व्यक्तित्व


अमर कथा शिल्पी : चंद्रधर शर्मा गुलेरी
डॉ. राजेन्द्र परदेसी


हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में जिन अनेक रचनाकारों को सदैव याद किया जाता रहेगा, उनमें पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का अवदान अनन्यतम है, उन्होंने कम लिखा है, परन्तु जो भी लिखा, अमरत्व की स्याही से लिखा।

पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म एक सम्भ्रांत परिवार में ७ जुलाई १८८३ को हुआ था। इनके पूर्वज काँगड़ा (हिमाचल प्रदेश) के ‘गुलेर’ नामक स्थान से जयपुर आये थे, इसीलिए इनके नाम के साथ गुलेरी उपनाम सम्बद्ध हो गया। ये संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेजी के भी विद्वान् थे। उन्होंने अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्यापन कार्य किया, बाद में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ओरियन्टल कॉलेज के प्राचार्य भी हुए। इनका स्वभाव अत्यन्त ही सहज था। सरल स्वभाव एवं विनोदशील प्रवृत्ति के कारण इनकी गम्भीर रचनाओं में भी हास्य भरा रहता था। गुलेरी ने ज्योतिष एवं पुरातत्त्व के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया। वैसे तो इन्होंने गिनी-चुनी कहानियाँ ही लिखीं, ‘उसने कहा था’, ‘बुद्धू का काँटा’ और ‘सुखमय जीवन’, किन्तु ‘उसने कहा था’ कहानी से वे हिन्दी के अमर कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

हिन्दी के अनन्य आराधक ‘गुलेरी’ की अद्वितीय कहानी ‘उसने कहा था’ सन १९१५ में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थी। हिन्दी की पहली कहानी के रूप में इंशा अल्ला खाँ की कहानी ‘रानी केतकी की कहानी’, किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’ तथा ‘बंग महिला’ की ‘दुलाई वाली’ का नाम लिया जाता है, किन्तु ‘उसने कहा था’ कहानी को ही हिन्दी की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है। हिन्दी के प्रखर आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस कहानी के सम्बन्ध में लिखा है, इसके यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यन्त निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी ही है, जैसी अक्सर हुआ करती है, पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा है, केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है। कहानी में कहीं प्रेम की निर्लज्जता, प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचता, इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं है।

साहित्य की एक सशक्त एवं सफल विधा के रूप में जिस कहानी ने हिन्दी साहित्य के विराट् फलक पर अपना आकार ग्रहण कर गौरव हासिल किया है, उस कहानी को पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जैसे साहित्यकार ने ही जीवित किया और जीवंत विधा के रूप में मान्यता दिलाकर उसे अस्तित्व में लाए। आज कहानी अपने सशक्त रूप में प्रभावशाली विधा बनकर हिन्दी साहित्य में निरन्तर गतिशील है, आज कहानी साहित्य की सर्वाधिक प्रभावशाली एवं चर्चित विधा है। काल और परिस्थितियों की भिन्नता से कहानी में बदलाव आता गया और उसका स्वरूप भी बदलने लगा है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से वर्तमान कहानियाँ अपने पूर्ववर्ती रूप से काफी भिन्न हैं, फिर भी पूर्ववर्ती कहानियों का हिन्दी कथा साहित्य को वर्तमान स्वरूप दिलाने में विशेष योगदान है।

गुलेरी की कहानियों का प्रेमोन्मुख तेवर आदर्शवादी है। ‘बुद्धू का काँटा’ और ‘सुखमय जीवन’ में गुलेरी के कहानीकार व्यक्तित्व का विकास अवश्य हुआ है, किन्तु ‘उसने कहा था’ कहानी में उनकी अद्भुत कल्पना शक्ति का परिचय मिलता है, जिसमें यथार्थवादी सम्भावनाएँ बनती नजर आती हैं। मात्र इसी कहानी के आधार पर गुलेरी हिन्दी साहित्य में अमर हो गए। यहाँ तक कि यह कहानी गुलेरी का पर्याय ही बन गई। कहानी का कथानक ही ऐसा है कि पाठक जिज्ञासु बनकर घटनाओं के प्रति उत्सुक बना रहता है, किसने कहा था, क्या कहा था और क्यों कहा था, यही कहानी की मूल संवेदना से जुड़ा तथ्य है, जो घटनाचक्र के साथ पाठक को जोड़े रहता है और उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति को विकसित करता है।

वैसे तो इस कहानी में पात्रों की संख्या अधिक है, किन्तु उसकी मूल आत्मा केवल लहना सिंह और सूबेदारनी से ही अधिक संवेदित दिखायी देती है। इन्हीं दोनों पात्रों के बीच एक ऐसी प्रेम कहानी का ताना-बाना बुनता है, जो लहना सिंह के जीवन को आदर्शवादी मूल्यों से जोड़ देता है। एक ऐसा आदमी जो अनुपम होने के साथ-साथ आदरणीय है, अनुकरणीय है और आह्लादक भी।

कहानी की शुरुआत अमृतसर के भीड़ भरे बाजार से होती है, जिसमें एक बारह वर्षीय लड़का अपने को जोखिम में डालकर एक आठ वर्षीय लड़की को ताँगे से बचाता है, जहाँ से उन दोनों के बीच परिचय का सिलसिला आरम्भ होकर प्रेम का रूप ले लेता है और भावनात्मक सूत्र में दोनों को बाँध लेता है। लड़का, लड़की से यह पूछकर छेड़ता है, ‘तेरी कुड़माई हो गई’ और लड़की ‘धत्’ कहकर भाग जाती है। लड़का-लड़की का बार-बार मिलना और लड़के का यही प्रश्न करना कितना रहस्यपूर्ण लगता है। इस प्रश्न में क्या कोरी जिज्ञासा थी या कोई और मार्मिक बात? उस मार्मिकता की पहचान तो उस समय होती है, जब एक दिन लड़की ने कहा, ‘हाँ, कल हो गयी, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू’। यह सुनकर लड़के का चेहरा भाव-व्यंजक बन जाता है, रहस्य से पर्दा हट जाता है और लड़के के भीतरी मन की बात भी उजागर हो जाती है। बिना कुछ कहे घटना ही सब कुछ कह डालती है और कला का मापदण्ड बनकर गुलेरी की कलात्मकता कथा-साहित्य में प्रेम और सौन्दर्य की सृष्टि कर डालती है।

एक अनजान लड़का और लड़की के अकस्मात परिचय के बाद प्रेमजनित मिलन की उत्सुकता से जुड़ी कहानी एक परवर्ती कहानी को जन्म देती है, जिसमें लहना सिंह और सूबेदारनी जैसे किरदारों की सृष्टि से गुलेरी ने लड़का और लड़की को जीवन के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया है जहाँ प्रेम लहना सिंह के लिए मूल्यवान बन गया है तो अटूट विश्वास सूबेदारनी की थाती।

प्रथम विश्व युद्ध के मोर्चे पर तैनात लहना सिंह जो कभी अपनी जान जोखिम में डालकर लड़की को बचाने का अदम्य साहस रखने वाला बारह वर्षीय लड़का हुआ करता था। छुट्टी के बाद घर से लाम पर जाते समय सूबेदार हजारा सिंह के घर गया था और वहाँ पर सूबेदारनी ने उससे अपने पति हजारा सिंह और पुत्र बोधा सिंह का ख्याल रखने का अनुरोध किया था। इन सारी स्मृतियों के रसगंध को अपनी साँसों में समेटकर लहना सिंह कर्त्तव्य की कसौटी पर स्वर्ण की भाँति तपकर निखर उठता है और वह सूबेदारनी जो कभी ‘हाँ हो गई..देखते नहीं यह रेशम से कढा हुआ सालू’ कहने वाली आठ वर्ष की लड़की हुआ करती थी। लहना सिंह के अगाह उर उदधि में उठने वाली प्रेम-तरंगों के बीच बहते विश्वास के मोती को अपने आँचल में समेटकर उसे अपनी थाती मान बैठती है। प्रेम ऊँचे आदर्शों के रूप में लहना सिंह के लिए मूल्यवान बन जाता है, जिसकी रक्षा वह कुर्बानी देकर करता है। पुरातन प्रेम नित्य-नूतन बनकर उत्सर्ग को जन्म देता है। प्रेम का जलता हुआ दीप तूफान में भी नहीं बुझता, क्योंकि अपार स्नेह उसमें भरा रहता है। घायल अवस्था में बार-बार सूबेदारनी द्वारा सौंपे गए दायित्व को लहना सिंह अपने प्रेम और कर्त्तव्य से जोड़कर देखता है, सपनों का संसार बार-बार उसके सामने उभरता है। भावनाएँ मूर्छित लहना सिंह को जगाती हैं, पसली का घाव बहता रहता है, मगर लहना सिंह के मुँह से बार-बार यही आवाज निकलती है, वजीरा सिंह पानी पिला, उसने कहा था।

जिन्दगी के अंतिम क्षण में कुड़माई से लेकर उसने कहा था, तक समस्त स्मृतियाँ अपना आकार लेती हुई लहना सिंह की आँखों में सपना बनकर तैरती है। वजीरा सिंह पानी पिलाता है और पानी के घूँट के साथ अतीत का प्रेम संवेदना के साथ जुड़कर उसमें अपार सुख-संतोष उस समय भर देता है, जिस समय लहना सिंह अपने को कुर्बान करके अपना संकल्प पूरा करता है। कर्त्तव्य बोध के शिकंजे में कसती जा रही लहना सिंह की जन्दगी का एक-एक क्षण उत्सर्ग की भावना से ओत-प्रोत होकर सच्चे प्रेम का साक्ष्य बन जाता है। उसकी एक-एक बूँद सूबेदारनी की माँग के सिंदूर को धूमिल होने तथा आँचल के दूध को सूखने से बचाती है। आखिरी साँस तक लहना सिंह की कर्त्तव्यपरायणता जीवित रहती है और मरने के बाद उत्सर्ग से अनुप्राणित उसका पावन प्रेम मंदिर की पूजा की भाँति अति पावन बनकर लोकोत्तर आनंद और अप्रतिम सौन्दर्य से दीप्तिमान हो उठता है। प्रेम की इस पावन परिणति में वासना की व्यग्रता और मादक चपलता से मुक्त लहना सिंह अमरत्व प्राप्त करता है और गुलेरी अविस्मरणीय बन जाते हैं।

गुलेरी मात्र कथाकार ही नहीं थे। वे सफल निबंधकार भी थे। ‘कछुआ धर्म’ और ‘मारेसि मोहि कुठाँव’ उनके प्रसिद्ध निबंध हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई शोध निबंध भी लिखे हैं। उनके निबंधों में शैली की जो अर्थगर्भित वक्रता मिलती है, वह अन्य किसी लेखक में नहीं मिलती। उनके निबंधों में हास्य-विनोद की जो सामग्री उपलब्ध है, वह ज्ञान के विविध क्षेत्रों से ली गयी है। उनके लेखों में विनोद के साथ-साथ अर्थ गाम्भीर्य भी है। एक उदाहरण, मनुस्मृति में कहा गया है कि जहाँ गुरु की निंदा या असूत कथा हो रही है, वहाँ पर भले आदमी को चाहिए कि कान बंद कर ले या कहीं उठकर चला जाये। मनु महाराज ने न सुनने जोग गुरु की कलंक कथा सुनने के पाप से बचने के दो उपाय बताए या तो कान ढँककर बैठ जाओ या दुम दबाकर चल दो। तीसरा उपाय जो और देशों के सौ में नब्बे आदमियों को ऐसे अवसर पर सूझेगा, वह मनु ने नहीं बताया कि जूता लेकर या मुक्का तानकर सामने खड़े हो जाओ और निन्दा करने वाले का जबड़ा तोड़ दो या मुँह चिपका दो कि ऐसी हरकत न करे।

इस प्रकार गुलेरी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। साहित्य के अतिरिक्त ज्योतिष और पुरातत्त्व का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। उनके साहित्यिक अवदान अल्प अवश्य हैं, किन्तु अद्भुत हैं - देखन में छोटन लगें, घाव करे गंभीर। हिन्दी साहित्य का ऐसा अद्भुत साहित्य सर्जक सितम्बर १९२२ को अपने अनमोल रत्नों से हिन्दी साहित्य की साहित्य मंजूषा को धनी बनाकर सदा-सदा के लिए विदा हो गया, किन्तु उसके वे अनमोल रत्न आज भी साहित्य जगत को दीप्ति प्रदान करते हैं। समाज और साहित्य दोनों के लिए प्रेरणा-स्रोत बनकर प्रेम की उच्च परिभाषा गढ़ते हैं।

२४ जून २०१३