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किसी भी मनुष्य का विवाह के बन्धन में बँधना एक महत्वपूर्ण कार्य माना गया है। यहाँ विवाह जैसे पवित्र रिश्ते के साथ बन्धन तथा उसमें बँधना जैसे शब्दों का प्रयोग, भाषा के विद्वानों ने सँभवत: अपने अनुभवों के आधार पर ही तय किये होंगे नहीं तो वे विवाह के साथ किन्हीं अन्य सार्थक शब्दों का प्रयोग भी कर सकते थे।

यहाँ मेरा आशय उन शब्दों की व्याख्या करना नहीं है कि कौन सा शब्द उचित है और कौन सा अनुचित और न ही मेरा विवाह की परम्परा के पक्ष या विपक्ष में वाद विवाद प्रतियोगिता या अपनी राय प्रदर्शित करना है बल्कि विवाह में जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू मुझे नजर आता है वह है साडियाँ, गहने, साज सज्जा, खाना पीना बैण्ड बाजे पंडित, लेना देना, ब्यूटी पार्लर, घोड़ी, डांस, सूट टाई, जूते पॉलिस, प्रेस, ब्लाउज और न जाने कितनी चीज़ों के इंतजाम के साथ साथ ही अब फोटोग्राफर का इंतजाम करना, विवाह का एलबम या उसका वीडियो तैयार कराना। यह कार्य इतना ज्यादा आवश्यक हो गया है कि यदि किसी कारणवश फोटोग्राफर न मिले तो विवाह की तारीख में परिवर्तन करना पड़ सकता है। यदि बारात बिना विवाह किये भी लौटने लगे तब भी उसके वापस जाने का फोटो एलबम तथा वीडियो होना ही चाहिये।

यह माना जाता है कि इस अवसर के पलों को यादगार बनाने के लिये ही यह सब बन्दोबस्त किया जाता है जिससे आप विवाह के बाद वर्षों तक उस एलबम को देख देख कर यह अन्दाज लगा सकें कि आप भूतकाल में कितनी मूर्खताएँ कर चुके हैँ। दूल्हे के वेश में किस तरह उजबक बन चुके हैं तथा कैसी ऊलजुलूल हरकतें कर चुके हैं। यह सब देखना और समझना यदि अपने तक ही सीमित हो तब तक भी ठीक है परंतु घर में कोई आया नहीं कि “बुआ जी को शादी का एलबम दिखाओ” का मंत्रोच्चार प्रारम्भ हो जाता है।

मनुष्य का यह एक स्वाभाविक गुण है कि किसी फोटो या एलबम को चाहे वह हजारों बार पहले देख चुका हो पर यदि कोई दूसरा देख रहा हो तो वह एक बार फिर से आगंतुक के कंधे पर सवार हो कर अवश्य देखेगा। “ये हमारे मौसा जी हैं, ये हमारे दिल्ली वाले चाचा जी के दामाद हैं, ये हमारे वो हैं, ये हमारे ये हैं, ये हमारे पिता जी हैं“ जैसी रनिंग कमेंट्री भी साथ साथ चलती रहती है। यहाँ अपने अनुभव के आधार पर मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि इन सब में देखने वाले की बिलकुल भी रुचि नहीं होती क्योंकि किसी को किसी के बाप, मामा, चाचा से क्या लेना देना परंतु जब ओखली में सर देना ही पड़ रहा है तो मूसल की चोट भी सहन करनी पड़ती है और अच्छा अच्छा कहना पड़ता है।

मेजबान द्वारा एलबम में उपस्थित रिश्तेदारों की वंशावली के वर्णन के पश्चात आगंतुक को यह बताना भी अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि इस एल्बम को बनवाने में उसका कितना खर्चा हुआ। “चौबीस हजार लिये हैं फोटोग्राफर ने इसके।” दूल्हे की माँ ने अपना रौब जमाना चाहा और यह आशा की कि इस कथन पर बुआ जी आश्चर्य प्रकट करेंगी परंतु तुरंत ही बुआजी की बात सुनकर वे आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरीं। “तब तो बहुत सस्ता बन गया मेरे, बेटे की शादी में तो उसने पैतीस हजार लिये थे। बुआजी किसी से भी किसी बात में अपने आप को कम प्रदर्शित नहीं करना चाहती थीं। जाहिर था कि बुआजी के इस कथन में जमकर अतिशयोक्ति थी।

एल्बम में फोटो विवाह की रस्मों के हिसाब से ही लगाए गए थे। पहले सगाई फिर दूसरी रस्में, फिर बारात, उसके बाद शादी, रिसेप्शन, विदाई, सुहागरात और हनीमून आदि। चित्र में दिखाए अनुसार दुल्हन ने जो गहने पहन रखे थे उनके बारे में किसी को भी यह विश्वास नहीं था कि वे असली हैं सभी जानते थे कि ब्यूटी पार्लर से किराए पर लिये गए हैं लेकिन हाँ उसके कपड़े जरूर किराए के नहीं थे जबकि दूल्हे के आंतरिक पहनावे के अलावा सब कुछ किराए का था वरना उसने जो शेरवानी और जरी का साफा पहन रखा था वैसा आजकल कौन समझदार पहनता है इसके अतिरिक्त उसने गले में जो मोतियों की माला पहन रखी थी यदि असली होती तो उसकी कीमत में तो पूरी शादी का खर्च निपट जाता।

विदाई के फोटो आते आते दूल्हे की माँ “चाय बनाती हूँ“ कहकर अन्दर चली गई क्योंकि उसके बाद सुहागरात के चित्रों की बारी थी और उन के चित्रों का वर्णन करना उनकी सामर्थ्य से बाहर था। एक चित्र में दूल्हे द्वारा दुल्हन का घूँघट उठाते हुए दिखाया गया था। इसी तरह कुछ और भी चित्र थे जिनसे यह प्रतीत होता था कि उस दिन सुहागरात में दूल्हा दुल्हन के साथ कमरे में फोटोग्राफर भी उपस्थित था। वैसे उस अवसर के जितने भी चित्र थे किसी में भी कोई आपत्तिजनक बात नहीं थी शायद फोटोग्राफर को किसी अन्य विवाह के भी फोटो लेने जाना था इसलिये वह चला गया था और आगे के फोटो रह गए थे, फिर अन्धेरे में फोटो ठीक आते भी नहीं हैं।

किसी भी फोटो में दुल्हन अपने असली रूप में नहीं दिखाई दे रही थी उस समय यदि उसका वजन लिया जाता तो निश्चित ही उसके असली वजन से दुगना होता। ब्यूटी पार्लर वालों या वालियों ने उस पर प्रसाधन के जितने भी औजार और पदार्थ थे सब प्रयोग कर दिये थे तथा कोशिश की गई थी कि शरीर का कोई भी अंग कहीं छूट न जाए जहाँ उनकी फर्म का विज्ञापन न हो रहा हो। लेकिन दर्शनार्थियों को दुल्हन के असली रूप के दर्शन करने में ज़्यादा धैर्य नहीं रखना पड़ा क्योंकि हनीमून के चित्र प्रारम्भ हो गए थे। हनीमून की ये विशेषता होती है कि वहाँ पर दुल्हन कभी भी पारम्परिक वस्त्रों को धारण नहीं करती है तथा यह दर्शाती है कि अँग्रेज जब हिन्दुस्तान से गए तो उसके लिये भी कपड़ों के बहुत से डिजायन छोड़ गए थे बस लोगों को ये जताने के लिये कि उसका भी विवाह हो सकता है और हो गया है।

उसने अपने दोनो हाथों में कलाई से लेकर कोहनी के ऊपर तक कुछ लाल सफेद चूडियाँ पहन रखी थीं, वो तो अच्छा हुआ कि कलाई की मोटाई तथा कोहनी के ऊपर के हिस्से की मोटाई में काफी अंतर होता है वरना चूडियाँ उसके कन्धे तक पहुँच जातीं। अब चूँकि हनीमून पर साथ में फोटोग्राफर को नहीं ले जाया जा सकता है इसलिये वहाँ उसका काम भी दूल्हे को ही सँभालना पड़ता है नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश फोटो दुल्हन के ही थे तथा दूल्हे के फोटो जो मजबूरी में दुल्हन द्वारा खींचे गए थे उनमें यह पहचानना मुश्किल हो रहा था कि यह दूल्हा ही है या कोई काला दानव क्योंकि दुल्हन कोई फोटोग्राफर तो थी नहीं। दूल्हा दुल्हन के साथ साथ जो फोटो थे वो हनीमून मनाने आए दूसरे किसी जोड़े के सहयोग से खिंचवाए गए थे अर्थात तुम उनकी खींच दो, वो तुम्हारी।

इससे भी खतरनाक स्थिति तो तब होती है जब आपको विवाह की वीडियो सीडी दिखाई जाए। लगभग दो तीन घंटे के इस आयोजन में पहले बीस मिनट तो आसानी से गुजर जाते हैं उसके अगले तीस मिनट यह सोचकर कि चलो अब खत्म ही होने वाली होगी गुजारने पड़ते हैं किंतु अंतिम बचे हुए समय में लगता है कि यदि यह जल्दी खत्म नहीं हुई तो शायद हम ही इस संसार से गुजर जाएँगे।

२४ जून २०१३

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