में कोई दस हजार बच्चे आराम से खपा लिए गए। माताओं 
					को ‘दुश्चरित्र’ कहा गया और पिताओं को ‘नाकारा’, और फिर झूठ पर 
					झूठ! बच्चों को कह दिया कि उनके माता पिता नहीं रहे और माँ बाप 
					को कहा गया कि उनके बच्चे कुलीन, धनी और भले घरों में गोद ले 
					लिए गए हैं और अब वे उनके संपर्क से दूर रहेंगे। वे बच्चे 
					इंसान नहीं थे, लूट का माल थे और लूट के माल की तरह उनका 
					दुष्प्रयोग भी हुआ।
 जिम को तो अपनी कहानी कहनी थी। वह एक झटके से उठा और दूसरे 
					कमरे में चला गया। लौटा तो उसके हाथ में एक भूरे-से रंग का 
					रजिस्टर था। वैसे ही मरियल से भूरे-पीले पन्ने थे उस रजिस्टर 
					के। देखते ही मेरे मुँह से निकला, “स्क्रैप बुक!”
 “यस, स्क्रैप बुक ऑफ अ स्क्रैप लाइफ (एक रद्दी जिंदगी का कतरन 
					रजिस्टर)! इस में बसी हुई हैं मेरी जिंदगी की बहुत-सी 
					तीखी-कड़ुवी यादें। नौ साल की कच्ची उम्र में मेरी मम्मी का यह 
					अंतिम तोहफा!”
 “तो नौ साल की उम्र में तुम्हारी माँ चल बसीं?”
 “नहीं! वे भी छिन गयीं। वे इंग्लैंड में कहीं होंगी और मैं 
					यहाँ ऑस्ट्रेलिया आ पहुँचा!”
 जिम ने माँ के उस अन्तिम उपहार को एक धर्म-पुस्तक की तरह चूमा, 
					माथे से लगाया और पृष्ठ पलटने लगा।
 पहली तस्वीर नवजात जिम की थी, जिसपर उसकी माँ के हाथ से दर्ज 
					किया उसका जन्म-समय और तिथि उकेरे हुए थे। कुछ तस्वीरें 
					स्कूल-प्रवेश तक उसके बाल्यकाल की थीं ... नन्हीं नन्हीं 
					खिलौना कारें, रबड़ की छोटी-बड़ी गेंदें और प्लास्टिक का 
					क्रिकेट-बल्ला, वगैरा-वगैरा।
 मार्गरेट ने चुन चुनकर बड़े प्यार से स्क्रैप-बुक में चिपकाई 
					होंगी वे कतरनें। एक कतरन में पहली बार बिंदुओं से जुड़े उसके 
					हाथ का लिखा हुआ था उसका नाम, ‘जिम’। वह पन्ने पलटता रहा। कई 
					जगह उन कतरनों में माँ के प्रति छलकते उसके प्यार की लिखावटें 
					भी दिखाई दीं।
 ‘मम’ ‘माय मम’ ‘आई लव यू मम’ और फिर ‘xxx’ का निशान।
 रुँधे हुए स्वर में बयान हुई उस कतरन की कैफियत, “तब पहली बार 
					मम्मी ने मुझे समझाया था कि हर वाक्य के अंत में ‘फुल स्टॉप’ 
					भी लगाना होता है और तुम मम्मी से प्यार करते हो तो चुम्बनों 
					के निशान ‘xxx’ भी जोड़ो।”
 जिम की भीगी आँखें मेरी आँखों से मिलीं, “देख लो तुम भी! मेरी 
					लिखाई सुधरती रही, तकदीर बिगड़ती रही। यह ‘फुल स्टॉप’ सदा के 
					लिए हम माँ-बेटे के बीच आ गया और जैसे गलत लिखाई को कागज पर से 
					काट दिया जाता है, चुम्बनों के ‘xxx’ बन गये काटे के निशान!”
 
 स्क्रैप-बुक के एक पन्ने पर माँ-बेटे की फोटो चिपकी हुई थी। 
					उसके नीचे मार्गरेट हिल ने कैपिटल अक्षरों में दक्षिण लंदन के 
					क्रॉयडन में स्थित अपने घर का पता और फोन नंबर लिख रखे थे। जिम 
					की हथेली उसकी मम्मी के लिखे पच्चीस साल पुराने अपने फ्लैट के 
					पते पर यों फिर गयी मानो अपनी इस प्रक्रिया से उसने समय की 
					फिरकी को सालों पीछे घुमा दिया हो और सात समंदर पार फिर से 
					अपने घर की दहलीज पर जा खड़ा हुआ हो!
 फिर बरबस उसकी चीख निकली, “हिटलर के सहचरो, यह तिल-तिल की मौत 
					क्यों सौंप दी हमें? किसी गैस-चैंबर में डाल देते, गोली से उड़ा 
					देते!”
 
 दस हजार आवाजों में ऐसी ही चीखें और भी होंगी! गोलियों, 
					गैस-चैंबरों से कैसे मिलते मुफ्त के गुलाम, वे बाल-मजदूर? कैसे 
					बढ़ती ऑस्ट्रेलिया में गोरी आबादी?
 यह थी जिम की ‘बहुत सी’ बातों की पहली उदास किस्त! वातावरण 
					भारी हो गया था। बड़ी मुश्किल से मैंने जिम को बाहर चलकर एक 
					अच्छे रेस्तोराँ में डिनर के लिए मनाया।
 
 जिम की पूरी कहानी मैंने सुन ली है। उसकी मम्मी रोमन कैथलिक 
					थीं, पोप की अनुचर। और डैडी प्रोटेस्टेंट, चर्च ऑफ इंग्लैंड के 
					अनुयायी! शादी हुई नहीं और मार्गरेट और डेविड एक साथ रहने लगे 
					और जिम का जन्म हुआ। वह नौ साल का था जब एक रात अचानक डेविड घर 
					छोड़कर चला गया। उसी की कमाई से घर चलता था और मार्गरेट हो गई 
					एक गरीब ‘ सिंगल मदर ’। उसने घर में ही कुछ टाइपिंग और सिलाई 
					का काम शुरु कर दिया था और किसी तरह से माँ-बेटे का गुजारा चल 
					रहा था। फिर भी माँ से बेटे को झपटने के बहाने तराशे जाने लगे।
 एक दिन क्रॉयडन काउंसिल के कर्मचारी आए और एक छपे हुए फॉर्म पर 
					अपना फतवा लिख गए - ‘सिंगिल मदर, कोई स्थायी आमदनी नहीं, जेम्स 
					हिल (९) काउंसिल की सुरक्षा प्रदान की जाय।’
 
 फिर आए पादरीनुमा कैथलिक ब्रदर्स। लम्बे-लम्बे काले चोगे, 
					लम्बी-लम्बी दाढ़ियाँ । न उनमें ईसाइयत थी, न इंसानियत! दाढ़ियों 
					की ओट में छिपे गर्दनों से लटकते उनके क्रॉस, ईसाइयत के इस 
					धर्म-चिन्ह को भी लज्जित करते होंगे। उनका बहाना अलग था। 
					मार्गेरेट ने बिना विवाह के एक विधर्मी से नाता जोड़कर एक 
					bastard को क्यों जन्मा? बहुत चिल्लाई थी मार्ग्रेट, “‘डेविड 
					बेवफा निकला ...मेरी किसमत! शादी हुई हो या न भी हुई हो, 
					सहधर्मी हो या विधर्मी, तुम्हारे पास कोई गॉरंटी है कि कोई 
					किसी सूरत में बेवफा नहीं होता, किसी को छोड़कर नहीं जाता?”
 
 वे अपना सा मुँह लेकर चले गए।
 
 एक तयशुदा नीति थी कैथलिक ब्रदर्स की -- पहले गर्म, फिर नर्म! 
					अब उनकी ओर से पेश हुआ मीठा जहर! एक और पादरीनुमा अजनबी ब्रदर 
					जॉन घर में आने जाने लगा। वही हुलिया पर बड़ी-बड़ी बातें और 
					फरिश्तों जैसे मीठे-विनम्र बोल। वह मार्गरेट को ‘माई चाइल्ड’ 
					और जिम को ‘डीयर लिट्टल सन’ कहकर बुलाता था। उसने विश्वास 
					दिलाया कि कैथलिक ब्रदर्स की नजरों में वे सदा रोमन कैथलिक ही 
					रहेंगे और दोनों माँ-बेटे को कैथलिक ब्रदर्स की ‘केयर’ में रखा 
					जाएगा। जिम को काउंसिल की ‘केयर’ में नहीं जाने दिया जाएगा। 
					ब्रदर जॉन ने मार्गेरेट को अपने संगठन में एक अच्छी फुल-टाइम 
					नौकरी दिलवाने का भी वचन दिया। वह नौकरी के लिए ‘हाँ’ कैसे कर 
					देती!।प्रश्न जिम का था। उसे कौन सँभालता?
 
 जिम ही तो था उनके निशाने पर! उसी को लेकर तो रचा जा रहा था वह 
					प्रपंच। केवल शहद में घुले शब्दों से बात नहीं बनने वाली थी। 
					जॉन परिवार के सदस्यों की तरह हर तीसरे-चौथे दिन कभी फूल, कभी 
					चॉकलेट लेकर पहुँच जाता। धीरे-धीरे इन छोटी छोटी मेहरबानियों 
					के दम पर उनके साथ बिल्कुल अपनों की तरह घुलमिल गया और बन बैठा 
					उनका अभिभावक। उसने दूर ऑस्ट्रेलिया की सच्ची-झूठी प्रशंसा में 
					वहाँ की सुहानी हरियाली मार्गरेट के ठीक आगे बिछा दी।
 
 रात में जो सपने हम देखते हैं, आते हैं गुजर जाते हैं। अगली 
					सुबह तक याद भी नहीं रहते। लेकिन जागृतावस्था में जब कोई दूसरा 
					सपने उँडेलता है, वे गुजरते नहीं। कई बार भीतर कहीं बैठ जाते 
					हैं, घर कर लेते हैं! ब्रदर जॉन को इस कला में कमाल हासिल था। 
					कौन जाने इससे पहले उसने कितनी माओं को बेवकूफ बनाया होगा!
 
 “इंग्लैंड, बिल्कुल तंग और घुटा-घुटा-सा! यहाँ धूप 
					कहाँ...सिर्फ बादल, बारिश और बर्फ। उधर ऑस्ट्रेलिया - एक 
					महाद्वीप। हर मौसम में सुनहली धूप में पलते-पनपते दूर -दूर तक 
					खुले-फैले खेत और फलों के बगीचे! संपूर्ण जन्नत है वह देश। 
					खेतों-बागों की सैर करेगा तुम्हारा लाल! हर तरह के ताजा फल 
					खाएगा। नए-नए दोस्त बनाएगा। घोड़ा-बग्घी में बैठकर स्कूल जाएगा। 
					हर रोज सैंकड़ों-हजारों लोग यहाँ से वहाँ यों ही तो नहीं भाग 
					रहे। तुम्हारे पास भी यहाँ फुल-टाईम नौकरी होगी। कुछ ही महीनों 
					में तुम भी खूब सारे पैसे बचाकर बेटे के पास चली जाना।”
 तभी जिम कमरे में आ गया। ब्रदर जॉन ने उसी से पूछा, “तुम यहाँ 
					सरकारी ‘केयर’ में जाओगे या ऑस्ट्रेलिया?”
 नौ साल का अबोध बालक। बिछोह की व्यथा से अनभिज्ञ। समुद्र-सैर 
					की उकसाहट में झट से कह गया, “ऑस्ट्रेलिया!”
 मुसीबतों की गुफा में कैद मार्गरेट धोखा खा गई। उसके मुँह से 
					निकल गया, “सोचना पड़ेगा!”
 जेम्स को ले जाने के लिए कौंसिल के कर्मचारी एक दिन फिर आ 
					धमके। मार्गरेट ने कहा था ‘सोचना पड़ेगा’, पर विचाराधीन बात को 
					मौके पर मौजूद ब्रदर जॉन ने अपनी ओर से अंतिम निर्णय में बदल 
					दिया। कर्मचारियों को यह कहकर लौटा दिया कि दोनों माँ-बेटा 
					कैथलिक ब्रदर्स की ‘केयर’ में हैं और ऑस्ट्रेलिया भेजे जा रहे 
					हैं, पहले जिम की बारी है, तीन महीने बाद के एक समुद्री जहाज 
					में उसकी बुकिंग है। माँ बाद में बाइ एयर चली जाएगी।
 
 मार्गरेट कुछ न कह सकी। बस सोच लिया कि कम से कम तीन महीने के 
					लिए बुरी घड़ी टल गयी। लेकिन तीन महीने कितने होते हैं 
					...गुजरते देर नहीं लगती। बेटे से बिछोह का खौफ मार्गरेट को 
					खाए जा रहा था। दोनों माँ-बेटा एक ही कमरे में सोते थे। एक रात 
					जिम ने सुनीं माँ की सिसकियाँ। वह उससे जा लिपटा।
 “तू चला जाएगा ...अकेला, इतनी दूर!”
 “बाद में आप भी तो वहाँ आने वाली हैं।”
 “तू अभी बहुत छोटा है। पहले कभी मुझसे अलग नहीं हुआ। इतने दिन 
					मेरे बिना कैसे रहेगा?”
 यही प्रश्न मन ही मन मार्गरेट अपने से भी पूछती होगी, ‘मैं जिम 
					के बिना अकेली कैसे रहूंगी!’ ...और फिर वही आश्वासन जो ऐसे समय 
					माएँ माँगा करती हैं और वही वचन जो दिए जाते हैं -- तमाम उम्र 
					न भूलने की कसमें!
 
 अब वहाँ बिछोह की उदासियाँ भी थीं और उज्जवल भविष्य के सपने 
					भी!
 साउथेम्प्टन। मार्गरेट ने देखा कि उस समुद्री जहाज पर सवारी के 
					लिए जैट्टी पर कोई अस्सी-सौ लड़के-लड़कियाँ और भी थे। कई तो 
					देखने में जिम से भी छोटे थे। एक-दो बच्चे तो केवल तीन या चार 
					साल के होंगे और साथ में कोई व्यस्क भी नहीं!
 विदाई की बेला! माँ ने बेटे को गले लगाया। चुंबनों से उसका 
					मुखड़ा धोया। फिर ढेरों नसीहतें दीं -- भूल मत जाना, खत लिखना, 
					अच्छे बच्चे बनना, पढ़ाई -लिखाई में ध्यान लगाना, सिर्फ खेल-कूद 
					में समय मत गँवाना।
 जिम का ट्रॉली-सूटकेस उसके नन्हे से हाथों में काफी भारी लगता 
					था, सँभल नहीं रहा था। जहाज के गैंगवे पर वह कुछ ही कदम चला 
					होगा जब मार्गरेट की ममता ने जोश मारा, “या मेरे जिम को जहाज 
					से उतारो, या मुझे भी साथ जाने दो।”
 जवाब में सुनने को मिली एक अफसरी फटकार -- “बिना टिकट, बिना 
					पासपोर्ट के कैसे जाओगी तुम? इन सबका तो सामूहिक पासपोर्ट है।” 
					सामूहिक पासपोर्ट? ...कोरा झूठ! ब्रदर जॉन दहाड़ा, “उसका किराया 
					भरा है कैथलिक ब्रदर्स ने! जिम को उतार देते हैं, तुम किराया 
					लौटा दो!”
 
 माँ के ठीक सामने खड़े उसके बेटे की फिरौती माँगी जा रही थी! 
					कैसा ‘ब्रदर’ है यह आदमी? यही जॉन कुछ दिन पहले मार्गरेट को 
					‘माई चाइल्ड’ और जिम को ‘डीयर लिट्टल सन’ कहकर बुलाया करता था।
 मार्गरेट रोती-चिल्लाती रही। जिम माँ को ‘वेव’ करता रहा। जहाज 
					का सायरन बजा और वह सागर की ओर बढ़ चला।
 बीच सागर में जहाज। एक हॉल में सभी लड़के-लड़कियों को इकठा किया 
					गया। उनके नाम और जन्म-तिथियाँ बदल दी गयीं, ताकि भविष्य में 
					उनका कोई अपना, कोई अभिभावक इन्हें अपनाना भी चाहे तो आसानी से 
					तलाश न कर सके। वे मुजरिम तो थे नहीं फिर भी उनकी उँगलियों के 
					निशान तक लिए गए। यदि ऑस्ट्रेलिया में कोई भाग भी जाए, तो फिर 
					पकड़ा जा सके। कोई पीटर से हेनरी हो गया, कोई सूजन से कैथरीन बन 
					गई!
 
 जिम ने जिद पकड़ ली। चीख-चीखकर रोने लगा-- “मेरा नाम और 
					जन्म-तिथि इस स्क्रैप-बुक में लिखे हुए हैं, नहीं बदले जा 
					सकते। मेरी मम्मी ने कहा है कि खत लिखता रहूँ। किसी दूसरे नाम 
					से खत लिखूँगा तो वे मुझे कैसे पहचानेंगी?”
 ...और जिद चल गयी।
 छह महीने की लम्बी समुद्री यात्रा के बाद जहाज पर्थ के 
					फ्रीमेंटल घाट पर किनारे लगा। वहाँ के आर्चबिशप ने उन्हें 
					उपदेश दिया, “तुम सब श्रेष्ठ गोरे समाज की संतान हो। यूरोपियन 
					इसाई मूल्यों का सदा ध्यान रखना। हम यहाँ के काले-असभ्य 
					आदिवासी जंगलियों का बहिष्कार नहीं कर सकते, लेकिन उन्हें अपने 
					समाज में शामिल करने से पहले हमें उन्हें शिक्षित करना है, 
					सभ्य बनाना है।”
 इशारा साफ था -- आदिवासियों का तिरस्कार, नफरत!
 
 समुद्री यात्रा के दौरान लड़के-लड़कियों में घनिष्ठ मैत्री हो 
					गयी थी। वे स्नेह-बंधन भी एक ही झटके में काट दिए गए। घाट के 
					एक कोने में लड़कों को खड़ा कर दिया गया और लड़कियों को दूसरे 
					कोने में। ‘केयर’ में आए कई सगे भाई-बहन भी थे। वे 
					चीखते-चिल्लाते रहे। भाई अलग कर दिए गए और बहनें अलग।
					दूर कहीं कोई जन्नत भी होगी, लेकिन इन बच्चों के लिए 
					ऑस्ट्रेलिया में जहन्नुम की कई शाखाएँ थीं, जैसे क्वींज्लैंड 
					में रॉकहैम्पटन के समीप तथाकथित सन्यासिनों ‘सिस्टर ऑफ मर्सी’ 
					द्वारा संचालित नीरकोल का रोमन कैथलिक अनाथालय।
 
 सद्भावना और स्नेह-रहित अत्यंत क्रूर थीं ये सिस्टर ऑफ मर्सी! 
					इस अनाथालय के फर्श लकड़ी के थे। जरा-जरा सी बात पर लड़कियों को 
					फर्श के तख्तों के नीचे अँधेरे में कैद कर दिया जाता जब तक 
					घुटन में वे मौत की कगार तक न पहुँच जातीं। लड़कियों के नाखून 
					उखाड़ दिये जाते, तेज उबलते पानी में उनके अंग जलाए जाते। पर्थ 
					में अलग किए गये दो सगे भाई-बहन एक बार फिर मिल गए। बड़ी 
					मुश्किल से एक भाई ने बहन को नीर्कोल में ढूँढ निकाला। दोनों 
					एक दूसरे के गले भी मिल सकते थे। जोश में आई बहन ने भाई का हाथ 
					क्या पकड़ा, उसकी पिटाई शुरू हो गयी। दिखावे की सन्यासिनें उसका 
					हाथ भी काट देतीं तो कौन पूछने वाला था? उन्होंने रहम किया। 
					हाथ की हड्डी तोड़ डाली। एक लड़की की गुदा में जलती सलाख डाल दी 
					गयी। उसके भीतर से शैतान भगाना था, इसलिये! कहने को वे सब 
					सन्यासिनी थीं। वे लड़कियों का समलैंगिक यौन शोषण भी करतीं। फिर 
					उन्हें अनाथालय के पुरुष सहयोगियों को बलात्कार के लिए सौंप 
					देतीं।
 
 एक दूसरा जहन्नुम था बिंडून -- पर्थ से कोई अस्सी किलोमीटर 
					उत्तर में एक शहर। बहुत से अभागे लड़कों को वहाँ पहुँचा दिया 
					गया। वह बना उनका बिन ऑफ डूम यानी सर्वनाश का कूड़ेदान! वहाँ 
					कैथलिक ब्रदर्स का एक दूसरा मुखौटा था -- क्रिस्टियन ब्रदर्स। 
					इस संस्था का संचालक था ब्रदर फ्रांसिस कीनी। उसकी मनोकामना थी 
					वहाँ रोमन कैथलिक धर्म के प्रतिष्ठान में एक विशाल भवन का 
					निर्माण। अब हाजिर थे ये बाल गुलाम और गुलामी में उनके मासूम 
					कपोलों पर आँसुओं से लिखी जा रही थी इनकी कहानी! पानी से मुखड़े 
					धुल जाते होंगे मगर गुस्ताख आँसू फिर आ जाते। आँसुओं से लिखी 
					यह कहानी आँसुओं से धुलती रही मगर जुल्म कम नहीं हुए!
 
 भरपेट भोजन था अधिकारियों के लिए और बच्चों को मिलते बचे-खुचे 
					टुकड़े। तिस पर भूखे पेट, मैले-कुचैले वस्त्रों में, नंगे पाँव 
					वे कर रहे थे भवन का निर्माण। कंक्रीट-मिश्रण, चूने का काम -- 
					सब हाथों से करना होता था। छाती से पेट तक के लंबे भारी पत्थर 
					भी उठाने पड़ते थे। कहने को काम धार्मिक था किंतु घायल-बीमार 
					बच्चों की चिकित्सा का वहाँ कोई धर्म नहीं था। जरा-सी भूल पर 
					चमड़े की चार-चार पेटियों के सिले हंटरों से पिटाई होती थी। एक 
					पड़ जाता तो मरने को जी करता! पिटाई होती रहती। कोई हड्डी 
					फ्रैक्चर हो भी जाती तो क्या? कितने मर गए, कितनों ने खुदकुशी 
					की? लाशों का हिसाब कौन रखे? चुपचाप फूँक दिए गए, दफना दिए गए!
 
 अत्यंत भूखा होगा बारह वर्षीय जॉन हेनेस्सी, जब कुछ बच्चों को 
					लेकर वह अंगूरों के बाग में जा पहुँचा। भरपेट अंगूर खाए। वापसी 
					पर नंगा किया गया और पचास लड़कों के सामने चार पेटियों वाले 
					हंटर से पिटा। चाबुकों, हंटरों से बच्चों की मार तो वहाँ की 
					दैनिक प्रक्रिया थी।
 
 प्रस्तावित भवन के चारों ओर दूर-दूर तक फैली थी खाली जमीन जहाँ 
					पर खेती होती थी और फलों के बाग लगाए गए थे। कहा जाता है कि यह 
					सब जमीन या तो आदिवासियों से हथियाई गयी थी या औने-पौने दामों 
					पर खरीदी गयी थी। जिम अभी बहुत छोटा था। बिल्डिंग का काम तो वह 
					क्या करता, उसे बाग में फलों की पेटियाँ भरने पर लगा दिया गया। 
					इंगलैंड में ‘हर तरह के ताजा’ फलों का लालच दिया गया था। अभी 
					उसने एक सेब दाँतों से काटा ही था कि सब लालसा ठंडी हो गयी जब 
					कपोलों को गर्मागर्म चाँटों का सेंक मिला -- “चोरी के फल खाएगा 
					तू?”
 
 लड़कों का यौन-शोषण भी लगातार चल रहा था। रात को बिस्तरों में 
					और दिन में दूर तक फैले खेतों-उद्यानों में। कौन देखता-सुनता 
					था? कभी किसी बच्चे ने एतराज किया तो उसे पास के किसी पेड़ के 
					तने से बाँधकर मतलब निकल जाता! जिम कई बार शिकार हो चुका था। 
					लड़के अपने दुख किससे कहते? ...काश पेड़ बोल सकते!
					शारीरिक अत्याचारों और यौन-शोषण के अतिरिक्त इन बाल-गुलामों पर 
					आर्थिक दबाव भी डाला जाता। ज्योंही कोई बच्चा पंद्रह वर्ष का 
					हो जाता क्रिस्टियन ब्रदर्स उसके भरण-पोषण का हजारों का बिल 
					उसके हाथों में थमा देते ताकि जिंदगी भर वह उनका बंधक मजदूर 
					बना रहे। इतने वर्षों की उसकी बेगार का कोई मूल्य नहीं माना 
					जाता। उसी से उसके शोषण की वसूली की जाती।
 
 इन्हीं अत्याचारों से दुखी एक आठ वर्ष का बालक बिंडून से भाग 
					खड़ा हुआ और सागर किनारे जा पहुँचा। अपने भोलेपन में एक युवा 
					दंपती से इंग्लैंड का पैदल रास्ता पूछ बैठा! किस्मत अच्छी थी 
					उन्होंने उसे गोद ले लिया। बहुत सालों बाद उसने एक इंटर्व्यू 
					में कहा भी था, ‘यदि कोई जमीनी रास्ता होता तो मैं सचमुच चल 
					निकलता।’
 
 आदिवासियों और क्रिस्टियन ब्रदर्स के बीच पुराना झगड़ा चल रहा 
					था। जमीन छिन चुकी थी, तो भी क्या? आदिवासी उसके उत्पादों पर 
					अब भी अपना अधिकार समझते थे और फलों की चोरी के लिए बगीचों में 
					घुस ही आते थे। एक बार उन्होंने धमकाया भी था, “हमें बच्चों का 
					ध्यान है नहीं तो तुम्हारे गुनाहों का यह महल एक रात में राख 
					कर दें और फिर यहीं कहीं जंगलों-गुफाओं में गुम हो जायें।”
 क्रिस्टियन ब्रदर्स स्थिति की नजाकत समझते थे और आदिवासियों से 
					टक्कर लेना अनुचित समझते थे।
 
 एक आदिवासी नियोका ने एक रोज बाग में फल चुराने के दौरान पेड़ 
					से बँधे एक बच्चे की चीखें सुनीं। यह जिम ही तो था। नियोका ने 
					आव देखा न ताव और बलात्कारी की पीठ पर पत्थर दे मारा। फिर एक 
					और पत्थर! जिम को पेड़ से बँधा छोड़कर वह मुजरिम भाग खड़ा हुआ। 
					नियोका ने उसे मुक्त किया। उसके आँसू पोंछे, सिर पर हाथ फेरा 
					-- “यह स्कूल का समय है। तुम स्कूल नहीं जाते?”
 पेड़ से बँधा लड़का स्कूल कैसे जाए?
 उसने बताया, “दो साल पहले, इंग्लैंड में जाता था। ये लोग कहते 
					हैं पहले काम, फिर स्कूल। ढेरों काम होता है, स्कूल जाने का 
					समय ही नहीं मिलता।”
 
 बोलते समय जिम रोने लगा, “स्कूल के लिए कपड़े भी तो चाहिये। 
					मेरे पास तो कपड़े भी नहीं हैं। यहाँ न ढँग से खाना मिलता है, न 
					कपड़े।”
 लड़के में कुछ तो था जो नियोका को छू गया। एक ओर थे ‘श्रेष्ठ 
					गोरी चमड़ी वाले’ धर्म के ठेकेदारों के जुल्मों पर जुल्म और 
					दूसरी ओर ‘काले, असभ्य, जंगली’ नियोका के कोमल मन की सुहृदयता।
 
 नियोका अगले दिन तड़के सवेरे ही आ पहुँचा। साथ में थी उसकी 
					बेटी, अल्कीना। वे अपने साथ अल्कीना के भाई के छोटे हो गए कुछ 
					कपड़े और एक जोड़ी चप्पल भी लाए थे।
 “जल्दी से तैयार हो जाओ। तुम्हें स्कूल ले चलें। आज से तुम 
					अल्कीना के साथ स्कूल जाया करोगे।” “मैं स्कूल नहीं जा सकता। 
					ब्रदर्स बहुत मारेंगे।”
 “वे तुम्हें मारेंगे, हम उन्हें मारेंगे।”
 जिम नहा-धोकर निकला और वे तीनों चलने को हुए तभी ब्रदर 
					हैमिल्टन वहाँ आ टपका, “कहाँ जा रहे हो, जिम?”
 
 जिम नहीं बोला। नियोका ने उत्तर दिया, “तुम गए थे न स्कूल? यह 
					भी जा रहा है। कोई एतराज?”
 हैमिल्टन कुछ बड़बड़ाता हुआ वहाँ से निकल गया। ऑस्ट्रेलिया में 
					सोलह साल तक के बच्चों की शिक्षा अनिवार्य है। ब्रदर्स ने 
					कानून का परिपालन कर दिया और सभी बच्चों के नाम स्कूल में 
					लिखवा दिए मगर हाजिरी पर पाबंदी लगा दी। पाबंदी ब्रदर्स की और 
					अनुपस्थिति की जिम्मेदारी बच्चों पर!
 
 दो वर्षों के अंतराल के बाद फिर से शुरू हुआ जिम का शिक्षारंभ। 
					किसी कारणवश जिम से दो साल बड़ी अल्कीना की शिक्षा देर से शुरू 
					हुई होगी। दोनों एक ही क्लास में थे। दोनों को एक-दूसरे का 
					सहारा हो गया। अल्कीना के टिफिन बॉक्स में जिम का हिस्सा भी 
					रहता। वह क्लास में सबसे फिसड्डी थी। स्कूल से घर के लिए मिला 
					काम दोनों एक साथ करने लगे -- स्कूल में या फिर अल्कीना के घर। 
					जिम के अपने ठिकाने पर या तो स्कूल का काम हो सकता था या फिर 
					क्रिस्टियन ब्रदर्स की भारी बेगार! वे जानते थे कि लड़का उनके 
					बस के बाहर था और ‘बिगड़’ रहा था। विचित्र ‘बिगाड़’ था यह! क्लास 
					का वार्षिक परिणाम आया तो दोनों मित्र लगभग टॉप पर थे। बहुत 
					प्रभावित हुआ स्कूल भी, अल्कीना का परिवार भी। बदले में 
					आदिवासी त्योहारों पर, परिवार में हर किसी के जन्मदिन पर उसे 
					उपहार में मिलते नये कपड़े और जूते। स्कूल के ‘पूअर फंड’ से अलग 
					सहायता मिलती।
 
 क्रिस्टियन ब्रदर्स की ‘केयर’ तो बस नाम की रह गयी थी। जिम को 
					सँभाल रखा था उस आदिवासी परिवार ने। कुछ समय तक सब ठीक ठाक 
					चलता रहा। दूसरे बाल-गुलामों की बगावत के डर से क्रिस्टियन 
					ब्रदर्स जिम की राह में रोड़े अटकाने लगे। वे सवेरे सवेरे ही 
					उसे इतना काम दे देते कि उसका स्कूल जाना दूभर हो जाता। वह देर 
					से पहुँचता और कारण बताता संस्था में काम का आधिक्य!
 
 स्कूल को क्रिसटियन ब्रदर्स के अत्याचारों की पूरी जानकारी थी 
					किन्तु वे उनसे टकराव नहीं चाहते थे। जिम की टीचर मिस सिंप्सन 
					उसकी मदद करना चाहती थीं। उन्होंने भरी क्लास में अपील की कि 
					स्कूल से पहले या स्कूल के बाद कोई उसकी मदद कर दिया करे। शेष 
					बच्चे तो एक-दूसरे का मुँह ताकते रहे। अल्कीना ने अपना हाथ खड़ा 
					कर दिया। मुफ्त में मिली एक और मजदूरिन का क्रिस्टियन ब्रदर्स 
					को क्या एतराज होता?
 
 अब तो वे हर दिन, हर शाम एक साथ होते। स्कूल में और स्कूल के 
					बाद फलों के बागों में। जिम चौदह का हो गया था और अल्कीना सोलह 
					की। शुरू शुरू का स्नेह-स्पर्श अब आलिंगनों में अभिव्यक्त होने 
					लगा। जिम को वह उसके प्रचलित नाम से नहीं, ‘डार्लिंग जिम्मी’ 
					कहकर बुलाती थी और अल्कीना हो गयी थी जिम की ‘अल्की’।
 आदिवासियों में जल्दी शादी का रिवाज है। अल्कीना के प्रस्ताव 
					पर प्रगतिवादी पिता ने साफ इंकार कर दिया।
 “जिम अभी बहुत छोटा है। अभी सगाई कर लो। शादी जिम की कॉलेज की 
					पढ़ाई के बाद होगी।”
 “तो फिर मैं भी उसके साथ कॉलेज में पढ़ूँगी।”
 भले ही हम किसी अनदेखे भगवान को अपना जन्मदाता मानते रहें, जिम 
					के लिए उसकी माँ, उसकी जननी ही उसकी भगवान थी। उसकी क्लास में 
					एक प्रतियोगिता आयोजित हुई। ‘माँ’ पर निबंध लिखा जाना था और 
					सबसे बढ़िया निबंध पर पाँच डॉलर का इनाम था। जिम ने एक अत्यंत 
					सुंदर निबंध लिखा जिसका अंतिम वाक्य था, ‘मेरी माँ ही मेरा 
					ईश्वर है!’ जिम को पुरस्कार दिया गया परंतु उसकी टीचर मिस 
					सिंप्सन ने इस वाक्य को काट कर शुद्ध किया, ‘मेरी माँ मेरे 
					लिये देवी के समान है।’ लड़का तो टीचर के सामने तनकर खड़ा हो 
					गया-- “क्षमा करें, मेरी माँ मेरी ईश्वर ही है।”
 
 शर्मिंदा हो गयी बेचारी टीचर। उसने अपनी शुद्धि को काटकर फिर 
					अपने हाथों से जिम के वाक्य को दोबारा लिख दिया।
 पाँच डॉलर तो क्या, जिम के हाथों में तब तक कभी पाँच सेंट भी 
					नहीं आए थे। तो फिर कैसे लिखता वह माँ को पत्र? निबंध की 
					फोटो-कॉपी करवाई गयी। अल्कीना के पते से जिम ने उन्हें पत्र 
					लिखा। देर से लिखने का कारण, स्कूल की पढ़ाई में अपनी योग्यता, 
					संलग्न किया पुरस्कृत निबंध और पाँच डॉलर के इनाम की बात कही। 
					खुशी खुशी वह पत्र डाक में छोड़ा और बड़े चाव से माँ के उत्तर का 
					इंतजार होने लगा।
 
 माँ का उत्तर क्या आता जब पत्र ही लौटा दिया गया था -- “प्रेषक 
					को वापस। पता खोजा नहीं जा सका।” उसे लिफाफा पकड़ाकर अल्कीना 
					बहुत पछताई। दोनों गले मिलकर देर तक रोते रहे थे।
 “मम्मी गुम हो गयीं ...अल्की, मेरी मम्मी गुम गयीं ...कैसे और 
					कहाँ ढूँढूँगा उन्हें? मम्मी, मेरी मम्मी! ”
 अल्की भी क्या दिलासा देती? बस कह दिया, “सॉरी, जिम! मुझे यह 
					लिफाफा तुम्हें देना ही नहीं चाहिये था। इंतजार तो रहता, 
					उम्मीद तो रहती!”
 XXXX
 
 जेम्स हिल की स्क्रैप-बुक ...‘स्क्रैप-बुक ऑफ अ स्क्रैप लाइफ’ 
					आदि से अन्त तक देख ली है मैंने! उसकी एक पॉकेट में उसका 
					पुरस्कृत निबंध भी पढ़ लिया है। स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य 
					उसके वाक्य ‘मेरी माँ ही मेरा ईश्वर है’ पर टीचर की लाल लकीर 
					और फिर भूल सुधार भी पढ़ लिया है। स्क्रैप-बुक के अन्तिम पेज पर 
					अल्कीना का फोटो भी लगा हुआ है। उसके घुँघराले केश, गहरे 
					साँवले चेहरे को सजाती उसकी चौड़ी पेशानी तले चमकती दो भोली 
					भाली आँखें, पिचकी हुई आदिवासी नाक और मोटे मोटे होंठ -- फिर 
					भी फोटो में वह अत्यंत सुंदर लग रही है। लेकिन अब वह मनोरम 
					मूरत नहीं रही। उसका कत्ल हो गया है। वह बाग में से फल चुरा 
					रही थी। किसी ने पीछे से गोली मार दी। क्या उसके साथ बलात्कार 
					भी हुआ था? पुलिस आई, पूछताछ हुई, बयान लिए गए, पोस्ट-मॉर्टम 
					भी हुआ, पर कोई गिरफतारी नहीं हुई। चुपचाप उसे दफना दिया गया।
 
 एक स्क्रैप-बुक में पूरी जिंदगी तो नहीं सिमट सकती। उस बंद 
					किताब के बाहर भी तो दुनिया है ...उसके भले, भद्दे रंग हैं। 
					नियोका जिम को अपने भावी दामाद के रूप में देखता था। जब 
					अनब्याही बेटी ही न रही, तो दामाद कैसा? फिर भी नियोका का 
					स्नेह वैसा ही बना रहा। लेकिन लड़का अपने को बेसहारा समझने लगा 
					था और बिंडून में क्रिस्टियन ब्रदर्स की तथाकथित ‘केयर’ जी का 
					जंजाल बन गयी थी।
 
 इंग्लैंड से पधारीं मिसेज मार्ग्रेट हंफ्रीज ने मुक्ति दिलाई। 
					वे जिम को बिंडून से निकालकर पर्थ ले आईं जहाँ उसकी स्कूल की 
					शिक्षा पूरी हुई।
 मिसेज हंफ्रीज का आदर्श हैं मदर टेरेजा। उन्होंने इन दुखी 
					बच्चों और उनके परिवारों का दर्द अपना लिया है। उन्हें मौत की 
					धमकियाँ भी मिलीं क्योंकि वे तथाकथित धार्मिक और राजनैतिक 
					महानुभावों को बेनकाब कर रही थीं। वे लगभग हजारेक परिवारों को 
					जोड़ने में सफल हो गयीं। उनका पुण्य अभियान शुरू हुआ जब 
					‘मातृ-हीन’ कही गयी बचपन से ऑस्ट्रेलिया में निष्कासित दो 
					महिलाएँ नॉटिंघम में उनसे आकर मिलीं। मिसेज हंफ्रीज की खोज के 
					बाद दोनों की माताएँ जीवित पाई गयीं। इन दोनों महिलाओं ने 
					बताया कि उनके साथ उनके जहाजों में सैंकड़ों बच्चे और भी थे। तब 
					रहस्य खुला कि उनकी तरह कोई दस हजार बच्चे ऑस्ट्रेलिया में और 
					भी हैं। ऑस्ट्रेलिया के समाचार पत्रों में विज्ञापन छपे जिनमें 
					इन बच्चों के लिए उन्होंने अपनी सेवाएँ अर्पित कीं। हजारों 
					जवाब आए। बहुत से ऐसे व्यस्क भी थे जो बाल्यकाल में बिंडून और 
					बिंडून जैसी संस्थाओं में दुख झेल चुके थे। काम जटिल था और 
					शुरू शुरू में असंभव लगता था। उन्होंने पर्थ और मेलबर्न में इन 
					बच्चों और इनके परिवारों की सहायतार्थ आप्रवासी बच्चों का 
					ट्रस्ट स्थापित किया। असंभव को संभव कर डाला!
 
 मिसेज हंफ्रीज को ऑस्ट्रेलिया में भेजे गए बच्चों की मुसीबतों 
					की पूरी खबर मिल चुकी थी और उन्होंने दोनों देशों की सरकारों 
					को अपनी शिकायतें भेज दीं और उनसे आश्वासन मिला कि जल्दी ही इन 
					सभी जालिमों को कोर्ट में घसीटा जाएगा। मिसेज हंफ्रीज की 
					पूछताछ पर नौ साल की उम्र से तब तक जो भी उसपर गुजरी, जिम ने 
					सब उगल दिया। मैडम ने बेझिझक उसके यौन शोषण के बारे में भी पूछ 
					लिया। चीख उठा था जिम उस वृत्तांत को बताते हुए, “पेड़ों से 
					बाँधकर ...दिन में भी ...क्या क्या नहीं झेला उसने!” मैडम ने 
					उसके आँसू पोंछे, “डरना नहीं। कोर्ट में बताना सब कुछ।”
 जिम ने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया।
 आखिर मिसेज हंफ्रीज की मेहनत रंग लाई। ‘केयर’ के नाम पर चलाए 
					गए मासूम बच्चों के कारागारों और उनके जालिम संचालकों पर 
					मुकदमे चलाए गए।
 
 न्यायालयों में फिर से वही किस्से खुलकर दोहराए गए जिनको कहने 
					वालों, सुनने वालों, जजों, वकीलों के सिर शर्म से झुक गए 
					होंगे। चमड़े की चार पेटियों वाले वे हंटर भी पेश किए गये होंगे 
					जिनसे नन्हीं नन्हीं पीठों पर वार किए गए थे और नंगी पीठों पर 
					उन मारों के अमिट निशान भी दिखाए गए होंगे। अदालत में एक गवाह 
					का नाम पूछा गया। उसका जवाब था -- “मैं अपना सही नाम नहीं बता 
					सकता।”
 “क्या कह रहे हो तुम? यह कोर्ट की अवमानना है?”
 “तीन साल की मेरी उम्र थी जब इंग्लैंड में मुझे मेरे माँ-बाप 
					से छीन लिया गया था और मेरा नाम बदल दिया गया था। मैं अब भी 
					अपनी पहचान ढूँढ रहा हूँ। मेरे माँ-बाप कौन थे? उनके नाम, उनके 
					चेहरे तक मुझे याद नहीं!”
 
 बाल-यौन शोषण के ढेरों किस्से खुले। नियोका और जिम के बयान भी 
					हुए। एक लड़के की प्यारी नीली आँखें दो ब्रदर्स के बीच एक 
					वहशियाना प्रतियोगिता का कारण बन गयीं: दोनों में से कौन सौ 
					बार उसका बलात्कार करेगा। वह अपनी बंद आँखें पीटा करता। किसी 
					तरह आँखों का रंग बदल जाए, इसलिए! आँखों का रंग बदला नहीं और 
					वे दोनों बलात्कार करते रहे! प्राय: कोर्ट कचहरियों में 
					बलात्कार सिद्ध करना लगभग असंभव होता है किन्तु ढाई सौ मामलों 
					में यह असंभव भी संभव हो गया। व्यभिचारी सिद्ध हुईं सिस्टर ऑफ 
					मर्सी की कई सन्यासिनें, और काले चोगों वाले कई ब्रदर्स को 
					यथोचित खूब लंबी सजाएँ सुनाई गयीं और वे हथकड़ियों में जेल गए।
 
 अंतत: ‘केयर’ की सभी संस्थाओं को अपने जुर्म स्वीकार करने पड़े। 
					बिंडून के क्रिस्टियन ब्रदर्स ने पुराने और वर्तमान निवासियों 
					को दस दस हजार डॉलर का मुआवजा देना स्वीकार किया।
 
 स्थिति इतनी शर्मनाक थी कि १९९८ में ब्रिटेन के हाउस ऑफ कामन्स 
					की एक सेलेक्ट कमिटी ने इस घृणित षडयंत्र को ‘ब्रिटेन का 
					शर्मनाक रहस्य’ तो कह दिया किंतु किसी से माफी नहीं माँगी। इस 
					बारे में १५ नवंबर २००९ के दिन ऑस्ट्रेलिया के प्रधान मंत्री 
					श्री कैविन रड्ड ने पहल की और ऑस्ट्रेलियन पार्लियामेंट में 
					ब्रिटेन से अपहृत बच्चों से सार्वजनिक राजकीय माफी माँगी और दस 
					लाख पाउंड का हरजाना घोषित किया। ये बच्चे सभी ब्रिटिश मूल के 
					थे। २३ फरवरी २०१० को ब्रिटेन के प्रधान मंत्री श्री गॉर्डन 
					ब्राउन को भी हाउस ऑफ कॉमंज में वैसी ही माफी माँगनी पड़ी और 
					उन्होंने पीड़ित व्यक्तियों और उनके परिवारों को साठ लाख पाउंड 
					का मुआवजा घोषित किया।
 
 मुआवजे में जिम को भी खूब सारा पैसा मिला लेकिन इन पैसों से 
					खोया हुआ बचपन नहीं मिल सकता था। बेवतन हुआ जिम अब अपनी खोई 
					हुई माँ की खोज में इंग्लैंड जाना चाहता था। उसने ब्रिटिश और 
					फिर ऑस्ट्रेलियाई सरकारों से पासपोर्ट की माँग की परन्तु उसे 
					इंकार ही मिला। यदि अल्कीना से उसका विवाह हो जाता तो वह एक 
					ऑस्ट्रेलियाई नागरिक का पति होता और ऑस्ट्रेलिया का पासपोर्ट 
					आसानी से पा जाता। एक जीते जागते इंसान से कागजी सबूत माँगे जा 
					रहे थे। माँ द्वारा दी गयी स्क्रैप-बुक का एक पन्ना तो सरकारी 
					बर्थ-सर्टिफिकेट नहीं माना जा सकता था। ब्रिटेन में उसके जन्म 
					का प्रमाण-पत्र माँगा गया। माँगे गए ब्रिटेन से प्रस्थान और 
					ऑस्ट्रेलिया में प्रवेश के कागजी प्रमाण! “मैं क्या पेश कर 
					देता? जालिमों ने अपने गुनाहों का कोई सबूत छोड़ा था मेरे पास?”
 जिम की शिकयत थी दोनों सरकारों से, उनके नेताओं से, अधिकारियों 
					से, लेकिन उसने प्रश्न किया मुझसे, “जिन लोगों ने उस दर्दनाक, 
					नाजायज समझौते के तहत हमारी जिंदगियां बरबाद कीं -- बहुत से 
					अभी भी जीवित होंगे, ऊँचे पदों पर स्थापित होंगे -- उन नए 
					हिटलरों पर कब मुकदमा चलेगा? उन्हें कौन जेल भेजेगा?”
 सुनता रहा मैं भी! क्या जवाब देता?
 XXXX
 
 ऑस्ट्रेलिया में मेरी रिसर्च का काम पूरा हुआ और वहाँ पर वह 
					मेरी अंतिम शाम थी। हम दोनों ने एक बढ़िया रेस्तोराँ में डिनर 
					किया। तीन महीनों में जिम की टैक्सी का भाड़ा बनता था पाँच हजार 
					चार सौ डॉलर। मैंने हार्दिक धन्यवाद के साथ एक बंद लिफाफे में 
					उसे छह हजार डॉलर थमा दिए और उसने मुझे दे डाली अपनी 
					स्क्रैप-बुक के उस पृष्ठ की फोटो-कॉपी जिसमें माँ के साथ उसके 
					बचपन की तस्वीर थी: “क्षमा करना दोस्त, अपने दुखों में तुम्हें 
					भी जोड़ लिया। कुछ बोझा तो तुम्हें भी ढोना पड़ेगा। जैसे भी हो 
					...कहीं से भी, किसी तरह से मेरी मम्मी को ढूंढ निकालो। उम्र 
					भर तुम्हारी गुलामी करूँगा।”
 उसकी बेचैन भीगी पल्कें और काँपते होंठ! इंकार का तो सवाल ही 
					नहीं था। अगले दिन वह मुझे एयरपोर्ट तक छोड़ने आया। गले मिले, 
					विदाई हुई और मैं हवाई जहाज पर चढ़ गया।
 
 प्लेन की लम्बी यात्रा। सोचा, अपना थीसिज फिर से पढ़ लूँ। कोई 
					काट-छाँट जरूरी हो तो कर डालूँ। ब्रीफकेस में हाथ डाला और मेरे 
					हाथों में आ गया नोटों से भरा जिम को दिया मेरा वही लिफाफा। न 
					जाने कब मुझसे नजर बचाकर उसने यह खेल खेल डाला। एक रुक्का भी 
					था साथ में -- ‘मैं तुम्हारा नुकसान नहीं चाहता। मम्मी की तलाश 
					में पैसा तो लगेगा ही। चाहिये हो तो और मँगा लेना ...पर मेरी 
					मम्मी ढूँढ दो ...प्लीज, प्लीज, प्लीज!’
 
 एक हथौड़ा सा लगा!
 
 यूनिवर्सिटी में मेरी थीसिस स्वीकार हो गयी और मुझे पीएच डी की 
					डिग्री भी मिल गई, पर जिम की मम्मी नहीं मिलीं। उसके पुराने घर 
					और आसपास के कई घरों पर दस्तक दी और निराश हुआ।
 
 एक वहमी शूल शब्द है ‘शायद’, जो शंका और आशा के बीच टाँगे रखता 
					है, निरंतर चुभता रहता है। मैंने उस घर के सामने वाली सड़क पर 
					चक्कर पर चक्कर लगाए। इसी उम्मीद पर कि अभी एक माँ आएगी। मैं 
					जेम्स हिल का नाम लूँगा और वह उत्सुकता से पूछेगी ‘कैसा है 
					मेरा बेटा?’
 
 एक वृद्धा पुरानी पड़ोसन, मिसेज टेलर से मुलाकात हो गयी। उन्हें 
					इन माँ-बेटे की तस्वीर दिखाई। कुछ क्षण अतीत के धुंधलके में 
					गुम रहीं वे। फिर जैसे किसी जटिल पहेली के सुलझने पर हम जोश 
					में आजाते हैं उसी बुलंदी से उन्होंने बताया, “ओ, यस! 
					मार्ग्रेट हिल। वह तो जिम के साथ ऑस्ट्रेलिया चली गयी थी।”
 
 समझाना पड़ा। मार्ग्रेट हिल नहीं गयी थीं। जिम का अपहरण हुआ था। 
					वह अकेला ही गया था। फिर जो मुझसे बन पड़ा, मैंने किया। 
					क्रॉयडन, साउथेंप्टन के थानों से पूछताछ, समाचार पत्रों में और 
					इंटर्नेट पर विज्ञापन, हस्पतालों, कब्रिस्तानों के चक्कर। कहीं 
					से कोई खबर नहीं!
 डिग्री की प्राप्ति पर मुझे बधाईयाँ तो मिलनी ही थीं। ढेरों 
					पत्र और कंप्यूटर पर इमेल मिले। फोन की घंटी भी बराबर बजती 
					रही। राजीव और नेहा की फोन कॉल भी आई। जवाब में मेरे ‘थैंक यू’ 
					के बाद कहने को न मेरे पास कुछ था न उनके पास। तब राजीव बदलते 
					बेवफा मौसम का पचड़ा ले बैठा --“तुम तो इंडियन समर मना रहे हो। 
					यहाँ पर तो बला की सर्दी है। पिछली रात बड़ा जबर्दस्त तूफान 
					आया। घरों की छतें उड़ गयीं, बहुत से पेड़ गिर गए।”
 
 इसके आगे राजीव ने जो बताया तो लगा मानो उनमें से एक पेड़ मुझी 
					पर आ गिरा हो। उस रात वे दोनों शहीद हो गए -- जिम और उसके साथ 
					पहाड़ी वाला वह पेड़!
 
 परिणाम सोचे बिना जब कोई कुछ भी कर गुजरे तो वह पागल ही माना 
					जाएगा। जिम पर भी वैसा ही पागलपन का दौरा चढ़ा होगा और वह अपने 
					उस चहेते पेड़ से जा लिपटा। अगली सुबह मिली उसकी औंधी-अकड़ी 
					लावारिस लाश। पेड़ को समेटे हुए थीं जिम की अकड़ी हुई बाहें और 
					टाँगें। जरा दूरी पर खड़ी उसकी टैक्सी की नम्बर-प्लेट से उसकी 
					पहचान हुई।
 
 जिम नहीं रहा मगर मुझपर दो-दो कर्ज छोड़ गया है। कहीं पर खोई 
					हुई उसकी माँ भी है ...है या थी? उसे कहाँ ढूँढूँ, कैसे खबर 
					पहुँचाऊँ? बंद लिफाफे में बिन माँगे का जो कर्ज वह मुझपर थोप 
					गया है, उसे कहाँ और कैसे चुकाऊँ?
 एक इंसान की मौत, एक तमाशा! लोगों की भीड़ लग गई थी। पेड़ से लाश 
					जुदा हो तो दफन हो। मगर कैसे?
  
 होता आया है ...इंसान तोड़े जाते हैं, फिर होती है लाशों में 
					उनकी भावनाओं की प्रतिष्ठा! भावुक, व्यथित पादरी भी लगभग रो 
					पड़ा था -- “कभी देखा न सुना ऐसा अनन्य प्रकृति-प्रेम! एक मरे 
					हुए पेड़ से ऐसा अभिन्न एकत्व? मृत की भावनाओं की कदर करो। लाश 
					के ऊपर से पेड़ काटकर उसे सीधी करो। जिम और सीने से लगे तने को 
					एक साथ दफन करना है।”
 जिम अब अकेला नहीं रहा।
 |