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संस्मरण

२९ जून पुण्य तिथि के अवसर पर

कालजयी कवि का अवसान
जसदेव सिंह


कैसी विडम्बना थी यह। उस दिन आठ जून को रमानाथ जी अवस्थी से मिलने के उपरांत घर आकर उनके द्वारा दिए गए उनके काव्य संग्रह 'हंस अकेला' के पृष्ठ उलटने लगा। मेरी नज़र 'रोको मत, जाने दो' कविता की इन पंक्तियों पर पड़ी –
सांस का ठिकाना क्या, आए न आए,
यह बा
त कौन किसे कैसे समझाए,
कुछ भी करो होनहार होगा जरूर
रोको मत, जाने दो, जाना है दूर

तब कौन सोच सकता था और क्यों सोचता कि २१ दिन बाद ही २९ जून को हिन्दी का वह महान सेवक, कलम का धनी और शब्दों को जीवन के सही अर्थों में ढालने वाला और यदि व्यक्तिगत रूप से कहूँ तो मेरा अपना भी कोई सचमुच इतना दूर चला जाएगा कि कभी लिखे गए उनके ही शब्दों में –
एक दिन होगा, हम नहीं होंगे
आप चाहेंगे, हम न आएँगे

सच
रमानाथ अवस्थी अब कभी नहीं आएँगे, आती रहेगी केवल उनकी याद। शायद उस दिन आठ जून को नियति ही ने मुझे निर्देशित किया था, वरना तो अधिकतर फोन पर ही उनसे बात करके सन्तुष्ट हो जाता था। कारण था पिछले पाँच छह वर्षों से मेरा जयपुर आना बढ़ जाना और उनका निवास मेरे आवास से दूर हो जाना। इस बार निश्चय करके गया था कि अवस्थी जी से मिलूँगा जरूर। मेरे प्रति उनका प्रेम मित्र की तरह नहीं, अपितु छोटे भाई जैसा था। रमानाथ जी को मैं तब तक कवि के रूप में हीं जानता था, किन्तु व्यक्तिगत परिचय उनसे आकाशवाणी में तब हुआ जब मैं आपातकाल की तानाशाही का शिकार हुआ और अचानक ही मुझे उस पद पर स्थानांतरित कर दिया गया जिस पर – हिन्दी एकांश – अवस्थी जी कार्यरत थे और जो पद उन्हें मिलना चाहिए था।

अगले छह महीने तक जब हम दोनों को अपना–अपना हक नहीं मिल गया, अवस्थी जी स्वयं सारा कार्य करते रहे। मुझे उनमें जीवन भर के लिए एक सच्चा इन्सान और मित्र मिल गया। उस दिन आठ जून को उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा इसी वर्ष प्रकाशित अपना कविता संग्रह 'हंस अकेला' मुझे दिया, जिसके लिए दो एक बार फोन पर कह चुके थे। उस पर अपने हस्ताक्षरों के साथ लिखा, 'प्रिय परम भाई जसदेव सिंह को सप्रेम'। मैं भी कई महीनों से कह रहा था, 'अवस्थी जी मुझे तो आप पर लिखना है'। उस दिन उनसे हुई बातचीत की रिकार्डिंग अब सदा उनकी स्मृति को अपने पास संजोकर रखने के लिए मेरी बहुमूल्य 'सम्पत्ति' के रूप में सुरक्षित रहेगी।

मेरा पहला प्रश्न था, 'कविता की परिभाषा कैसे करेंगे आप?' उत्तर मिला, 'कठिन सवाल है, फिर भी मैं अच्छी कविता उसे मानता हूँ, जो सहज होकर भी गहरे अर्थ तक आपको ले जाए'। भाषा आसान हो, लेकिन अर्थ बहुत गहरा होना चाहिए'। आपको कविता रचने की प्रेरणा कैसे मिली, बोले 'बस सत्रह–अठारह वर्ष का था, गुन–गुनाता रहता था। कुछ न कुछ जो शब्द निकलते उनमें मुझे यदि कुछ अर्थ दिखाई देता, कागज पर लिख डालता था। लोग पसंद करने लगे, मैं लिखने लगा'।

वह कहते गए, 'मैं लिखता रहा, पर जिस रचना के कारण मेरा हिंदी कविता में प्रवेश हुआ और जो मुझे भी बहुत पसंद है, वह है –
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

बता
ते गए वह, 'जिन कवियों से मैं आत्यधिक प्रभावित हुआ, उनमें स्व. नरेन्द्र शर्मा प्रमुख हैं।' उनकी यह रचना नहीं भूलता कभी।
आएगी श्यामल घटा, आएगा मधु मास भी फिर,
आँख भर कर देख लो तुम, मैं न आऊँगा कभी फिर,
प्राण तन से बिछुड़ कर कैसे मिलेंगे
आज के बिछड़े न जाने कब मिलेंगे

अब सोचता हूँ मैं, यह विराग क्या आरम्भ से उनके अन्दर बैठ गया था। मृत्यु को वह कभी नहीं भूले। जीवन में उनके निस्वार्थ व्यवहार से प्रभावित हो मैंने उनसे पहले भी कई बार कहा था, निराला जी का आप बहुत सम्मान करते हैं। 'हाँ जसदेव जी, यों भी मेरा शुरू का जीवन, मेरी शिक्षा और फिर कार्यस्थल इलाहाबाद ही रहा। निराला जी, महादेवी वर्मा, सुमित्रा नन्दन जी पंत, आदि सभी का सानिध्य और स्नेह मुझे मिला। बच्चन जी के भी मैं बहुत निकट रहा हूँ। 'निराला के प्रति' शीर्षक से अपनी रचना में अवस्थी जी ने कहा भी –
जो न समर्पित हुआ किसी भी दुःख के आगे,
तुम उस कालजयी कवि के वह स्वाभिमान थे
तुम धरती पर चलते फिरते आसमान थे।

उन्होंने बताया, 'एक बार फिर निराला जी के जन्म दिन पर हम सब लोग उनसे मिलने गए। सबने पूछा, 'आने वाली कविता कैसी होगी?' बहुत कम बोलते थे निराला जी, उस दिन भी जब हमने बहुत जोर दिया तो कहने लगे, 'आप सब लोग बहुत अच्छा लिखते हैं। एक बात का ख्याल रखियेगा, यह कि गिर करके कुछ न उठाइयेगा, चाहे वह कविता ही क्यों न हो।' 'तब से यह वाक्य तो जसदेव जी, मेरे जीवन की गायत्री बन गया। मैं कविता के लिए किसी के आगे नत–मस्तक नहीं हुआ। आदर सबका करता हूँ। भगवान की मेरे उपर कृपा है, वहीं बनी रहे।' उस दिन भी मैंने यहीं कहा, 'रमानाथ जी, आप बिल्कुल निराला जी की प्रतिलिपि हैं।'

रमानाथ जी में भी मैंने न कोई मोह पैसे के प्रति देखा, न ओहदे या ख्याति अथवा विदेश यात्राओं के प्रति। हर ओर से निर्लिप्त, सही अर्थों में सरस्वती के उपासक। अपने समय के अनेक जाने–माने कवियों की प्रशंसा करते हुए रमानाथ जी ने कहा, 'कविवर शंभु नाथ सिंह जी और उनके लेखन को मैं प्रणाम करता था। बहुत इज्जत करता था उनकी, यदि वह केवल यही एक गीत भी लिख देते तो बहुत था–
समय की शिला पर मधुर चित्र कितने,
किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए।

आरम्भ ही से मैं अवस्थी जी को स्मरण–शक्ति, एक हिन्दी विद्वान और साहित्यकार होने के बावजूद उनकी सहज सरल भाषा, सुन्दर सटीक उच्चारण, मधुर वाणी, शहद जैसा स्वर और इन सब से ऊपर उनकी सादगी, विनम्रता और शालीनता का सदा से कायल रहा। बहुत कुछ पूछा था उस दिन उनसे मैंने, कितना कुछ लिखूँ?

उस दिन २९ जून को रात कोई साढ़े दस बजे बेटे गुरूदेव ने दिल्ली से फोन किया, 'पापा अच्छी खबर नहीं हैं, अवस्थी जी नहीं रहे।' मैं आसमान से गिरा, विश्वास नहीं हुआ। अभी आठ जून को बीस–इक्कीस दिन ही पहले तो मिला था। अगले दिन नौ जून को स्वयं उनका फोन आया था। 'जसदेव जी, बहुत अच्छा लगा, आप आए।' आप और गुरूदेव से भी मुझे बहुत स्नेह मिलता रहा है : फिर अवश्य आइयेगा।' किन्तु अब वह 'फिर' कभी नहीं आएगा। अवस्थी जी ने कभी अपनी एक रचना के माध्यम से कहा भी था –
जि
सको जो होना है वह होगा,
जो भी होगा, वही सही होगा,
किसलिए होते हो उदास यहाँ,
जो नहीं होना है नहीं होगा।

कौन दे सकता है इसका उत्तर? होनी तो हो गई पर अवस्थी जी हम तो आप ही के शब्दों में –
मैं पुकारूँगा तुम्हें हर बोल में बोलो न बोलो।

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