जी हाँ,
मैं गंगा बोल रही हूँ...
डॉ. सुरेश अवस्थी
जी हाँ मैं गंगा बोल रही हूँ,
द्रवित चक्षुओं से अपने मन की गाँठे खोल रही हूँ। मेरी खातिर कितने ही दुख तटवासी
सहते हैं, मैं गंगा जिसको आप सभी पतित पावनी कहते हैं। मैं वह गंगा जल जिससे परलोक
सुधर जाता है, जिसके आचमन मात्र से अगला जन्म सँवर जाता है। मेरे तट पर सदियों से
कितने मेले लगते हैं, अंतिम यात्रा में लोग हमारे जल से ही तो तरते हैं। मेरे तट पर
तुलसी-कबीर ने कालजयी ग्रंथ रचे। मेरी धारा में बार बार उत्सव के कितने रंग सजे।
उद्भट योद्धा भीष्म पितामह मेरी लहरों पर लेटे थे, मैं साक्षी महाभारत की जिसमें
लड़े एक ही वंश के बेटे थे। इस पर भी मैं करती लहरों के संग किल्लोल रही हूँ। पर आज
यहाँ मन की गाँठें, भारी मन से खोल रहीं हूँ।
’गंगा तेरा पानी अमृत झर झर बहता जाये‘ कहा गया जगते सोते, फिर राम बता तेरी गंगा
कैसे मैली हुई पापियों के पाप धोते धोते‘। सच्चे मन से ग्लानि भरे आँसू जिसने वार
दिये, हमने कितने ऐसे ही सच्चे मन से तार दिये। पर युग बदला, हवा बदली, पूजा, पाठ,
अर्चना, भजन, पंडा तक फसली नकली। सिक्कों भरी तराजू पर बेशर्मी से झूल रहे। पाप
नहीं मुझमें अब तो कपड़े धोये जाते हैं, तट पर कूड़े करकट के काँटे बोये जाते हैं।
कदम कदम पर बालू में मिल जाती दारू की बोतल, मुझे नहीं लोग अब उसे कहते है गंगाजल।
मेरी छाती पर फेंकते लोग लावारिस लाशें व पोलीथिन, उनके बोझ उठा कर मैं दुबली होती
जाती दिन पर दिन। दंश उपेक्षा के मैं दिन दिन भर सहती हूँ, लोग समझते हैं नई धार
निकली जब मेरे आँसू बहते हैं। जल में अपनी आखों के खारे आँसू घोल रही हूँ। जी हाँ,
मैं गंगा बोल रही हूँ।
शहरों में कंक्रीट का मकड़जाल जब से फैला, कारखानों का अपशिष्ट मुझे करता रहता हरदम
मैला। कितने फटे पुराने कपड़े मेरे जल में समा गये, कितने ही भक्त दीप आरती के मेरी
छाती पर बुझा गये। पहले फूलों से मेरी पूजा की फिर सड़ने को जल में छोड़ गये, चरण
छुए, प्रसाद लिया फिर हुंडे पत्तल तोड़ गये। लोक और परलोक का उन्हें नहीं सताता
किंचित भय, पास पड़ोस के रहने वालों ने बना लिए तट पर शौचालय, घाटों के कंगूरों की
ईंटों से बन गयी घरों की दीवारें, अब बोलो इनमें से मैं किसको तारूँ, क्यों कर
तारूँ? भक्त कभी ताँबे का सिक्का मुझमें डाला करते थे, इस कृत्य से पुण्य कमा
पर्यावरण सँभाला करते थे।
ताँबे के तन में लगने से शुद्ध-विशुद्ध हो जाता जल, मैं खुशी खुशी बहती, करती रहती
कल कल कल। अब वे नौकायन करते करते फेंकते बोतल कोल्डड्रिंक की, पिज्जा- बर्गर की
झूठन व कागज पत्तों की थाली। जैसे बच्चा अबोध कोई माँ की गोद में शौच करे, मैं रही
देखती हरदम ही ऐसे ही कुछ भाव भरे। पर अब तो हद पार हुई मुझसे कुछ कहा नहीं जाता।
मैं गंगा हूँ कूड़ा दान नहीं, मुझमें यह सब मत झोंको, यदि शर्म ज़रा भी बाकी हो
अत्याचार तुरंत रोको। अपनी अर्थी अपनी बाहों में समझो अब मैं तोल रही हूँ। मन की
गाँठें भारी मन से अब मैं खोल रही हूँ।
मेरे तट पर कितने ही होते रहे खनन, बालू की परतें खोली जातीं, मैं दुख झेलती मन ही
मन। दिन भर छाती पर घर्र घर्र करते भारी भारी ट्रक के पहिए, ऐसे उत्पीड़न को लेकर
बोलो क्या कहिए। माफिया कभी चलवा देते ठाँय ठाँय करती गोली, जिसकी जीत हुई समझो भर
जाती उसकी ही झोली। ऐसे झगड़ों में जाने कितनों का मुझ पर खून बहा, मैंने यह दंश
रोते रोते कितनी बार सहा। कुछ लोग सबेरे से ही बैठें जल में डाले काँटा, जलचर को
फँसा फँसा, मेरे मन पर मारें चाँटा। मैं तट छोड़ूँ तो बदनामी, वहीं रहूँ तो घुटन
सहूँ, कोई मुझे बताये तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रहूँ? तन पर चोटें ही चोटें हैं उनको आज
टटोल रही हूँ, मन की गाँठें भारी मन से सरे आम मैं खोल रही हूँ । जी हाँ, मैं गंगा
बोल रही हूँ।
सुनते सुनते कान पके न कोई रुकावट
न कोई पंगा, अब होगी अब होगी निर्मल अविरल गंगा। इसकी खातिर जाने कितनी योजनाएँ
बनीं, मेरे तट पर दीप जले, लोगों की मुट्ठियाँ तनीं। मेरी लहरों में समा गया बजट कई
करोड़ों का, पर नहीं काम तमाम हुआ मेरे पथ के रोड़ों का। मेरे नाम बार बार भ्रष्टाचार
की हवा चली, भावुक भक्त बोलते रहे जय जय गंगा गली गली। मुझको निर्मल करते करते खुद
तो मालामाल हुए, मुझको अविरल करते करते कितने ही लोग निहाल हुए। जनता जागे आये आगे
तब तो कोई बात बने, मेरी खातिर अब कोई न भ्रष्ट लहू से हाथ सने।
वरना मैं रूपरंग अपना तुरत-फुरत बदल लूँगी।
भागीरथ को बुलवा कर वापस गोमुख को चल दूँगी।
कितनी कितनी चोट सही फिर भी मैं अनमोल रही हूँ।
मन की गाठें, भारी मन से सरेआम मैं खोल रही हूँ।
जी हाँ, मैं गंगा बोल रही हूँ।
१७ जून २०१३ |