1
गंगोत्री की ओर
शंभुनाथ शुक्ल
शंकराचार्य
ने अपने गंगा स्त्रोत में लिखा है-
देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे
त्रिभुवन तारिणि तरल तरंगे।
शंकर मौलि विहारिणि विमले
मम मतिरास्तां तव पद कमले।।
यानि ऐ माँ गंगा तू मेरी मति को उसी रास्ते पर चलने को प्रेरित
कर जिस रास्ते तेरे चरण पड़े हैं। गंगोत्री में गंगा की कल-कल
निनाद करती लहरों को देखकर मन करता है काश गंगा के सहारे उस
सारे भूभाग का दौरा किया जाए जिसे हजारों साल बाद गंगा-जमुना
का मैदान कहा गया और जिस सभ्यता और संस्कृति की देन पूरी हिंदी
पट्टी है। गोमुख से गंगा सागर तक का इस नदी का सफर इतना पावन
और आकर्षक है कि जो भी व्यक्ति गंगा की उन्मुक्त लहरों को
देखता है जिस स्थान पर देखता है उसे सुरसरि के उसी रूप के
दर्शन होते हैं। मसलन गोमुख की एक धारा गंगोत्री में एक ऐसी
नदी का रूप लेती है जो अपने तीक्ष्ण वेग से नीचे उतरने को आतुर
है और ऋषिकेश में यही नदी एक चपल किशोरी की तरह मैदान में आ
जाती है। जैसे-जैसे यह आगे बढ़ती है इसका वेग मंथर और मंद पड़ने
लगता है तथा गहराई और गहराने लगती है। लेकिन गंगा का दिव्य रूप
अगर कहीं है तो गंगोत्री में ही है।
हालाँकि गंगा के इस उद्गम स्थल में जाना आसान नहीं है भले ही
ऋषिकेश से गंगोत्री तक बाकायदा एक राजमार्ग गया हो। एनएच-१०८
से हम गंगोत्री तक सड़क मार्ग से जा तो सकते हैं लेकिन यह सड़क
मार्ग उत्तरकाशी के बाद इतना टूटा-फूटा और सँकरा है कि
गंगोत्री तक पहुँचना अपने आप में एक धाम की यात्रा पूरी करना
है। एक तरफ हजारों फीट की गहराई में बहती गंगा की अविरल धार
दूसरी तरफ ऊँची-ऊँची चट्टानों को देखकर चक्कर आने लगता है। साथ
ही उन शंकराचार्य की याद कर मन विभोर हो उठता है जिन्होंने
नवीं सदी में अपने कुछ शिष्यों को लेकर गंगोत्री जाकर कुंड में
पड़ी गंगा की मूर्ति की पुनर्स्थापना की थी। यही नहीं
बद्री-केदार में भी उन्होंने तिब्बती राजाओं द्वारा कुंड में
फेंक दी गई प्रतिमाओं को खोजा और उनको स्थापित किया। पर
बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री की यात्रा गरमी के
मौसम में ही सुखद होती है। बारिश के महीने में यह यात्रा आपको
जाम कर देती है। मैं अपने साथियों के साथ छह सितंबर को
गंगोत्री धाम की यात्रा पर निकला तो था गोमुख नेलांग को देखने
के मकसद से लेकिन बारिश और बर्फ ने हमें ऐसा रोका कि चाहकर भी
गंगोत्री के आगे नहीं बढ़ पाए।
सात, आठ और नौ सितंबर को लगातार बारिश पड़ती रही। गंगोत्री में
चौबीसों घंटे भागीरथी की कल-कल के बीच तीन दिनों तक अनवरत सेब
के पेड़ों की पत्तियों से टकराती बारिश की बूँदों की टप-टप
ध्वनि ने हमें ऐसा आतंकित कर दिया कि डीएम के परमिट के बावजूद
हम ना तो नेलांग जा पाए न ही गोमुख। हमारे अरमान धरे के धरे रह
गए। साथ ही हमारे लौटने के रास्ते में इतनी बाधाएँ आईं कि कई
दफे तो हमें लगा कि हम अब जीवित वापस पहुँच भी पाएँगे अथवा
नहीं। कहीं सड़क पर चट्टानें धसकी पड़ी थीं तो कहीं सड़क को पानी
की धाराओं ने बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया था। सुक्खी बैंड पर
जब कोहरा हमारी गाड़ी के सीसे को घेर लेता तो हम कतई यह देख ना
पाते कि आगे कहीं पत्थर गिर रहा है या मूसलाधार पानी की धार
गाड़ी को धकेल रही है।
बारिश तीन दिन से लगातार हो रही थी और किस क्षण गंगोत्री में
बर्फ गिरने लगेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता था। नौ सितंबर को
दोपहर बाद खबर आई कि गोमुख जाने वाले यात्री लापता हैं और बर्फ
कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर गिर रही है उसी क्षण हमने वहाँ से
लौटने की ठानी। मेरे अलावा बाकी तीनों यानी दयाराम शर्मा,
सुभाष बंसला और बिष्ट ऐसे मौसम में वहाँ से तत्काल लौटने को
इच्छुक नहीं थे। गंगोत्री धाम के रावल जितेंद्र सेमवाल का भी
कहना था कि अभी आप रुक जाएँ, लेकिन मैं अड़ा हुआ था। हम फौरन
वहाँ से चल पड़े। गंगोत्री से कालभैरव तक के सारे रास्ते में
हमें न कोई मनुष्य आता-जाता दिखा न ही पशु पक्षी। अब हमें भी
इस बात का अंदेशा सताने लगा कि ऐसा न हो कि कहीं कोई बड़ी
चट्टान सड़क को रोके पड़ी हो। तीन चार जगह तो हमें सड़क पर
चट्टानें पड़ी मिलीं, जिन्हें रास्ते से हटाकर हमने गाड़ी के
निकलने लायक रास्ता बनाया।
कालभैरव के
बैरियर पर भी सन्नाटा था। हम बड़े गौर से पहाड़ों को निहारते हुए
आगे बढ़ रहे थे क्योंकि सौ ग्राम का पत्थर भी अगर पहाड़ से लुढ़का
तो हमारी गाड़ी के परखचे उड़ा सकता था। हर्षिल से थोड़ा पहले एक
बड़ी मोटी धार सैकड़ों, फिट ऊँचे पहाड़ से गिर रही थी। वह इतनी
चौड़ी थी कि हम चाहे जितना दाएँ-बाएँ होना चाहें उस धार के नीचे
आने से नहीं बच सकते थे। खतरा था कि कहीं गाड़ी संतुलन न खो
बैठे। धीरे से हम उस धार के नीचे से गुजरे, तो ऐसा लगा जैसे
बादल फटकर हमारी गाड़ी के ऊपर ही बरस पड़ा हो।
ये सारी बाधाएँ पार कर हम गंगनानी के करीब थे कि अचानक एक पेड़
टूटा और अपने साथ कई चट्टानों को समेटे हुए एनएच-१०८ पर आ
गिरा। करीब पचास मीटर का रास्ता ठप्प हो गया। अब कोई चारा नहीं
था सिवाय इसके कि हम हर्षिल लौट जाएँ। हम लौटते तभी एक और
चट्टान हमारी गाड़ी के ठीक पीछे आकर गिरी और रास्ता बंद। साथी
लोग बुरी तरह घबरा गए। सिर्फ बंसल जी ने कहा कि उन्हें गंगा
मैया पर पूरा भरोसा है कुछ नहीं होगा, आप लोग चुपचाप गाड़ी में
बैठ जाएँ कोई ना कोई रास्ता तो निकलेगा ही । अब मुझे अपनी
हड़बड़ी पर गुस्सा आने लगा। मेरे कारण चार और लोग मुसीबत में फँस
गए थे। १५ मिनट भी नहीं बीते होंगे कि अचानक गंगनानी की तरफ से
एक मिलिट्री कॉनवाय आकर रुका। वह कॉनवाय गढ़वाल रेजीमेंट का था।
उनका अफसर आगे जीप में था और उनके पीछे आठ नौ ट्रकों पर लदे
जवान। सारे ट्रक वहीं खड़े हो गए और उनके जवान उतरे तथा देखते
ही देखते उन्होंने रास्ता साफ कर दिया।
हम वहाँ से
तो निकल गए लेकिन गंगनानी पार करने के बाद हम कोई दो किमी ही
आगे बढ़े थे कि एक बड़ी सी चट्टान लुढ़कती हुई हमारे रास्ते पर आ
गिरी। पहाड़ पर गाड़ी चलाने में सिर्फ बिष्टजी ही पारंगत थे,
इसलिए उन्होंने फौरन वहाँ जाकर जायजा लिया और बोले आप सब लोग
पैदल चलकर इस चट्टान के आगे निकल जाइए, मैं कोशिश करता हूँ कि
चट्टान के बगल से गाड़ी निकाल लाऊँ। कुल पाँच फीट का रास्ता था
और वाकई बिष्ट जी सारी बाधाओं को पार करके गाड़ी निकाल लाए।
भटवारी से रास्ता पक्का था और मनेरी डैम से एकदम साफ। आखिरकार
हम साढ़े सात बजे उत्तरकाशी पहुँच गए। अब हमारी जान में जान आई
क्योंकि अब हम एक ऐसे सेफ जोन में थे जहाँ फँसते भी, तो सब कुछ
उपलब्ध था। |